इस साल मई में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की चीड़ की पत्तियां (पिरूल) साफ़ करते हुए तस्वीरें मीडिया में देखी गईं। मुख्यमंत्री ने सरकार के ‘पिरूल लाओ-पैसे पाओ’ अभियान की घोषणा करते हुए कहा, “पिरूल की सूखी पत्तियां जंगल की आग का सबसे बड़ा कारण हैं,” । इस अभियान का उद्देश्य है स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करना कि वह चीड़ की पत्तियां इकट्ठा करने में वन विभाग की मदद करें और आर्थिक प्रोत्साहन पायें।
इस साल लंबे समय तक रहे गर्म और शुष्क मौसम के दौरान उत्तराखंड में जंगल की आग की 1,200 से अधिक घटनाएं देखी गईं, जिसमें कुछ वन रक्षकों सहित कम से कम 10 लोगों की जान चली गई। कहा जा सकता है कि सरकार का यह अभियान गंभीर जमीनी हकीकतों से हटकर, केवल सदियों पुराने देवदार के पेड़ों पर दोष मढ़ने का एक प्रयास था।
हालांकि यह सच है कि हिमालय के जंगलों में चीड़ को आग फैलने के एक प्रमुख कारण के रूप में देखा जाता है। चीड़ की ज्वलनशील पत्तियों और तने से निकलने वाली राल (रेसिन) के कारण आग तेजी से फैलती है और नियंत्रण से बाहर हो जाती है। लेकिन, इसके कई और कारण भी हैं, जिनमें प्रमुख दो हैं आग पर काबू पाने के लिए जरूरी फायर लाइनों की अनुपस्थिति और अपर्याप्त फॉरेस्ट गार्ड। फायर लाइनें खुली भूमि की पट्टियां होती हैं जो आग को आगे बढ़ने से रोकती हैं।
जलवायु परिवर्तन भी जंगल की आग को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाता है। सर्दियों की बारिश से भूमि नम हो जाती है और आग को नियंत्रण से बाहर होने से रोकती है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सर्दियों में होने वाली बारिश का गिरता ग्राफ, लंबी गर्मियां और रिकॉर्ड उच्च तापमान के कारण भी आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। इस साल उत्तराखंड में सर्दियों में जंगल की आग में वृद्धि दर्ज की गई। इस साल करीब पांच महीनों तक उन जंगलों में भी भीषण आग लगी रही जहां चीड़ बहुत कम हैं या नहीं हैं।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि एक बहुआयामी रणनीति बनाने की बजाय, उत्तराखंड सरकार द्वारा पेड़ों का एक प्रजाति को “खलनायक” बनाना एक अदूरदर्शी रणनीति है, जो लंबी अवधि में हानिकारक साबित होगी। चीड़ हिमालय के पहाड़ों में कई अन्य प्रजातियों के बीच खड़ा एक शंकुवृक्ष है। विशेषज्ञों के अनुसार, केवल इस पर ध्यान केंद्रित करना दर्शाता है कि हिमालय की विस्तृत इकोलॉजी के बारे में सरकार की समझ सही नहीं है और इससे जंगल की आग की समस्या का स्थाई समाधान नहीं हो सकता।
हिमालय के निर्माण के बाद से ही चीड़ भारत के पर्वतीय वनों का एक अभिन्न अंग रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जंगल की आग पर काबू पाने के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो जंगल के नियमों को स्वीकार करे और आग फैलने के मानवीय कारणों को संबोधित करने का प्रयास करे।
मानव जनित होती है जंगल की आग
जंगल में लगने वाली लगभग सभी तरह की आग मानवजनित होती है और मानवीय गतिविधियों के कारण होती है। ग्रामीण अपने मवेशियों के लिए चारे की बेहतर उपलब्धता की उम्मीद में सूखी घास जला देते हैं। इससे कभी-कभी बड़ी आग लग सकती है। जलती हुई सिगरेट छोड़ना, खाना पकाना या अलाव जलता छोड़ देने से भी जंगल में आग लग सकती है। खराब कचरा प्रबंधन भी स्थानीय लोगों और अधिकारियों को सूखे कचरे से छुटकारा पाने के लिए कचरा जलाने के लिए मजबूर करता है, जिससे आग लग जाती है।
हालांकि यह समझना महत्वपूर्ण है कि हर आग विनाशकारी नहीं होती हैं। आग की छिटपुट घटनाएं इकोसिस्टम को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करती हैं। वे जमीन पर इकठ्ठा हुए खरपतवार को साफ़ करके और पोषक तत्वों को रीसाइकिल करके जंगलों की इकोलॉजी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये आग बीज के अंकुरण में भी मदद करती हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन जंगल की आग के इस उत्पादक प्रभाव को कम करके इसे विनाशकारी बना रहा है।
इसके कारण जंगलों में बार-बार, अनियंत्रित और बड़ी आग लग रही है, जो न केवल जैव विविधता और बहुमूल्य वन संसाधनों को नष्ट कर रही है, बल्कि मिट्टी की ऊपरी परत को नष्ट करके अचानक बाढ़ का खतरा भी बढ़ा रही है।
उत्तराखंड के वन अनुसंधान विभाग के अधिकारियों का कहना है कि बड़ी आग की घटनाएं न केवल मूल्यवान पौधों की प्रजातियों, बल्कि ‘पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों (जैसे नेटिव चीयर तीतर, कलिज तीतर और कॉमन रोज़ आदि) को भी खतरे में डाल रही हैं, जिनका प्रजनन काल अप्रैल से जून के बीच आग के मौसम दौरान पड़ता है’। जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण तितलियों की कई सौ प्रजातियां ‘लुप्तप्राय होने के कगार’ पर हैं क्योंकि जिन पौधे पर वह आश्रित हैं वह जंगल की आग में नष्ट हो रहे हैं।
जंगल की आग के फैलाव और चीड़ का क्या है संबंध?
जंगल में आग फैलने का कारण चीड़ की ज्वलनशील सूखी पत्तियों को माना जाता है, जो आग के मौसम के दौरान और उससे पहले भारी मात्रा में पेड़ से गिरती हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में जंगल की आग बुझाने में लगे स्वयंसेवी ग्रामीण कमलेश जीना ने कहा, “पिरूल के कारण आग बहुत खतरनाक रूप ले लेती है और तेजी से फैलती है और बेकाबू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने जंगल में पेट्रोल छिड़क दिया हो। इसे बुझाने में हमारी जान को ख़तरा होता है।”
इसके अलावा, चीड़ के पेड़ों से बाजार में बेचने के लिए राल (रेसिन) निकाली जाती है। राल इकट्ठा करने के लिए पेड़ों के तनों पर निशान बनाए जाते हैं जहां से यह चिपचिपा तरल पदार्थ रिसता है। यह पदार्थ ज्वलनशील होता है।
पिछले पांच दशकों से पश्चिमी और मध्य हिमालय क्षेत्र का अध्ययन कर रहे इतिहासकार शेखर पाठक कहते हैं, “जब आग ऊपर उठती है और [तने से रिसती] राल आग पकड़ लेती है, तो यह जलती हुई गांठ तेज हवा के साथ उड़ सकती है और आग को अन्य हिस्सों में भी फैलाती है। अब हमारे पास इसके फोटोग्राफिक सबूत हैं, इसलिए आग पर काबू पाने के लिए चीड़-पाइन के क्षेत्र को समझना महत्वपूर्ण है।”
हिमालय के जंगलों पर कैसे हुआ चीड़ का प्रभुत्व
आम धारणा है कि चीड़ को अंग्रेज बाहर से यहां लाये लेकिन सच यह है कि चीड़ भारतीय मूल का वृक्ष है। दशकों से इसे पहाड़ी वातावरण में बढ़ने और पनपने के लिए अनुकूल परिस्थितियां मिलीं हैं।
आज भारत में चीड़ की 8 देशी और 21 विदेशी प्रजातियां हैं। इससे मिलने वाली राल के कारण सरकार के लिए चीड़ उगाना हमेशा फायदेमंद रहा है। राल का उपयोग तारपीन तेल, साबुन, कागज, पेंट और रासायनिक उद्योग में किया जाता है।
औपनिवेशिक काल से ही यह सरकार के लिए राजस्व अर्जित करने का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है। अब भी उत्तराखंड सरकार राल से सालाना करीब 200 करोड़ रुपए कमाती है।
पाठक कहते हैं कि अंग्रेज चीड़ के राल के व्यावसायिक लाभों के बारे में इतने जागरूक थे कि 19वीं शताब्दी की शुरुआत में उन्होंने इसका फायदा उठाने के लिए उत्तराखंड के काशीपुर में एक छोटी फैक्ट्री यूनिट लगाई थी।
“पहाड़ियों पर उपनिवेश स्थापित करने से पहले शायद वह हिमालय में अंग्रेजों का पहला उद्यम था। उस समय, ईस्ट इंडिया कंपनी का कुमाऊं पर प्रशासनिक नियंत्रण नहीं था, लेकिन उन्होंने पहले ही इस संसाधन पर अपनी नजरें जमा ली थीं और वाणिज्यिक पहल शुरू कर दी थी,” पाठक ने कहा।
1850 के दशक में जब अंग्रेज भारत में रेलवे नेटवर्क का विस्तार करने लगे तो हिमालयी जंगलों के इकोलॉजिकल इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। 1853 से 1910 के बीच लगभग 60 वर्षों की अवधि में, रेलवे का नेटवर्क मात्र 32 किमी से बढ़कर 51,000 किमी से अधिक हो गया। रेलवे पटरियों और डिब्बों के लिए भारी मात्रा में लकड़ी की आवश्यकता होती थी। इन जंगलों से सागौन, ओक, देवदार और साल को ईंधन की लकड़ी और निर्माण के लिए काटा गया। इस प्रकार, रेलवे के विस्तार के साथ-साथ हिमालय के जंगलों में चीड़ की मौजूदगी बढ़ती गई।
उत्तराखंड काउंसिल फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी (यूसीओएसटी) के एमेरिटस साइंटिस्ट और भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के पूर्व डीन जीएस रावत ने कहा, “अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारत में वनों और अन्य संसाधनों का शोषण जारी रहा। साल और देवदार आमतौर पर चीड़ के साथ अपना हैबिटैट साझा नहीं करते हैं। इसलिए, यह कहना सही नहीं होगा कि ब्रिटिश काल के दौरान व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए साल और देवदार की कटाई के कारण चीड़ का विस्तार हुआ होगा। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि कम ऊंचाई और चौड़ी पत्तियों वाले बांज (ओक) जिसका वैज्ञानिक नाम क्वेरकस ल्यूकोट्रिचोफोरा है, उत्तराखंड में स्थानीय लोगों के लिए ईंधन की लकड़ी और चारे की सबसे पसंदीदा प्रजाति है।”
वह बताते हैं कि यह संभव है कि ओक के जंगलों का क्षरण, विशेष रूप से दक्षिण की ओर ढलानों पर, और ओक के जंगलों में बार-बार आग लगने से चीड़ का विस्तार हुआ। रेलवे स्लीपर बनाने के लिए चीड़ पाइन उपयुक्त नहीं है क्योंकि यह साल की तुलना में कम टिकाऊ और अधिक रालयुक्त होता है। इसलिए बांज को काटा गया लेकिन चीड़ बढ़ता रहा।
पाइन बनाम ओक: विज्ञान पर हावी हैं भावनाएं?
कुछ अन्य शोधकर्ताओं का मानना है कि चीड़ पाइन, बांज के क्षेत्र में अतिक्रमण कर रहा है, जिससे जंगलों में आग लगने का खतरा बढ़ गया है। पहाड़ी इलाकों में जंगल की आग और इकोलॉजिकल संतुलन के संदर्भ में, नुकीली-पत्ती वाले चीड़ पाइन की विशेषताओं की तुलना अक्सर चौड़ी पत्ती वाले बांज (क्वार्कस) से की जाती है क्योंकि वे एक ही हैबिटैट में उगते हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि चीड़ आसपास की भूमि को शुष्क बनाता है, जबकि बांज के पेड़ पानी रोकते हैं और मिट्टी को नमी प्रदान करते हैं, जिससे एक स्वस्थ इकोसिस्टम बनता है। दशकों से हिमालयी क्षेत्र में काम कर रहे कई विशेषज्ञों ने हमें बताया कि चीड़ और बांज को लेकर “कई गलतफहमियां” हैं और ज्यादातर बातें “भावनात्मकता आवेश में कही जाती हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है”।
दो दशकों से अधिक समय से हिमालयी इकोलॉजी पर शोध कर रहे एमबीपीजी कॉलेज, हलद्वानी, नैनीताल में प्राणी विज्ञान के प्रोफेसर चंद्र सिंह नेगी कहते हैं, “सच्चाई आम धारणा के विपरीत है। पाइन ज़ेरिक (खुश्क) परिस्थितियों में बढ़ता है और ओक को अच्छी नमी की आवश्यकता होती है। यदि आप शुष्क परिस्थितियों में ओक लगाएंगे, तो यह नहीं उगेगा। अक्सर लोग कहते हैं कि हम जंगलों को (फॉरेस्ट फायर से) सुरक्षित रखने के लिए चीड़ को काट देंगे और ओक जैसी चौड़ी पत्ती वाली प्रजातियां उगाएंगे, लेकिन यह सफल नहीं होगा।” दूसरी ओर, चीड़ कम नमी की परिस्थिति को भी अपने अनुकूल बना लेता है और शुष्क परिस्थितियों में पनपता है। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में शुष्क परिस्थितियां बढ़ रही हैं। ओक के विपरीत, चीड़ की पतली, सुई के आकार की पत्तियों का सतह क्षेत्र कम होता है और पेड़ कम पानी खोता है। इसका कोन जैसा आकार, पत्तियों पर मोमी लेप और गहरी जड़ें भी इसके लिए सहायक होती हैं।
इस अध्ययन में पाया गया कि 1991 और 2017 के बीच पश्चिमी हिमालय में बांज वन के हैबिटैट में काफी कमी आई, जबकि देवदार के जंगलों में काफी विस्तार हुआ। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बांज के जंगल घट रहे हैं और चीड़ पाइन मध्य हिमालय में बांज को विस्थापित कर रहा है।
जैव विविधता विशेषज्ञ और नई दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) के वरिष्ठ फेलो योगेश गोखले का कहना है कि “चीड़ की आक्रामक प्रकृति हिमालय के जंगलों के परिदृश्य को बदल रही है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।” उन्होंने कहा, “हिमालयी क्षेत्र में पाइन की कई प्रजातियां हैं, लेकिन चीड़ पाइन निश्चित रूप से एक समस्या है। मेरा मानना है कि चीड़ पाइन बड़े पैमाने पर उत्तराखंड के वनों की सतह को बदल रहा है। पाइन की सुइयों की परत के कारण कई प्रजातियों का पुनर्जनन बाधित हो रहा है, विशेष रूप से ओक का, जो इसकी अनुपस्थिति में होना चाहिए था।”
लेकिन उत्तराखंड में रानीखेत के बाहर घने जंगलों के बीच बने वन विभाग के अनुसंधान केंद्र में ऐसी कोई चेतावनी नहीं है। बाहर लगे बोर्ड पर साफ लिखा है, ”जंगल में आग चीड़ के कारण नहीं, बल्कि हमारी लापरवाही के कारण लगती है।” यहां आगंतुकों को पाइन से संबंधित जानकारी दी जाती है। देशी चीड़ पाइन के अलावा, पाइन की कई अन्य विदेशी प्रजातियों का उल्लेख मिलता है। “पाइन के बारे में रोचक तथ्यों” में पहाड़ों में मिट्टी के कटाव को रोकने की इसकी गुणवत्ता के अलावा, शुष्क परिस्थितियों में बढ़ने की इसकी क्षमता भी शामिल है।
लेकिन सभी विशेषज्ञ एक बात पर सहमत हैं — कि पिछले कुछ सालों में चीड़ की वृद्धि और फैलाव के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनीं। 1980 के दशक की शुरुआत में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1,000 मीटर से ऊपर पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध 2023 में हटा लिया गया था, लेकिन प्रतिबंध के चार दशकों के दौरान चीड़ को अन्य प्रजातियों के मुकाबले स्पष्ट लाभ मिला। रावत ने बताया कि शीर्ष अदालत द्वारा कटाई पर प्रतिबंध अच्छे इरादों के साथ लगाया गया था और इससे जंगलों के बड़े और घने हिस्से बच गए। हालांकि, जंगलों में मुक्त चराई और बांज जैसे चारे के काम आने वाले पेड़ों की शाखों की छंटाई पर पर रोक नहीं लगाई गई।
रावत ने कार्बनकॉपी को बताया, “पेड़ों और पेड़ पौधों की अत्यधिक छंटाई पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था। परिणामस्वरूप, ओक और अन्य चौड़ी पत्ती वाली प्रजातियों के पुनर्जनन पर असर पड़ा। दूसरी ओर, चीड़ के पौधे और अंकुर न चारे के योग्य थे, न ही ईंधन के काम आ सकते थे। इसके कारण वह बच गए और ओक के इलाकों में फैल गए। इसके अलावा, दक्षिण की ओर ढलानों पर लगातार आग लगने से चीड़ पाइन को फायदा हुआ।”
क्या पाइन इकठ्ठा करने से रुकेगी जंगल की आग?
उत्तराखंड सरकार के एक अनुमान के मुताबिक, हर साल पहाड़ी ढलानों में लगभग 18 लाख टन चीड़ की पत्तियां पैदा होतीं है। सरकार को उम्मीद है कि अगर इसे वन विभाग और स्थानीय समुदायों की मदद से एकत्र किया जाए तो इसका उपयोग बिजली, जैव ईंधन, कुटीर और उर्वरक उद्योग में किया जा सकता है। इस साल मई में उत्तराखंड सरकार ने चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करने का पारिश्रमिक 3 रुपए से बढ़ाकर 50 रुपए प्रति किलोग्राम करने की घोषणा की। लेकिन क्या यह जंगल की आग को नियंत्रित करने का एक स्थाई तरीका है?
एक वरिष्ठ वन अधिकारी ने कहा, “अगर चीड़ पाइन की पत्तियों का उपयोग रोजगार पैदा करने के लिए किया जाए तो कोई नुकसान नहीं है। लेकिन जंगल की आग की समस्या के लिए चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करना कोई व्यावहारिक समाधान नहीं लगता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चीड़ वन इकोलॉजी का एक हिस्सा है।”
चीड़ की पत्तियां मिट्टी को ढकती हैं, और गर्मी में मिट्टी की नमी बनाए रखती हैं, खरपतवार को बढ़ने से रोकती हैं, कटाव को रोकती हैं और धीरे-धीरे ही सही लेकिन अपघटन द्वारा मिट्टी में पोषक तत्व छोड़ती हैं। यद्यपि पाइन नीडल की प्रकृति अम्लीय होती है, विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि वे मिट्टी के पीएच स्तर में महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं करती हैं। वास्तव में, यदि सभी फायदे और नुकसान को एक साथ देखा जाए तो ये पाइन नीडल मिट्टी के लिए अच्छी गीली घास का काम करती हैं।
डॉ एसपी सिंह जंगल की आग को रोकने के लिए चीड़ की पत्तियों को इकट्ठा करने के अभियान को कठोरता से खारिज करते हैं और इसे “पूरी तरह से बकवास” बताते हैं।
“यदि आप किसी अन्य विकसित देश में यह कहें कि आप (जंगल के फर्श को साफ करने के लिए) बिखरी हुई पत्तियां इकट्ठा कर रहे हैं, तो वे आप पर हंसेंगे। यह कूड़ा-कचरा हैबिटैट है। यह मिट्टी को पोषक तत्व प्रदान करता है। इसके अपघटन से कार्बनिक पदार्थ बनता है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। गनीमत है कि वे ऐसा कभी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके पास न तो काम करने के लिए लोग हैं और न ही वे इसका (पिरूल) सफलतापूर्वक कोई व्यावहारिक उपयोग कर सकते हैं,” डॉ. सिंह ने कार्बनकॉपी को बताया।
उत्तराखंड सरकार ने 2021 में ईंधन के रूप में चीड़ की पत्तियों का उपयोग करके बिजली पैदा करने की योजना की घोषणा की थी। इसने कुल 150 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए लगभग 60 इकाइयां स्थापित करने की योजना बनाई थी। लेकिन अब तक (कुल 1 मेगावाट से कम क्षमता की) केवल छह इकाइयां स्थापित की गई हैं, जिनमें किसी भी विस्तार की कोई संभावना नहीं है।
उत्तराखंड अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा) के अधिकारियों का कहना है कि पायलट प्रोजेक्ट का अनुभव बिल्कुल भी उत्साहवर्धक नहीं है। उरेडा के वरिष्ठ परियोजना अधिकारी वाईएस बिष्ट ने कहा, “25-25 किलोवाट की सभी छह इकाइयां परीक्षण के लिए स्थापित की गईं थीं, लेकिन वह काम नहीं कर सकीं। इसमें कई समस्याएं हैं। [पाइन का] संग्रहण और ढुलाई महंगी है और हमारे पास बेहतर तकनीक नहीं है इसलिए यह उद्यम वित्तीय रूप से व्यवहार्य नहीं है।”
रानीखेत स्थित एक गैर लाभकारी संगठन लोक चेतना मंच के अध्यक्ष और पर्यावरण कार्यकर्ता जोगेंद्र सिंह बिष्ट कहते हैं कि पाइन संग्रह अभियान पहले भी चलाया गया था, लेकिन यह “पूरी तरह से विफल” साबित हुआ।
उन्होंने कहा, “उपाय दो तरह के हो सकते हैं, अल्पकालिक और दीर्घकालिक। पाइन नीडल का संग्रह केवल एक विकल्प है, जो सीमित पैमाने पर ऐसी जगहों पर किया जा सकता है जहां जाना संभव है। हालांकि पिछले अनुभव के आधार पर मुझे इसकी सफलता को लेकर काफी आशंकाएं हैं। दूसरा अल्पकालिक उपाय है कि स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करके उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए। दीर्घकालिक उपायों में चीड़ के स्थान पर अन्य प्रजातियों के पेड़ लगाना या चीड़ के पेड़ों को काटकर गलियारे बनाना और मिश्रित वनों की रक्षा करना आदि हो सकते हैं। ऐसा कैम्पा फंड (क्षतिपूरक वनीकरण कोष एवं क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण) के उपयोग के लिए नीति में बदलाव करके किया जा सकता है और दूसरा तरीका है अग्निशमन के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत स्थानीय लोगों को यह काम देना।”
बिष्ट का लोक चेतना मंच रानीखेत के बाहरी इलाके में लगभग छह हेक्टेयर क्षेत्र में मिश्रित जंगल उगाने के लिए स्थानीय समुदाय के लोगों के साथ सक्रिय रूप से काम कर रहा है। पिछले छह सालों में जिस वन भूमि में केवल चीड़ का प्रभुत्व था वहां उन्होंने बांज (क्वेरकस), बुरांश (रोडोडेंड्रोन अर्बोरियम), काफल (मिरिका एस्कुलेंटा), देवदार (सेड्रस) और किल्मोड़ा (बर्बेरिस एशियाटिका) सहित दो दर्जन से अधिक प्रजातियां उगाई हैं।
बिष्ट का कहना है, “उचित निगरानी और कुशल वन प्रबंधन [जंगल की आग पर अंकुश लगाने का] स्थाई समाधान है। जंगली क्षेत्रों में चीड़ की वृद्धि को नियंत्रित करना और अन्य प्रजातियों को बढ़ने में सहायता करना इस अभियान का एक हिस्सा हो सकता है। जैसा कि हमने कई जगहों पर किया है, रानीखेत इस प्रयोग का एक उदाहरण है। एक बार जब हम एक निश्चित अवधि के निरंतर प्रयास से मिश्रित वन विकसित कर लेते हैं, तो अन्य प्रजातियां स्वयं चीड़ के विकास को नियंत्रित कर लेंगी।”