एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों का दायरा बढ़ाते हुए, जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों से सुरक्षा के अधिकार को भी उनमें शामिल कर लिया है।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की एक बेंच ने ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) के संरक्षण पर एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह फैसला सुनाया।
क्या था मामला
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड मुख्य रूप से राजस्थान और गुजरात में पाए जाते हैं। हाल के दिनों में ओवरहेड पावर ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने के कारण उनकी संख्या में लगातार कमी हो रही है। इसमें उनके हैबिटैट के आस-पास स्थित सौर संयंत्रों की लाइनें भी शामिल हैं। गौरतलब है कि अप्रैल 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि जीआईबी के हैबिटैट के पास सभी ट्रांसमिशन लाइनें भूमिगत की जाएं। हालांकि सरकार ने ऐसा करने में तकनीकी रूप से असमर्थता जताई थी। सरकार का तर्क स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2021 का आदेश वापस ले लिया, और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण और नवीकरणीय ऊर्जा इंफ्रास्ट्रक्चर के बीच संतुलन बनाए रखने के उपायों पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया है। समिति को अपनी रिपोर्ट 31 जुलाई तक कोर्ट को सौंपनी है।
इसी फैसले में मुख्य न्यायाधीश ने जलवायु परिवर्तन और उससे होने वाले हानिकारक प्रभावों से संरक्षण पर भी चर्चा की। कोर्ट ने अनुच्छेद 14 और 21 का दायरा बढ़ाते हुए इसके अंतर्गत ‘जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से संरक्षण के अधिकार’ को भी शामिल कर लिया।
कोर्ट ने कहा कि नागरिकों को खतरों से बचाना और उनकी सुरक्षा और सेहत का ध्यान रखना राज्य का कर्तव्य है, और स्वस्थ एवं स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार निस्संदेह इस कर्तव्य का एक हिस्सा है। “सरकारों का कर्तव्य है कि वह जलवायु परिवर्तन का शमन (मिटिगेशन) करने के प्रभावी उपाय करे और यह सुनिश्चित करे कि सभी व्यक्तियों के पास जलवायु संकट से अनुकूलन (अडॉप्टेशन) के लिए आवश्यक क्षमता हो,” कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन का प्रयोग करने की आवश्यकता है, इसलिए सौर ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का उपयोग जरूरी है।
जीवन और समता के अधिकारों का है उल्लंघन
कोर्ट ने कहा कि वायु प्रदूषण, बढ़ते तापमान, सूखे, फसल की विफलता, तूफान और बाढ़ आदि से लोगों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ता है और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है। साथ ही कमज़ोर वर्गों के जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन (अडॉप्टेशन) न कर पाने के कारण अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार और अनुच्छेद 14 में निहित समता के अधिकार का हनन होता है।
हालांकि जलवायु नीति विशेषज्ञों ने कोर्ट के इस आदेश का स्वागत किया है, लेकिन उनका यह भी कहना है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर ट्रांजिशन के दौरान पर्यावरणीय अन्याय नहीं होना चाहिए। कुछ एक्टिविस्ट्स ने आशंका जताई कि कहीं इस फैसले का प्रयोग बड़े पैमाने पर सौर उत्पादन और ट्रांसमिशन को उचित ठहराने के लिए न किया जाए।
यूरोपीय कोर्ट का निर्णय
उधर यूरोप के सबसे बड़े मानवाधिकार न्यायालय — यूरोपियन कोर्ट ऑफ़ ह्यूमन राइट्स — ने भी एक फैसले में कहा है कि स्विट्ज़रलैंड की सरकार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त कदम न उठाकर अपने नागरिकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है। सीनियर वीमेन फॉर क्लाइमेट प्रोटेक्शन नामक समूह की 2,000 से महिलाओं द्वारा दायर याचिका पर कोर्ट ने यह फैसला सुनाया।
हालांकि यूरोपीय कोर्ट ने दो ऐसी ही याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया। इनमें से एक पुर्तगाल के छह युवाओं ने 32 यूरोपीय देशों की सरकारों के खिलाफ दायर की थी, जिसके बारे में कार्बन कॉपी ने पहले भी बताया था। और दूसरी याचिका फ्रांस के एक मेयर की थी। इन सभी याचिकाओं में कहा गया था कि विभिन्न देशों की सरकारें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कड़े कदम नहीं उठा रही हैं।
हालांकि इस कोर्ट का यूरोपियन यूनियन से कोई संबंध नहीं है, फिर भी उम्मीद की जा रही है कि स्विस महिलाओं के मामले दिए गए इस निर्णय का पूरे यूरोप के साथ-साथ दूसरे देशों में भी असर होगा, और अन्य समुदाय भी अपनी सरकारों के खिलाफ ऐसे मामले उठाने के लिए प्रोत्साहित होंगे।
स्विट्ज़रलैंड की इन महिलाओं ने अपनी याचिका में कहा था कि उनकी सरकार की निष्क्रियता के कारण उनपर हीटवेव का खतरा बढ़ गया है, जो उनकी उम्र और लिंग को देखते हुए विशेष रूप से जानलेवा हो गया है। अदालत ने कहा कि स्विट्जरलैंड जलवायु परिवर्तन से निपटने और उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों को पूरा करने में ‘अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहा’, जिससे इन महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन हुआ।
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