अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते से पीछे हटने के लिए सोमवार को एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए। जनवरी 2017 में पहली बार शपथ लेने तुरंत बाद भी ट्रंप ने पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया था, लेकिन बाद में जो बाइडेन ने उस फैसले को पलट दिया था।
ट्रंप ने इसे एकतरफा समझौता बताते हुए कहा कि अमेरिका अपने उद्योगों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, जबकि चीन बेखौफ होकर प्रदूषण फैला रहा है। ट्रंप के इस कदम से अमेरिका ईरान, लीबिया और यमन के अलावा एकलौता ऐसा देश बन गया है जो 2015 के वैश्विक जलवायु समझौते का हिस्सा नहीं है। इस समझौते का मुख्या उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है। और दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक होने के नाते अमेरिका की इस लक्ष्य को हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका है।
शपथ लेने के बाद अपने पहले भाषण में ट्रंप ने ‘ड्रिल, बेबी, ड्रिल’ का उद्घोष करते हुए कहा था कि वह अमेरका में एक ‘एनर्जी इमरजेंसी’ की घोषणा करेंगे और बाइडेन प्रशासन के अक्षय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों से जुड़े आदेशों को रद्द कर देंगे। इस बाबत भी उन्होंने एक कार्यकारी आदेश सोमवार को जारी किया।
ट्रंप ने 20 जनवरी, 2025 के भाषण में अमेरिका की ऊर्जा और पर्यावरण नीतियों को नया आकार देने के उद्देश्य से कई पहलों की रूपरेखा तैयार की। ट्रंप ने ग्रीन न्यू डील को खत्म करने की भी घोषणा की। ट्रंप की घोषणाओं से साफ है कि आनेवाले समय में अमेरिका जीवाश्म ईंधन स्रोतों को प्राथमिकता देगा जबकि जलवायु संकट से निपटने के नियामक उपायों को कमजोर किया जाएगा।
विशेषज्ञों का कहना है कि इसका सबसे बुरा असर विकासशील देशों पर पड़ेगा।
क्लाइमेट एक्टिविस्ट और सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक हरजीत सिंह कहते हैं कि ट्रंप के निर्णयों से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सामूहिक लड़ाई कमजोर होगी, “ऐसे समय में जब वैश्विक स्तर पर एकता और तात्कालिकता पहले से कहीं अधिक जरूरी है। हालांकि, सबसे दुखद परिणाम उन विकासशील देशों में महसूस किए जाएंगे जिन्होंने वैश्विक उत्सर्जन में सबसे कम योगदान दिया है”।
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