पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ जो कूटनीतिक और रणनीतिक कदम उठाए हैं उनमें से एक है सिंधु जल समझौते को स्थगित करना है। सिंधु जल समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुआ था और पिछले 65 सालों में तमाम उतार-चढ़ाव और कड़वाहटों के बीच यह कायम रहा है।
इस समझौते को स्थगित करने के भारत के फैसले पर पाकिस्तान की ओर से तीखी प्रतिक्रिया हुई है और विशेषज्ञों द्वारा यह आकलन किया जा रहा है कि इसके क्या परिणाम हो सकते हैं।
समझौते के तहत भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु बेसिन की छह नदियों का बंटवारा हुआ था।
नदी और जल विशेषज्ञ और साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपुल (सेंड्रप) के कॉर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “जब देश आजाद हुआ और बंटवारा हुआ तो उस वक्त स्थिति यह थी कि अधिक सिंचित इलाका तो पाकिस्तान में चला गया था, लेकिन जहां से सिंचाई के लिए पानी भेजा जाता था और उसके कंट्रोलिंग हेडवर्क भारत के पास थे। भारत ने 1947-48 के युद्ध के बाद पानी के रोक दिया था और पाकिस्तान की हालत बहुत दयनीय हो गई थी। उनके पास कोई चारा नहीं था इसलिए उन्होंने अमेरिका और वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता से यह समझौता किया गया और इसमें करीब 12 साल लगे।”
कुल 12 अनुच्छेद और 8 अनुलग्नक (एनेक्स्चर) वाली इस संधि में जहां सिंधु बेसिन की तीन पूर्वी नदियों रावी, सतलुज और ब्यास के पानी पर भारत का पूर्ण अधिकार दिया गया, वहीं पश्चिमी हिस्से की झेलम, चिनाब और सिन्धु के अधिकार पाकिस्तान को दिए गए।
पूर्वी नदियों में पानी का कुल वार्षिक प्रवाह 33 मिलियन एकड़ फुट (एमएएफ) है जो पाकिस्तान के हिस्से में गई तीन नदियों के कुल प्रवाह 135 एमएएफ से कहीं अधिक है, लेकिन भारत को पाकिस्तान के हिस्से वाली नदियों पर 4 मिलियन एकड़ फुट पानी स्टोर करने और बिना पानी को रोके (रन ऑफ द रिवर) जल विद्युत परियोजनाएं बनाने के अधिकार दिए गए हैं।
एक मिलियन एकड़ फुट का मतलब है- 10 लाख एकड़ में एक फुट तक भरा पानी, जो लगभग 123.35 करोड़ लीटर होता है।
ठक्कर बताते हैं, “ यह समझौता काफी बारीकी से बनाया गया। इसीलिये शायद यह इतने साल से टिका है। इसमें विवाद के निपटारे के लिए भी व्यापक प्रावधान है जो तीन स्तर का है। इसके साथ ही डेटा को साझा करने और दोनों देशों के बीच वार्षिक मीटिंग का प्रावधान है।”
आज भारत पूर्वी हिस्से की अपने अधिकार वाली नदियों का 90 प्रतिशत पानी इस्तेमाल कर रहा है और उन पर कई हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट भारत बनाए जा चुके हैं वहीं पश्चिमी नदियों पर उसकी उसकी कुछ जलविद्युत परियोजनायें चल या बन रही हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि भारत पश्चिमी नदियों (चिनाब, झेलम और सिन्धु) पर अपनी जल संग्रह के अधिकार का पूरा दोहन नहीं कर पाया है और उसकी जलविद्युत परियोजनाओं पर भी पाकिस्तान ने कई बार सवाल खड़े किए हैं।
कम पानी वाले सीजन में वूलर झील को नेविगेशनल बनाने के लिए भारत ने जो तुलबुल प्रोजेक्ट शुरू किया, वह पाकिस्तान की आपत्ति के कारण लंबे समय से अटका पड़ा है।
जानकार बताते हैं कि सिन्धु के पानी को लेकर कश्मीरी अवाम के दिल में नाइंसाफी की भावना रही है क्योंकि उन्हें लगता है पश्चिमी नदियों का अधिक हिस्सा पाकिस्तान को गया और भारत के अपने राज्य कश्मीर की जरूरतों को अनदेखा किया गया। इस लिहाज से भारत पश्चिमी नदियों के दोहन के विकल्प पर गंभीरता से विचार कर सकता है।
पहलगाम हमले के आद अब भारत सरकार ने इस सन्धि को स्थगित किया है तो सवाल है कि वह पाकिस्तान को साधने के लिए क्या कदम उठाएगा। क्या वह अपनी जल संरक्षण क्षमता को बढ़ाएगा, क्योंकि उसके पास 4 मिलियन एकड़ फुट पानी को संग्रह करने और 13.43 लाख एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई का अधिकार है। भारत अभी दोनों ही मामलों में संधि में मिले अपने अधिकार से कम जल संसाधन का दोहन कर रहा है।
संधि को स्थगित कर भारत जल संग्रह क्षमता को असीमित करने के साथ उन प्रोजेक्ट्स को शुरू कर सकता है जो पाकिस्तान की आपत्ति से रुके हैं जैसे तुलबुल प्रोजेक्ट। वर्तमान में झेलम की सहायक नदी पर किशनगंगा और चिनाब पर बन रहे रातले प्रोजेक्ट के निरीक्षण के पाकिस्तान के अधिकार खत्म कर सकता है और उनके अधिकारियों को वहां मुआयने के लिए जाने से रोक सकता है।
इसके अलावा भारत पाकिस्तान के साथ इन नदियों के लेकर किसी भी तरह के डाटा को साझा करना बन्द कर सकता है। इससे पाकिस्तान के लिए कृषि सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण की प्लानिंग कठिन हो जाएगी।
विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को देखते हुए क्योंकि इससे एक्सट्रीम वेदर इवेंट बढ़ रहे हैं और नदियों में पानी का जलस्तर अनायास ही कम ज्यादा होता है। जैसा कि साल 2023 में हिमाचल प्रदेश में ही नदियों में अचानक बाढ़ से भारी तबाही हुई और कुल नुकसान का आकलन 10,000 करोड़ रुपए से अधिक का रहा।
जल विद्युत के लिए नदियों पर बने बांधों में जमा होने वाली मिट्टी को हटाना एक महत्वपूर्ण काम है। इसे डी-सिल्टिंग भी कहा जाता है और इसे अंजाम देने के लिए बांध से पानी छोड़ना होता है लेकिन इसकी पूर्व जानकारी उस क्षेत्र को देनी होती है जो नदी के प्रवाह क्षेत्र (डाउन स्ट्रीम) में है। इस संधि को भारत न माने तो वह बांधों से पानी छोड़ने और दूसरी जानकारियां देना बन्द कर देगा जिससे पाकिस्तान को अचानक बाढ़ या कृषि की तबाही का सामना करना पड़ सकता है।
ठक्कर कहते हैं, “यह अल्पकालिक और त्वरित कदम हैं लेकिन अगर भारत दीर्घकालिक रणनीति बना रहा है तो वह पाकिस्तान को हिस्से वाली पश्चिमी नदियों के पानी पर अपने अधिकार से अधिक संग्रह कर सकता है। इसके लिए उसे बड़ी स्टोरेज बनानी होगी और वह पानी को डायवर्ट कर दूसरे हिस्सों में भी भेज सकता है।”
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