भारत जी-20 वार्ताओं में ‘जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन’ की चर्चा पर जोर देगा, क्योंकि देश में 50 लाख लोग सीधे तौर पर कोयला खनन पर निर्भर हैं।
केंद्रीय कोयला सचिव अमृत लाल मीणा का कहना है कि “अनुमान के अनुसार, लगभग 50 लाख लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयला खनन गतिविधियों में लगे हुए हैं, खासकर पूर्वी भारतीय राज्यों में। ‘जस्ट ट्रांजिशन’ की बात करते समय इस चुनौती का ध्यान रखना बहुत जरूरी है”।
मीणा ने कहा कि आगे का रास्ता तय करते समय इन 50 लाख लोगों की आजीविका, वैकल्पिक रोजगार, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा से जुड़े सवालों पर विचार करना होगा।
उन्होंने कहा कि सरकार ने 30 ऐसी खदानों की पहचान की है जहां कोयला खनन समाप्त हो गया है, और कंपनियों ने इन्हें बंद करने की 2-3 वर्षीय प्रक्रिया शुरू कर दी है।
लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि देश में कोयला उत्पादन बढ़ता रहेगा और 2040 में चरम पर पहुंचेगा, जिसके बाद यह स्थिर हो जाएगा।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र सचिव एंटोनियो गुटेरेश ने विकासशील देशों से 2050 तक नेट-जीरो पर पहुंचने का प्रयास करने का आग्रह किया था। वहीं पिछले दिनों संपन्न हुई बैठक में जी7 देशों ने भी सभी ‘प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं’ से 2050 तक नेट-जीरो पर पहुंचने को कहा है।
जी7 ने कहा 2050 तक नेट-जीरो पर पहुंचे सभी देश, लेकिन खुद ही हैं लक्ष्यों से पीछे
अमीर देशों के जी7 समूह के नेताओं ने सभी सरकारों से कहा है कि वह अधिक से अधिक 2050 तक नेट-जीरो पर पहुंचने का लक्ष्य रखें।
अनौपचारिक रूप से भारत और चीन जैसे देशों को संबोधित करते हुए जी7 देशों ने सभी ‘प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं’ से आग्रह किया है कि वह कॉप28 सम्मलेन से पहले अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को इस प्रकार संशोधित कर लें कि वह ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्य के अनुकूल हों।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं का आरोप है कि जी7 की इस घोषणा में समता के मूल्य की अनदेखी की गई है, और जलवायु संकट में कम योगदान देने वाले विकासशील देशों से भी ऐतिहासिक प्रदूषकों की तरह ही उत्सर्जन में कटौती करने की मांग की जा रही है।
क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुसार, जी7 देशों में से किसी के भी लक्ष्य या नीतियां 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के अनुकूल नहीं हैं।
जी7 देशों ने रूस-यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न ऊर्जा संकट का हवाला देते हुए न केवल ‘अस्थाई रूप से’ गैस सेक्टर में अधिक निवेश का समर्थन किया, बल्कि क्लाइमेट फाइनेंस के मुद्दे पर भी कोई खास घोषणा नहीं की, और केवल यही कहा कि विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर की जो सहायता 2020 तक की जानी थी उसे इस साल पूरा करने का प्रयास किया जाएगा।
प्रमुख जीवाश्म ईंधन कंपनियां सालाना दें 209 बिलियन डॉलर का मुआवजा: शोध
एक नए अध्ययन ने दुनिया की शीर्ष 21 जीवाश्म ईंधन कंपनियों को उनके दशकों के उत्सर्जन से होनेवाले नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि उन्हें हर साल 209 बिलियन डॉलर क्षतिपूर्ति के रूप में उन समुदायों को देने चाहिए जिन्हें जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक हानि हुई है।
वन अर्थ जर्नल में प्रकाशित इस अभूतपूर्व स्टडी के अनुसार बीपी, शेल, एक्सॉनमोबिल, टोटल, सऊदी आरामको और शेवरॉन उन 21 सबसे बड़े प्रदूषकों में से हैं जो 2025 से 2050 के बीच होने वाली जलवायु आपदाओं जैसे सूखा, जंगल की आग, समुद्र के स्तर में वृद्धि और ग्लेशियरों के पिघलने के लिए जिम्मेदार हैं।
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल के ग्लोबल पॉलिटिकल स्ट्रेटेजी प्रमुख हरजीत सिंह ने डाउन टू अर्थ पत्रिका से कहा कि ‘दशकों से यह जीवाश्म ईंधन कंपनियां जलवायु संकट में इनकी प्रमुख भूमिका से ध्यान हटाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाती रही हैं’।
हालांकि इस रिपोर्ट में विकासशील देशों की सरकारी कंपनियों, जैसे कोल इंडिया लिमिटेड, को उनके उत्सर्जन के लिए भुगतान करने से ‘छूट’ दी गई है।
हरजीत ने कहा कि ‘पश्चिमी जीवाश्म ईंधन कंपनियों के विपरीत, कोल इंडिया लिमिटेड जैसी कंपनियों को छूट देना आवश्यक था क्योंकि भारत में कोयले का उपयोग लाखों गरीब लोगों की ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए किया जाता है’।
रूसी कच्चे तेल के उत्पादों की रीसेल के सवाल पर भारत ने यूरोपीय संघ को लगाई फटकार
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने रूसी कच्चे तेल से रिफाइंड ईंधन जैसे डीजल बनाकर यूरोप को बेचने के लिए भारत पर कार्रवाई की मांग का जवाब देते हुए कहा कि यूरोपीय संघ पहले अपने नियमों और रेगुलेशन की ओर देखे।
यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेप बोरेल ने कहा था कि भारत द्वारा रूसी कच्चे तेल से प्राप्त रिफाइंड उत्पादों को यूरोपीय देशों को बेचे जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए, क्योंकि पश्चिमी देश अब रूसी ऊर्जा उद्योग पर और कड़े प्रतिबंध लगाना चाहते हैं।
जवाब में जयशंकर ने कहा कि उन्हें पहले यूरोपीय संघ परिषद का रेगुलेशन 833/2014 देखना चाहिए, जिसके अनुसार रूसी कच्चे तेल को थर्ड वर्ल्ड देशों में ट्रांसफॉर्म किए जाने के बाद रूसी नहीं समझा जाता है।
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