वन संरक्षण कानून में संशोधन कर सरकार कुछ प्रकार की भूमियों को संरक्षित भूमि के दायरे से बाहर करना चाहती है।

वन संरक्षण कानून में बदलाव: सरकार को मिले 1,200 से अधिक सुझाव

केंद्र सरकार के वन संरक्षण कानून (फॉरेस्ट कंजरवेशन एक्ट) 1980 को संशोधित करने के लिए लाए गए बिल पर संसदीय समिति को 1,200 से अधिक सुझाव मिले हैं

मोटे तौर पर देखें तो इस कानून के जरिए सरकार कुछ प्रकार की भूमियों को वर्तमान कानून में परिभाषित संरक्षित भूमि के दायरे से बाहर करना चाहती है, और उन भूमियों पर किए जा सकने वाले कार्यों की सूची में विस्तार करना चाहती है। जैसे वन भूमि पर चिड़ियाघर, इको टूरिज्म और सफारी जैसी गतिविधियां और सिल्वीकल्चर को इजाज़त देना।

पर्यावरण कानून पर काम करने वाली एनजीओ लाइफ ने सुझाव दिया है कि यह बिल मूल कानून के पूरे मकसद को बदल देगा। इसलिए इसे संशोधन विधेयक नहीं कहा जा सकता, यह नया कानून है। इसी तरह संरक्षण के काम से जुड़ी प्रेरणा बिन्द्रा और केरल की आईएफएस अधिकारी प्रकृति श्रीवास्तव का कहना है कि प्रस्तावित संशोधन ‘मूल कानून को इतना क्षीण कर देते हैं कि, वन संरक्षण और जंगलों का कटान रोकने के लिए उसका प्राथमिक उद्देश्य खत्म हो जाता है’।

बहुत सारे संगठनों — जिनमें आदिवासी संगठन भी शामिल हैं, जैसे वन गुर्जर आदिवासी युवा संगठन — ने कहा है कि अगर यह संशोधन पारित हो गए तो समुदायों को मिले भूमि अधिकारों के कमजोर हो जाने  का डर है।

कॉप28: जीवाश्म ईंधन लॉबिस्टों को बतानी होगी अपनी पहचान

कॉप28 जलवायु शिखर सम्मेलन के लिए पंजीकरण करते समय जीवाश्म ईंधन के लॉबिस्टों को अपनी पहचान जाहिर करनी होगी। इससे वार्ता में प्रदूषणकारी और कार्बन-इंटेंसिव उद्योगों की जवाबदेही अधिक होगी।

हर साल, दुनिया भर के नेता कॉप बैठक में भाग लेते हैं, जहां जलवायु परिवर्तन से निबटने को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं। सालों से जीवाश्म ईंधन कंपनियों के अधिकारी इन कंपनियों के साथ अपने संबंधों को स्पष्ट किए बिना इन बैठकों में भाग लेते रहे हैं

कॉप26, ग्लासगो में किसी भी एक देश के प्रतिनिधियों की तुलना में जीवाश्म ईंधन उद्योगों के प्रतिनिधि अधिक थे। पिछले साल, 600 से अधिक ऐसे प्रतिनिधि मिस्र में कॉप27 में शामिल थे।

लेकिन अब इस शिखर सम्मेलन के लिए पंजीकरण कराने वाले किसी भी व्यक्ति को अपनी संबद्धता घोषित करना अनिवार्य है। संयुक्त राष्ट्र के इस कदम से जलवायु कार्यकर्ता खुश हैं और इसे जीत की ओर पहला कदम बता रहे हैं।

बद्रीनाथ मास्टर प्लान: विकास या आपदा की पटकथा?

बद्रीनाथ धाम के नए मास्टर प्लान के तहत बड़े पैमाने पर निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है।

मास्टर प्लान के तहत बद्रीनाथ मंदिर के आसपास 75 मीटर के दायरे में सारे निर्माण कार्य हटाने की योजना है, ताकि मंदिर की भव्यता दिखाई दे। यहां अलकनंदा रिवरफ्रंट और प्लाजा बनेगा। साथ में क्लॉक रूम (सामान जमागृह), यात्रियों की कतार व्यवस्था, झीलों का सौंदर्यीकरण और पार्किंग व्यवस्था के साथ सड़क निर्माण शामिल है।

हालांकि यात्रियों की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए इसकी जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन बद्रीनाथ क्षेत्र की संवेदनशील भौगोलिक संरचना को देखते हुए विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि समय रहते इस कार्य को न रोका गया तो 2013 में केदारनाथ में आई आपदा जैसी त्रासदी का सामना करना पड़ सकता है।

चीतों को कूनो से बाहर ले जाने का फिलहाल कोई इरादा नहीं: सरकार

केंद्र सरकार ने कहा है कि मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान से चीतों को कहीं और स्थानांतरित करने की फिलहाल कोई योजना नहीं है। पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने कहा कि यदि भविष्य में कूनो में कोई समस्या होती है, तो मध्य प्रदेश के गांधी सागर अभयारण्य को चीतों के वैकल्पिक निवास के लिए चुना गया है।

उन्होंने कहा कि चीते मौसम और आवास के अनुरूप ढल रहे हैं और अपना इलाका स्थापित कर रहे हैं, इसके लिए उन्हें समय देना चाहिए

पिछले तीन महीनों में तीन वयस्क चीतों और तीन शावकों की मौत के बाद, कूनो में चीतों को रखने पर कई विशेषज्ञों ने सवाल उठाए थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से कहा था कि वह चीतों को राजस्थान भेजने पर विचार करे। इसके बाद यह भी खबर आई थी कि कुछ चीतों को गांधी सागर भेजा जा सकता है। 

जलवायु परिवर्तन चाय बागान मजदूरों को कर रहा बीमार, कैसे बेहतर हो स्थिति

जलवायु परिवर्तन का असर दार्जिलिंग के प्रसिद्ध चाय बागानों के उत्पादन, चाय के स्वाद और सैकड़ों श्रमिकों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। हालांकि, अभी तक कोई स्पष्ट आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने इस समस्या की ओर ध्यान दिलाया है।

चरम मौसम की बढ़ती घटनाओं से उपज की रक्षा के लिए बागान मालिक धड़ल्ले से कीटनाशकों और केमिकल्स के उपयोग को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे बागान मजदूरों को सांस की तकलीफ और त्वचा रोग हो रहे हैं। कई बागानों में श्रमिकों को दस्ताने, मास्क आदि सुरक्षा गियर भी नहीं दिए जाते हैं।

डाक्टरों की मानें तो लंबे समय तक इन रसायनों के संपर्क में रहने से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं।  

विशेषज्ञों ने सुझाया है कि इस समस्या से निबटने के लिए जरूरी है कि मिट्टी का जैविक संतुलन बनाए रखा जाए, उचित छाया वाले पेड़ लगाए जाएं और बीज से उत्पन्न और क्लोनल चाय के पौधों के बीच संतुलन सुनिश्चित किया जाए। इन रसायनों के अंधाधुंध उपयोग से भी जलवायु परिवर्तन बढ़ता है, इसलिए पेस्ट कंट्रोल और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।

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