हर तरह की आग इकोसिस्टम के लिए हानिकारक नहीं हैं। फोटो: @uttarakhandcops/X

जंगलों की आग और फॉरेस्ट इकोलॉजी का क्या है रिश्ता

हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड अपने नैसर्गिक सौंदर्य और समृद्ध जैव-विविधता के लिए जाना जाता है। लेकिन फिलहाल यह राज्य जंगलों में आग की चिंताजनक रूप से बढ़ती घटनाओं के खतरे से जूझ रहा है।

मीडिया में जहां आग से हो रहे विनाश की ख़बरें और आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चल रहा है, वहीं हमारे लिए जगलों की आग की बारीकियों और इकोसिस्टम के साथ उनके जटिल संबंधों के बारे में जानना महत्वपूर्ण है। मसलन यह जानना कि हर तरह की आग इकोसिस्टम के लिए हानिकारक नहीं हैं। दरअसल, आग की कुछ घटनाएं उत्तराखंड के जंगलों के स्वास्थ्य और संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हमें जंगल की आग और उनके आसपास के पर्यावरण के जटिल संबंधों को गहराई से समझना होगा।

जंगलों की आग के कारण

जंगलों के इकोसिस्टम पर आग की भूमिका जानने के पहले हमें समझना होगा कि जंगलों में आग कैसे लगती है, फैलती है और इसका वातावरण पर परस्पर प्रभाव कैसा होता है। जंगलों में आग के कई कारण हो सकते हैं जैसे बिजली गिरना, या मानवीय गतिविधियां जैसे कैम्पफ़ायर या फेंकी गई सिगरेट और यहां तक कि कई बार यह आग अपने आप भड़क सकती है। हालांकि आग की ज्यादातर घटनाएं मानव जनित होती हैं जो फसलों को जलाने या आग को ठीक तरह से इस्तेमाल नहीं कर पाने के कारण होती हैं। कई बार वन क्षेत्रों में या उसके आस-पास रहने वाले समुदाय जानबूझकर विभिन्न कारणों से आग लगा सकते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में स्थानीय समुदायों में पारंपरिक प्रथाएं होती हैं, जिनमें अक्सर जंगलों की निचली परतों, या अंडरस्टोरी को जला दिया जाता है ताकि जंगल की फर्श को साफ करके घास के विकास को बढ़ावा दिया जा सके और किलनी आदि कीटों और परजीवियों को बढ़ने से रोका जा सके।

कई तरीके की प्राकृतिक वस्तुएं जंगल की आग के ईंधन का काम कर सकती हैं, जैसे मृत वनस्पति, झड़ी हुई सूखी पत्तियां और टहनियां इत्यादि। उत्तराखंड में मौजूद चीड़ के जंगलों में आग लगना और भी आसान है क्योंकि चीड़ की पत्तियां गिरकर जमीन पर एक मोटी परत बना देती हैं। इसके अलावा, जिन इलाकों में जानवर कम चराए जाते हैं वहां समय के साथ झाड़ियां और वनस्पति भी उत्पन्न हो जाती हैं।  

आग की प्रकृति और तीव्रता निर्धारित करने में मौसम की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शुष्क और तेज हवा वाली परिस्थितियां आग के तेजी से फैलने के लिए अनुकूल होती हैं, जबकि नमी या वर्षा आग की गतिविधि को कम कर सकती है। तापमान, हवा की गति और सापेक्ष आर्द्रता प्रमुख कारक हैं जो आग के व्यवहार को प्रभावित करते हैं, गर्म, शुष्क और हवा की स्थिति आग के जोखिम को बढ़ाती है।

गौरतलब है कि 2023 से अल निनो की स्थितियां बनी हुईं हैं, जिसके कारण तापमान बढ़ जाता है और कई जगहों पर वातावरण अधिक गर्म और शुष्क हो जाता है, जिससे आग का खतरा और बढ़ जाता है। अल निनो से बढ़ी गर्मी और दूसरे पर्यावरणीय कारणों से आग को रोकना और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसलिए, विशेष रूप से अल निनो वर्षों के दौरान मौसम के पैटर्न को समझना और मॉनिटर करना जंगलों की आग के जोखिम का आकलन करने और उसे कम करने के लिए महत्वपूर्ण है।

आग की तीव्रता पर इसका असर भी पड़ता है कि आस-पास का भूभाग कैसा है। मसलन, खड़ी ढलानों पर आग को रोकना ज्यादा मुश्किल है। जब गर्म हवा ऊपर उठती है, तो संवहन (कन्वेक्शन) के कारण आग तेजी से ऊपर की ओर फैलती है। साथ ही, दर्रों और घाटियों में हवा को एक दिशा मिल जाती है जिससे आग तेजी से फैलती है और उसे रोकना कठिन हो जाता है। इसलिए, आग को रोकने के लिए किसी क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताओं को समझना महत्वपूर्ण है।

मिट्टी की संरचना भी आग को और गंभीर बना सकती है। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में ज्यादातर उथली मिट्टी होती है, जिसमें नमी कम होती है और यह वनस्पति को बेहतर संरक्षण नहीं देती, जिससे वह आग के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। साथ ही, ढलानों पर आग के बाद मिट्टी के कटाव और भूस्खलन का खतरा बढ़ सकता है।

आग की इकोलॉजिकल भूमिका

जंगलों की आग इकोसिस्टम का एक भाग है, और समय के साथ प्रकृति ने इसके लिए खुद को अडाप्ट (अनूकूलित) कर लिया है। चीड़ पाइन फायर-अडाप्टेड वनस्पतियों ने जीवित रहने और यहां तक कि समय-समय पर लगने वाली आग से लाभ उठाने के लिए तंत्र विकसित कर लिया है। 

उत्तराखंड में बड़ी मात्रा में पाए जाने वाले चीड़ पाइन के वृक्षों का मोटा तना एक बैरियर का काम करता है, जो आग की गर्मी से उसकी अंदरूनी परतों की सुरक्षा करता है। इसके अलावा, इन पेड़ों की मुख्य जड़ गहरी होती हैं, जिससे वह गहरी मिट्टी से नमी ले सकते हैं, जो उन्हें सूखे की स्थिति के दौरान अधिक रेसिलिएंट बनाता है। चीड़ पाइन का बीज इनके शंकुओं में होता है और इनमें मौजूद सेरोटिनी के कारण यह शंकु तब तक बंद रहते हैं जब तक वह किसी बाहरी कारक, आमतौर पर जंगल की आग से निकलने वाली गर्मी से खुल न जाएं।

आग की गर्मी से शंकु में मौजूद राल पिघल जाती है, जिससे बीज निकल जाते हैं और नए साफ और पोषक तत्वों से भरपूर वातावरण में अंकुरित होते हैं। जिन जगहों पर आग ज्यादा लगती है वहां वनस्पति इसी प्रकार अनुकूलन कर लेते हैं। समय-समय पर लगने वाली आग से यहां इकठ्ठा हुआ मलबा साफ हो जाता है, बीजों को अंकुरित होने में सहायता मिलती है और पोषक तत्व रीसाइकिल हो जाते हैं, जिससे इकोसिस्टम का स्वास्थ्य बेहतर होता है। उन क्षेत्रों में जहां आग को लंबे समय तक दबाया जाता है, वहां मलबा जमा होने से अधिक तीव्र और विनाशकारी आग लग सकती है। जहां आग इकोसिस्टम का एक प्राकृतिक हिस्सा है, वहां वनस्पति इससे निपटने के लिए विकसित हुई है और यहां तक कि पुनर्जनन के लिए वह समय-समय पर लगने वाली आग पर भी निर्भर रहती है।

सामान्य धारणा के विपरीत, जानवरों की आबादी पर जंगल की आग का प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता है। कई जानवरों ने जीवित रहने के तरीके विकसित कर लिए हैं, जैसे भूमिगत बिल बनाना या सुरक्षित क्षेत्रों में शरण लेना, जिससे वे आग की लपटों के खतरों से बच सकें। आश्चर्यजनक रूप से, जंगल की आग उन घुसपैठिया (इनवेसिव) प्रजातियों  को नियंत्रित करने में मदद करती है जो उनका सामना करने के लिए विकसित नहीं हुई हैं, इससे स्थानीय इकोसिस्टम को लाभ होता है।

इसके अलावा, वन विभाग की निगरानी में सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध तरीके से नियंत्रित आग लगाई जाती है जो वन प्रबंधन की एक तकनीक है। इससे जंगलों के पुनर्जनन में मदद मिलती है। समय के साथ जंगल की जमीन पर कार्बनिक पदार्थ जमा हो जाते हैं जो आग लगने की स्थित में ईंधन का काम करते हैं। नियंत्रित आग द्वारा इन्हें भी साफ़ किया जाता है, नहीं तो स्वाभाविक रूप से लगने वाली आग तेजी से बढ़ सकती है जिससे काफी अधिक क्षति होती है।

अग्नि प्रबंधन की चुनौतियां

जलवायु परिवर्तन, भूमि-उपयोग में बदलाव, मानवीय गतिविधियों, बढ़ते तापमान, वर्षा के बदलते पैटर्न और लंबे समय तक रहने वाली सूखे की स्थिति से कई क्षेत्रों में आग का खतरा बढ़ा रहा है। इसलिए आग के प्रबंधन और शमन के लिए सक्रिय रणनीतियों की जरूरत है। वैज्ञानिक अनुसंधान और पारंपरिक ज्ञान की मदद से, स्थानीय समुदायों को साथ लेकर, वन विभाग व्यापक अग्नि प्रबंधन योजनाएं विकसित कर सकता है, जिनमें इकोसिस्टम और भूभाग के संरक्षण और कम्युनिटी रेसिलिएंस को प्राथमिकता दी जाए।

जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों का प्रकोप और सूखे जैसे अजैविक तनाव में भी वृद्धि होती है, जिससे जंगलों का रेसिलिएंस कमजोर होता है और आग लगने और फैलने की संभावना अधिक होती है। इन बदलती परिस्थितियों से अनुकूलन के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है जो जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रभावों से निपटे।

इस दिशा में शिक्षा एक शक्तिशाली हथियार हो सकती है। स्कूलों के माध्यम से आग से बचने के उपाय और पर्यावरणीय प्रबंधन की संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है। आग से सुरक्षा और वन संरक्षण को पाठ्यक्रम में शामिल करके, हम युवा मन में जिम्मेदारी और जागरूकता की गहरी भावना पैदा कर सकते हैं।

रोचक अभ्यासों के माध्यम से विद्यार्थियों को आग के इकोलॉजिकल महत्व, जोखिम के कारण, और आग के प्रबंधन में मानव गतिविधियों के योगदान के बारे में सिखाया जा सकता है। जंगल की आग के पीछे के विज्ञान और उनके इकोलॉजिकल प्रभावों को समझकर, छात्र प्रकृति के नाजुक संतुलन और हमारी प्राकृतिक विरासत को संरक्षित करने के महत्व को और अच्छी तरह पहचान सकते हैं।

इसके अलावा, स्कूल सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देने और आग की रोकथाम के प्रयासों में भागीदारी के लिए एक मंच बन सकते हैं। छात्र पर्यावरण राजदूत के रूप में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं, जागरूकता अभियान आयोजित कर सकते हैं, वृक्षारोपण अभियान चला सकते हैं और साफ़-सफाई की पहल कर सकते हैं।

साथ मिलकर काम करें तो हम उत्तराखंड को अधिक फायर रेसिलिएंट बना सकते हैं और भावी पीढ़ियों के लिए धरती के इकोसिस्टम को संरक्षित कर सकते हैं।

(कुंदन कुमार भारतीय वन सेवा के अधिकारी हैं। यह उनके निजी विचार हैं और सरकार की नीति को प्रदर्शित नहीं करते)

Kundan Kumar
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