बद्रीनाथ मंदिर के 75 मीटर के दायरे में बने निर्माण हटाए जा रहे हैं। Photo: Hridayesh Joshi

बद्रीनाथ मास्टर प्लान: विकास या आपदा की पटकथा?

बद्रीनाथ मास्टर प्लान से क्या सरकार 50 साल पुरानी उस कोशिश को दोहरा रही है, जिसे तब व्यापक आंदोलन और सरकारी कमेटी की सलाह के बाद रोका गया था।

“हम लोग सात भाई हैं और हमारी यहां सात दुकानें थीं। हम पिछले कई दशकों से इन दुकानों में प्रसाद सामग्री, कपड़ा और बर्तन आदि बेचकर अपनी जीविका चलाते रहे हैं। प्रशासन ने मार्च में बिना कोई नोटिस या समय दिए हमारा सब कुछ तोड़कर मिट्टी में मिला दिया।”

साठ साल के दिनेश चन्द्र डिमरी अपनी टूटी दुकानों के मलबे को देखते हुए अपना गुस्सा बयान कर रहे हैं। उनके अलावा कई दुकानदारों के व्यवसाय प्रशासन ने हटा दिए हैं। बद्रीनाथ धाम के नए मास्टर प्लान के तहत यह किया जा रहा है और डिमरी की तरह बहुत सारे लोग सरकार की हड़बड़ी और जल्दबाजी से बेहद खफा हैं।

लेकिन बद्रीनाथ में आज सवाल दोहरा है। एक ओर मुआवजे और पुनर्वास को लेकर नाराजगी और दूसरी ओर संवेदनशील परिदृश्य में भारी निर्माण और खुदाई की वजह से खड़ा संकट।

बद्रीनाथ बनेगा स्मार्ट आध्यात्मिक हिल टाउन!

राज्य में स्थित चार धामों में से एक बद्रीनाथ उत्तराखंड के चमोली जिले में है, और समुद्र सतह से 3,133 मीटर (10,279 फीट) की ऊंचाई पर है। हर साल यहां लाखों तीर्थयात्री और पर्यटक आते हैं। सरकार ने केदारनाथ की तर्ज पर साल 2020 में बद्रीनाथ के लिए एक मास्टर प्लान बनाकर प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा था, जिसका बजट उस वक्त 424 करोड़ रुपए था। राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पिछले विधानसभा चुनावों से पहले कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देशन में यह मास्टर प्लान तैयार किया गया है

हालांकि तब धामी ने इस मास्टर प्लान का बजट 250 करोड़ रुपए बताया था, इसलिए इस पर खर्च को लेकर स्पष्टता नहीं है। लेकिन चमोली के जिलाधिकारी हिमांशु खुराना ने हमें बताया कि मास्टर प्लान के तहत बद्रीनाथ में चरणबद्ध तरीके से काम हो रहा है और व्यय भी उसी हिसाब से होगा।

सूत्रों के मुताबिक यह बजट 600 करोड़ रुपए से ऊपर हो सकता है।

मास्टर प्लान के तहत बद्रीनाथ मंदिर के आसपास 75 मीटर के दायरे में सारे निर्माण कार्य हटाने की योजना है, ताकि मंदिर की भव्यता दिखाई दे। यहां अलकनंदा रिवरफ्रंट और प्लाजा बनेगा। साथ में क्लॉक रूम (सामान जमागृह), यात्रियों की कतार व्यवस्था, झीलों का सौंदर्यीकरण और पार्किंग व्यवस्था के साथ सड़क निर्माण शामिल है। सरकार का कहना है कि इससे धाम अधिक ‘व्यवस्थित और सुंदर’ होगा और बद्रीनाथ एक ‘स्मार्ट स्पिरिचुअल हिल टाउन’ बन जाएगा।

मुआवजे का सवाल और जनता की नाराज़गी

लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि मास्टर प्लान को लागू करने में नियमों की अवहेलना हुई है और लोगों को अपनी आपत्ति दर्ज कराने का मौका नहीं मिला। मास्टर प्लान कैसे लागू हो इसके लिए उत्तराखंड अर्बन एंड कंट्री प्लानिंग एंड डेवलपमेंट एक्ट में व्यवस्था है।

इस एक्ट के तीसरे अध्याय में नियमों के मुताबिक पहले ड्राफ्ट मास्टर प्लान को प्रकाशित कर सभी पक्षों को आपत्तियां दर्ज करने का अवसर मिलना चाहिए लेकिन बद्रीनाथ मास्टर प्लान को लेकर बनी संघर्ष समिति के अध्यक्ष जमना प्रसाद रेवानी ने कहा, “सरकार ने कई मकानों को बिना अनुमति के तोड़ दिया। भले ही मंदिर के चारों और 75 मीटर के दायरे में अधिग्रहण हो रहा हो, लेकिन 90% लोगों ने इस कार्य के लिए कोई एनओसी नहीं दी है और न उनको कोई मुआवज़ा मिला है और जब तक उन्हें समुचित मुआवजा नहीं मिलता है, वह निर्माण नहीं चाहते।”

लेकिन जिलाधिकारी हिमांशु खुराना कहते हैं कि स्थानीय लोगों के पुनर्वास और मुआवजे के लिए अब तक 350 से अधिक लोगों से सीधा संवाद किया गया है और जनता के सुझाव के आधार पर ही मुआवजे की नीति तय की गई है।

खुराना ने कहा, “हम जानते हैं कि यहां लोगों का रोजगार बद्रीनाथ धाम से जुड़ा है और उनमें से बहुत सारे यह जगह छोड़कर नहीं जाना चाहते। जगह भले ही छोटी सी हो लेकिन बहुत बड़ी इकॉनोमी लोगों से जुड़ी है। इसलिए हमने सर्किल रेट को 170% बढ़ाया और मुआवजे की राशि को सर्किल रेट से दोगुना किया है। उसके बाद भी अगर कोई मुआवजा नहीं लेना चाहता है तो सरकार दुकान या भवन बनवाकर उनके पुनर्वास का काम करेगी।”

बद्री-केदार मंदिर समिति के चेयरमैन अजेन्द्र अजय कहते हैं, “जब इस तरह का बड़ा प्रोजेक्ट होता है तो हर कोई अपने हिसाब से सेटलमेंट चाहता है लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से सेटलमेंट नहीं हो सकता। इसलिए सरकार ने एक कॉमन पॉलिसी बनाकर लोगों को विकल्प दिए हैं।”

यात्रियों की बढ़ती संख्या का दबाव

बद्रीनाथ धाम में आने वाले लोगों की संख्या पिछले 50 सालों में तेजी से बढ़ी है। राज्य पर्यटन विभाग के मुताबिक पिछले साल 2022 में ही रिकॉर्ड 40 लाख से अधिक लोगों ने चार धाम यात्रा की। 1980 के दशक तक यहां प्रतिवर्ष 3 या 3.5 लाख से अधिक यात्री नहीं आते थे, लेकिन पिछले 30 साल में यहां पहुंचने वाले पर्यटकों की संख्या 10 गुना से अधिक बढ़ी है। जाहिर है कि ऐसे में किसी मास्टर प्लान या नई कार्ययोजना की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता।

वर्तमान कार्य को सही ठहराते हुए खुराना कहते हैं, “ऐसी जगहों में आपदा प्रबंधन भी एक बड़ा मुद्दा है। अगर आपदा आए तो हमें (राहत कार्य के लिए) तुरंत खाली जगह चाहिए होती है। मंदिर के आसपास का क्षेत्र बहुत संवेदनशील है और यहां पर सिंचाई विभाग ने पहले एंटी एवलांच काम किया है। इसलिए उसे खाली कराया गया।”

भूविज्ञानियों ने उठाए निर्माण पर सवाल

विशेषज्ञों और भूविज्ञानियों की चिंता बद्रीनाथ क्षेत्र की संवेदनशील भौगोलिक संरचना और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही चरम मौसमी घटनाएं हैं।

रानी चौरी (टिहरी) कैंपस में वानिकी कॉलेज के सोशल साइंस विभाग के प्रमुख भूविज्ञानी एसपी सती इस क्षेत्र की भूसंरचना पर शोध करते रहे हैं। वह इस तर्क को नहीं मानते कि वर्तमान निर्माण आपदा प्रबंधन की दृष्टि से हो रहा है, बल्कि कहते हैं कि ऐसी कोशिश तो आपदा के खतरे को बढ़ाएगी। सती कहते हैं कि बद्रीनाथ घाटी जोशीमठ — जहां पिछले कुछ महीनों से लगातार धंसाव हो रहा है — से अधिक संवेदनशील है। उनके मुताबिक बद्रीनाथ एक हिमनद घाटी (ग्लेशियल वैली) है जहां करीब पंद्रह साल पहले तक ग्लेशियर मौजूद थे।

सती ने कहा, “बद्रीनाथ में जोशीमठ से अधिक खतरा है। भू-संरचना के हिसाब से देखें तो यह घाटी वी के आकार में नहीं बल्कि यू के आकार में है और पहाड़ बिल्कुल ऊर्ध्व (वर्टिकल) खड़े हैं और दोनों ओर ग्लेशियल मोरेन (हिमोढ़) हैं जिन पर यह शहर बसा है। यह बहुत ही ढीला मटीरियल है और इसकी भार वहन क्षमता कम है और यहां भारी निर्माण करना खतरनाक है।”

गढ़वाल की हेमवतीनंदन बहुगणा यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके भूविज्ञानी प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप सिंह बिष्ट ने दो अन्य वैज्ञानिकों मनीष मेहता और एस के नौटियाल के साथ मिलकर बद्रीनाथ के भूआकृतिक खतरों (जियोमोर्पोलॉजिकल हैजार्ड्स) पर शोधपत्र लिखा है। इस रिसर्च पेपर में बद्रीनाथ की ‘अत्यधिक अस्थाई और सक्रिय कमज़ोर ढलानों’ पर किसी भी प्रकार के निर्माण पर ‘पूर्ण प्रतिबंध’ की बात कही गई है।

प्रोफेसर महेन्द्र प्रताप कहते हैं, “वहां पर (बद्रीनाथ में) जो भी निर्माण कार्य हुआ है वह ग्लेशियर के छोड़े मलबे और तलछट के जमाव पर है। यह तलछट ढीला और अस्थाई है। यह ठोस और स्थिर नहीं है और कोई स्थाई चट्टान नहीं है। इस पर तोड़फोड़ कर अगर आप नए सिरे से निर्माण के लिए किसी बोल्डर को हटाते या खिसकाते हैं और ढलान को छेड़ते हैं तो स्वाभाविक रूप से वहां पर दरारें उत्पन्न हो सकती हैं।”

इस बारे में सवाल करने पर जिलाधिकारी खुराना कहते हैं कि वह निर्माण के तकनीकी पक्ष पर बोलने में समर्थ अधिकारी नहीं है लेकिन विशेषज्ञों से मशविरा लेकर ही कार्य हो रहा है। उनके मुताबिक देहरादून स्थित वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के अलावा नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और डिफेंस जियोइंफोर्मेटिक रिसर्च इस्टैब्लिशमेंट के जानकारों से सलाह ली गई है।

लेकिन क्या सरकार विशेषज्ञों की सलाह को वास्तव में मान रही है। इनमें से कुछ संस्थानों के विशेषज्ञों से हमने संपर्क किया जिन्होंने यह माना कि वर्तमान निर्माण इस क्षेत्र की जियोलॉजी और संवेदनशील पारिस्थितिकी के हिसाब से ठीक नहीं है।

पहले भी हो चुकी है ऐसी कोशिश

बद्रीनाथ धाम में कायाकल्प की कोशिश 1970 के दशक में भी हुई थी जिसके खिलाफ जाने माने सर्वोदयी नेता चंडीप्रसाद भट्ट और अन्य पर्यावरण प्रेमियों ने आंदोलन किया था। उद्योगपति बिरला परिवार की जयश्री ट्रस्ट की मदद से यहां भारी निर्माण हो रहा था। तब मंदिर के पास 22 फीट ऊंची कंक्रीट की दीवार खड़ी हो चुकी थी और कई दूसरे निर्माण कार्य किए जाने थे। उस वक्त राज्य में जंगलों को बचाने के लिए चल रहा चिपको आंदोलन जोरों पर था।

भट्ट ने लखनऊ जाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा से मुलाकात की और उन्हें बद्रीनाथ में चल रहे निर्माण की सूचना दी। बहुगुणा ने 13 जुलाई 1974 को वित्त मंत्री नारायण दत्त तिवारी की अध्यक्षता में कमेटी गठित की। भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख एमएन देशपांडे भी समिति के सदस्य थे। समिति की सिफारिशों के बाद वह कार्य रुक पाया और दीवार को गिराया गया।

भट्ट ने बताया, “उस वक्त भी हमें अनसुना करने की कोशिश हुई और हमारा विरोध किया गया। बड़े संघर्ष और विशेषज्ञों की सिफारिश के बाद ही निर्माण रुक पाया। अभी भी सरकार को विशेषज्ञों को सुनने की जरूरत है। मैंने 2009 में केदारनाथ में संभावित आपदा को लेकर लिखा था, लेकिन उसे अनसुना किया गया। फिर हमने (केदारनाथ में) 2013 की आपदा देखी। अगर हम फिर जानकारों की नहीं सुनते तो वही हो सकता है और बाद में हम प्रकृति या नदियों को ही दोष देंगे जबकि आपदाएं मानव निर्मित होती हैं। इसलिए विशेषज्ञों (की चेतावनी) को सुना जाना चाहिए।”

जलवायु परिवर्तन प्रभावों से बढ़ा खतरा

बलदेव मेहता बद्रीनाथ में नर नारायण गेस्ट हाउस के मालिक हैं। वह कहते हैं, “पिछले डेढ़ साल से बद्रीनाथ धाम में तोड़फोड़ चल रही है लेकिन नवनिर्माण के लिए जो काम हो रहा है वह किसी की समझ में नहीं आ रहा। यहां अलकनंदा के दोनों तरफ घाट तोड़ दिए गए हैं और आने वाले दिनों अलकनंदा का जलस्तर बढ़ेगा तो बाढ़ का भारी खतरा है।”

भूविज्ञानी एस पी सती मेहता की चिंता को जायज़ बताते हुए कहते हैं कि स्थानीय लोग नदियों और मिट्टी के स्वभाव को समझते हैं क्योंकि वह कई दशकों से वहां रह रहे हैं। उनके मुताबिक बद्रीनाथ की संवेदनशीलता को जलवायु परिवर्तन से पैदा हुए खतरों के मद्देनज़र समझना जरूरी है।

सती कहते हैं, “इस क्षेत्र में असामान्य और अप्रत्याशित बारिश का ग्राफ बढ़ रहा है। बादल फटने की घटनाएं होती हैं और पहाड़ी ढलान दरकते रहते हैं। यहां नदी में किस वक्त अचानक कितना जल प्रवाह (वॉटर डिस्चार्ज) होगा यह बताना कठिन होता जा रहा है और यह समस्या पूरे हिमालय की है। ऐसे में सीमेंट और लोहे से भरपूर इस तरह का निर्माण करना यहां ठीक नहीं है।”

प्रताप कहते हैं इस क्षेत्र में भारी निर्माण के लिए होने वाली खुदाई का प्रभाव यहां की जलधाराओं और स्रोतों पर पड़ेगा। “बद्रीनाथ में पंचधाराएं हैं और उनका धार्मिक महत्व है लेकिन खुदाई से इन धाराओं के भूमिगत स्रोत की जगह बदल सकती है और फिर उसे अपनी पूर्व स्थिति में नहीं लाया जा सकता।”

(यह स्टोरी पहले डाउन टू अर्थ में प्रकाशित हो चुकी है।)

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