फोटो: Rajesh Balouria/Pixabay

क्या बढ़ते जल संकट की दिशा बदल सकते हैं भारत के शहर?

जैसे-जैसे शहरों में पानी समाप्त हो रहा है, विशेषज्ञ पानी के पुनः उपयोग, भूजल रिचार्ज और शहरी जल प्रबंधन की सोच में बड़े बदलाव की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे हैं।

भारत उन देशों में हैं जहां पानी की कमी सबसे अधिक है। वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) द्वारा जारी किए गए एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस 2023 के अनुसार, दुनिया के 25 सबसे अधिक “वाटर स्ट्रेस्ड” देशों में भारत 24वें स्थान पर है। जिस देश में पानी की मांग आपूर्ति से अधिक हो, या जहां खराब गुणवत्ता के कारण पानी का उपयोग करना कठिन हो, उसे “वाटर स्ट्रेस्ड” देश कहा जाता है। डब्ल्यूआरआई की रिपोर्ट के अनुसार भारत उपलब्ध आपूर्ति का कम से कम 80 प्रतिशत पानी उपयोग कर रहा है। 

बढ़ते शहरीकरण से यह संकट और गहरा होता जा रहा है। भारत की शहरी आबादी 2013 से 2023 के बीच 32% से बढ़कर 36.36% हो गई

भारत के जल स्त्रोतों पर दबाव कई स्तरों पर बढ़ रहा है। हाल ही में पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल समझौता स्थगित कर दिया। इससे पता चलता है कि पानी अब सिर्फ आंतरिक शासन से परे एक रणनीतिक और जियोपॉलिटिकल मुद्दा बन गया है।

घरेलू स्तर पर तेजी से होते अनियोजित शहरी विकास के कारण जल स्रोत घटते जा रहे हैं; नदियां सिकुड़ रही हैं, भूजल का स्तर गिर रहा है, वहीं बढ़ते प्रदूषण और पुराने इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण संकट गहरा रहा है। भविष्य में भारत के शहरों के लिए स्थायी जल आपूर्ति सुरक्षित करने के लिए विशेषज्ञ बेहतर योजना, स्थानीय संसाधनों के कुशल उपयोग, और वेस्ट वाटर मैनेजमेंट की आवश्यकता पर जोर देते हैं।

भूजल की हकीकत

नीति अयोग ने 2018 में एक रिपोर्ट में भविष्यवाणी की थी कि 2020 तक दिल्ली, बैंगलोर, हैदराबाद और चेन्नई समेत 21 भारतीय शहरों में भूजल समाप्त हो जाएगा। हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है, लेकिन समस्या गंभीर बनी हुई है।

सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के पूर्व सदस्य और वर्तमान में मानव रचना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च एंड स्टडीज (एमआरआईआईआरएस) के चेयर प्रोफेसर दीपांकर साहा कहते हैं, “शहरों में जिस तरह पानी का दोहन हो रहा है वह सस्टेनेबल नहीं है।”

साहा बताते हैं कि भारत का लगभग 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र कठोर चट्टानों से बना है, जिनमें पानी का बहाव आसानी से नहीं होता है। इसलिए भूजल रिचार्ज (पानी का जमीन के भीतर पहुंचकर भूजल के रूप में संग्रहीत होना) कठिन होता है।  

उन्होंने कहा कि कठोर चट्टानी इलाकों में भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा है, लेकिन दोहन उसी दर से या और अधिक दर से किया जा रहा है। साहा दिल्ली से सटे फरीदाबाद का उदहारण देते हैं जहां भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। “यमुना के किनारे बसे होने के बावजूद यह शहर पूरी तरह भूजल पर निर्भर है। जिस तेजी से भूजल का दोहन हो रहा है उसके अनुरूप रिचार्ज नहीं होने के कारण भूजल का स्तर काफी गिर चुका है,” उन्होंने कहा।  

“डे जीरो” शहर और दम तोड़ती नदियां

चेन्नई ने 2019 में एक गंभीर जल संकट का सामना किया और शहर के चारों प्रमुख जल स्रोत लगभग सूख गए। शहर में “डे जीरो” आपातकाल की घोषणा कर दी गई। “डे जीरो” ऐसी स्थिति होती है जब किसी शहर में नगरपालिका द्वारा जल आपूर्ति गंभीर रूप से कम हो जाती है, घरों और व्यवसायों के पानी के कनेक्शन को प्रतिबंधित या बंद कर दिया जाता है। विशेषज्ञों ने इस संकट के लिए खराब योजना और जल निकायों के विनाश को दोषी ठहराया।

लेकिन चेन्नई केवल एक उदहारण है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने 100 ऐसे शहरों की सूची जारी की है जो 2050 तक ‘गंभीर जल संकट’ का सामना करेंगे। इस सूची में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता. बेंगलुरु, लखनऊ और भोपाल समेत 30 भारतीय शहर हैं। रिपोर्ट के अनुसार तबतक शहरी आबादी 2020 में 17% से बढ़कर 2050 तक 51% हो जाएगी। इस संकट से शिमला जैसे हिल स्टेशन भी अछूते नहीं हैं। 

2018 में शिमला के घरों में जब पानी आना बंद हो गया तो स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। 

“पिछले दो दशकों में बर्फबारी कम हो गई है। पहले दिसंबर और मार्च के बीच इन पहाड़ियों में कई फीट ऊंची बर्फ मिलती थी। अब एक फुट बर्फ भी मुश्किल से गिरती है और वह भी पूरे साल में कुछ ही दिनों के लिए। सर्दियां शुष्क होती जा रही हैं और बारिश कम हो रही है। दूसरी समस्याएं भी हैं, जैसे कि अनियमित निर्माण कार्य और खराब अपशिष्ट प्रबंधन, जिनसे जलभृत नष्ट हो जाते हैं,” बिजनेसमैन और शिमला नगर निगम के पूर्व मेयर संजय चौहान कहते हैं। 

जब टूरिस्ट सीजन चरम पर होता है तो शिमला को प्रतिदिन लगभग 45 मिलियन लीटर (एमएलडी) पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन लगभग 30 एमएलडी ही उपलब्ध हो पाता है। अन्य हिल स्टेशनों जैसे नैनीताल, मसूरी, कुल्लू, ऊटी और कोडाइकनाल की भी यही कहानी है। 

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स, नई दिल्ली की वरिष्ठ फैकल्टी पारामिता डे कहती हैं कि “चेन्नई, शिमला और नैनीताल जैसे शहरों की स्तिथि एक चेतावनी है कि अनियंत्रित मांग और पर्यावरण के प्रति लापरवाही से क्या हो सकता है। तालाबों को पाटकर और प्राकृतिक जलमार्गों की अनदेखी कर बड़े क्षेत्र में निर्माण और कंक्रीट बिछाने के कारण शहरों में बाढ़ की घटनाएं बढ़ने के साथ-साथ अधिक गंभीर हुई हैं।”

लुप्त होती नदियां, असमान वर्षा

पूरे भारत में मानसून सीजन के बाहर नदियां सूख रही हैं। पिछले साल केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने एक विश्लेषण में पाया कि “आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा से होकर बहने वाली महानदी और पेन्ना नदियों के बेसिन में बिलकुल पानी नहीं बचा था।” 

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के वाटर प्रोग्राम की सीनियर प्रोग्राम मैनेजर सुष्मिता सेनगुप्ता कहती हैं कि “जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत कम समय में बहुत बारिश होती है, जिससे बारिश के दिनों की संख्या कम हो जाती है। यदि आप पिछले कुछ सालों के डेटा पर नज़र डालें, तो पाएंगे कि चाहे चेन्नई हो, या दिल्ली, हैदराबाद हो या लखनऊ या कोई और शहर, वही बड़े शहर एक ही साल में सूखे और बाढ़ दोनों का सामना करते हैं”।

गंगा बेसिन इसका एक और उदाहरण है — यहां बर्फ का आवरण पिछले 23 सालों में सबसे कम अवधि के लिए स्थिर रहा, जिससे नीचे बसे शहरों के लिए खतरा पैदा हो गया है। इस कारण नदी घाटियों में पानी की कमी हो रही है, जो उन क्षेत्रों की आर्थिक स्थिति, आजीविका और कृषि गतिविधियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। साथ ही, यह नदियों के स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदायक है। 

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “किसी नदी का स्वास्थ्य काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि बारिश का पानी कितनी जल्दी उसके आवाह क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) से बहकर नदी में प्रवेश करता है। प्रवाह जितना धीमा होगा, नदी का स्वास्थ्य उतना बेहतर होगा। दूसरी ओर, तेज प्रवाह की स्थिति में नदी की हालत बिगड़ती है। वन, आर्द्रभूमि, स्थानीय जल निकाय, और कार्बन-समृद्ध कृषि क्षेत्र बारिश के पानी को अवशोषित करके फिर धीरे-धीरे छोड़ने में मदद करते हैं, इससे साल भर नदी का प्रवाह बना रहता है और बाढ़ और सूखे दोनों की स्थितियां पैदा नहीं होती।”

असमान और अस्थिर उपलब्धता

यह बढ़ता अंतर केवल पानी की कमी के कारण नहीं, बल्कि असमानता के कारण भी है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घट रही है — 2001 में यह 1,816 घन मीटर थी, जो 2031 तक 1,367 घन मीटर होने की संभावना है। सरकार ने हर व्यक्ति के लिए प्रतिदिन 135 लीटर पानी का मानक तय किया है, लेकिन असल में उपलब्धता में बहुत अंतर होता है। कुछ शहरों में लोगों को 24 घंटे पाइप से पानी मिलता है, जबकि झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लगातार पानी की कमी से जूझते हैं। बड़े शहरों में अक्सर दूर-दराज के इलाकों से पानी पहुंचता हैं, जिससे स्थानीय लोगों को नुकसान होता है। 

राजस्थान में 2018 के चुनावों के दौरान पानी की कमी के चलते लोगों ने “पानी नहीं तो वोट नहीं” अभियान चलाया था, जिसे इस लेखक ने रिपोर्ट किया था।  

ठक्कर कहते हैं कि शहरी जल प्रबंधन के लिए कोई ठोस नीति नहीं है। उनके अनुसार बारिश के पानी, तालाबों या नदियों जैसे स्थानीय स्रोतों का उपयोग करने के बजाय, शहर दूर-दराज के इलाकों से पानी लेने पर भरोसा करते हैं। “हमारे पास स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट हैं, लेकिन वाटर-स्मार्ट सिटी की कोई संकल्पना नहीं है। शहरों को अपने स्थानीय जल संसाधनों का प्रबंधन और सबसे बेहतर उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए।” 

ठक्कर बताते हैं कि जब वह 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के वर्किंग ग्रुप में शामिल थे तो यह सुझाव दिया गया था कि शहरों को बाहरी स्रोतों से पानी लेने की अनुमति तभी दी जानी चाहिए जब वह दिखा सकें कि उन्होंने सभी स्थानीय जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग कर लिया है।

प्रदूषण की बढ़ती भूमिका

जहां उपलब्धता है वहां भी ज्यादातर मामलों में पेयजल असुरक्षित है। भारत के पास दुनिया के कुल मीठे पानी के संसाधनों का 4 प्रतिशत होने के बावजूद, पानी की गुणवत्ता बहुत खराब है। भारत 2024 में विश्व जल गुणवत्ता सूचकांक पर 124 देशों में 122वें स्थान पर था। नीति आयोग की उक्त रिपोर्ट में भी पूरे भारत में पानी की खराब गुणवत्ता को स्वीकार किया गया है। 

औद्योगिक अपशिष्ट, अनुपचारित सीवेज, और खराब अपशिष्ट निपटान ने कम गहरे जलभृतों को विषाक्त बना दिया है और नदियों के पानी को कैडमियम, सीसा और आर्सेनिक जैसे दूषित पदार्थों से युक्त कर दिया है। 

साहा ने कार्बनकॉपी से कहा, “शहरी क्षेत्रों में प्रमुख समस्या यह है कि कई वैध और अवैध औद्योगिक फैक्ट्रियां चल रही हैं। नदियों को प्रदूषित करने के अलावा यह औद्योगिक इकाइयां खतरनाक रसायनों का निर्वहन कर रही हैं, जो भूमि में समा जाते हैं। ट्रीटमेंट की तकनीक भी पर्याप्त नहीं है। इससे कैडमियम, क्रोमियम और पारा जैसी भारी धातुओं का ठीक से ट्रीटमेंट नहीं हो पता है।” 

“गहरे जलाशय फिर भी सुरक्षित हैं, लेकिन जिनकी गहराई अधिक नहीं है वह पूरी तरह प्रदूषित हो चुके हैं। आर्सेनिक जैसे कुछ तत्वों से प्रदूषण प्राकृतिक रूप से होता है, लेकिन मानवीय गतिविधियां उसे और गंभीर बना रही हैं,” उन्होंने कहा।

राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार ने माना है कि कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के कुछ इलाकों में पीने के पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट और भारी धातुओं जैसे खतरनाक तत्व बीआईएस मानकों से अधिक मात्रा में पाए गए हैं।

गंगा की सफाई पर चार दशकों में 33,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च होने के बावजूद, वह अब भी प्रदूषित है। केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 81 नदियों और उनकी सहायक नदियों में जहरीली भारी धातुओं की मात्रा खतरनाक स्तर पर है, जिनमें आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, कॉपर, आयरन, सीसा, मरकरी और निकल शामिल हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि बिना ट्रीटमेंट के सीवेज को सीधे नदियों में डालना इसका मुख्य कारण है।

झारखंड और उत्तराखंड की सरकारों को हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने इसी लापरवाही के लिए फटकार भी लगाई है

हालांकि नदियों का प्रदूषण अब भी गंभीर मुद्दा है, लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, 2018 में जहां विभिन्न नदियों के प्रदूषित हिस्सों की सख्या 351 थी, वहीं 2022 में यह संख्या घटकर 311 रह गई। इन 351 हिस्सों में से 180 को 2018 में प्रदूषित माना गया था, उन सभीमें पानी की गुणवत्ता बेहतर हुई है। उनमें से 106 को अब साफ हिस्सों की सूची में डाल दिया गया है और 74 से खतरे की संभावना को घटा दिया गया है। सरकारी आकलन के अनुसार, 2015 में मॉनिटर की गई 390 नदियों में से 70% (275 नदियां) प्रदूषित थीं, जबकि 2022 में यह अनुपात घटकर 46% (603 में 279) हो गया है।

आगे का रास्ता 

विशेषज्ञों का कहना है कि सोच बदलने की जरूरत है। अपशिष्ट जल कोई बोझ नहीं, बल्कि एक संसाधन है। इस समय एक ठोस जल संरक्षण और प्रबंधन नीति की ज़रूरत है। उनका मानना है कि अब केवल पानी की आपूर्ति बढ़ाने की बजाय, शहरों में पानी के समग्र और समझदारी भरे प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए। 

पारामिता डे कहती हैं, “कई मामलों में हम टुकड़ों में प्लानिंग करते रहे हैं। हम भलीभांति जानते हैं कि जल आपूर्ति इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने में बड़ी मात्रा में पूंजी लगती है। हालांकि, हम इसके संचालन और रखरखाव पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए हैं। उपभोक्ताओं से वसूले जाने वाले शुल्क, संचालन और रखरखाव की लागत पूरी करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। दूसरी बात, हम नॉन-रेवेन्यू वॉटर (ऐसा पानी जिससे कोई आय नहीं होती) को कम करने में सफल नहीं हो पाए हैं। बड़ी मात्रा में पानी लीकेज में बर्बाद हो जाता है।”  

“ट्रीटमेंट प्लांटों का विकेंद्रीकरण, मजबूत नियामक व्यवस्था और लोगों में विश्वास पैदा करके अपशिष्ट जल के दोबारा उपयोग की पूरी संभावनाओं का फायदा उठाया जा सकता है,” उन्होंने कहा।

सिंगापुर और टेक्सास के अल पासो जैसे शहर अपनी जरूरतों का 40% पानी अपशिष्ट जल का ट्रीटमेंट और पुन: उपयोग करके प्राप्त करते हैं। भारत में भी ऐसा करने की क्षमता है — यदि उपचार संयंत्र कुशलता से काम करें और स्लज का प्रबंधन ठीक से किया जाए।

लेकिन भारत अपने अपशिष्ट जल के एक छोटे से हिस्से को ही रीसाइकल कर पता है। भारत में रोज लगभग 72,000 एमएलडी अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है, लेकिन केवल 28% का ही ट्रीटमेंट होता है। दिल्ली में 1,000 एमएलडी से अधिक सीवर का पानी बिना उपचार के यमुना में छोड़ दिया जाता है, जबकि यहां 37 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) हैं — हालांकि उनमें से आधे सीपीसीबी द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करते हैं।

यमुना की सफाई के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए काम करने वाली एनजीओ अर्थ वॉरियर्स से जुड़े पर्यावरण एक्टिविस्ट पंकज कुमार कहते हैं, “हम बस धोने से लेकर सरकारी इमारतों तक हर चीज के लिए मीठे पानी का उपयोग करते हैं। यदि हम इन सभी कार्यों के लिए साफ ट्रीटेड पानी का उपयोग करते हैं तो नदियों पर दबाव कम हो जाएगा, जिससे उन्हें भूजल को रिचार्ज करने का मौका मिलेगा।”  

कुमार दिल्ली में पप्पन कालां और नोएडा के कुछ क्षेत्रों का उदाहरण देते हैं, जहां एसटीपी अच्छी तरह से काम कर रहे हैं और पानी का उपयोग कृषि और तालाब बनाकर भूजल रिचार्ज के लिए किया जा रहा है। 

सीईईडब्ल्यू की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक उपचारित अपशिष्ट जल से दिल्ली के क्षेत्र के 26 गुना क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है। उपचारित पानी का बाजार में मूल्य 2050 में 1.9 अरब रुपए होगा। पिछले साल सीईईडब्ल्यू की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, उपयोग किए गए जल के प्रबंधन में हरियाणा, कर्नाटक और पंजाब अग्रणी हैं।

सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड नितिन बस्सी के अनुसार, “भारत के कई शहर जल संकट से जूझ रहे हैं। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु अपनी मीठे पानी की ज़्यादातर जरूरतें कावेरी नदी और बोरवेल्स से पूरी करता है। इस समय यह शहर गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। आने वाले समय में, इस्तेमाल किए गए पानी को पूरी क्षमता से गैर-पीने योग्य कार्यों के लिए दोबारा उपयोग करना बेहद ज़रूरी होगा।” 

सस्टेनेबिलिटी के लिए बढ़ाना होगा पानी का मूल्य 

लोगों को ज़िम्मेदार बनाने और पानी बचाने का एक तरीका है कि पानी की एक कीमत तय की जाए। हालांकि लोग पीने के लिए बोतलबंद पानी खरीदते हैं, लेकिन घरों में पानी लगभग मुफ्त में मिलता है। साहा कहते हैं, “मुफ्त पानी बर्बादी को बढ़ावा देता है। अगर पानी की कीमत हो, तो उसका उपयोग अधिक समझदारी से होगा।”

कई विशेषज्ञ इस विचार से सहमत हैं। दुनिया भर में इस समय पानी के मूल्य निर्धारण पर चर्चा हो रही है और कई देशों में यह व्यवस्था लागू भी की जा चुकी है, जहां एक तय सीमा से अधिक पानी इस्तेमाल करने पर उपभोक्ता को भुगतान करना पड़ता है, और खपत बढ़ने के साथ-साथ कीमत भी बढ़ती जाती है।

डे कहती हैं, “पानी के मूल्य निर्धारण का एक स्लैब होना चाहिए, जिसमें एक तय सीमा तक पानी सस्ती दर पर उपलब्ध हो — इतना कि बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें। इसके बाद, प्रति यूनिट लागत धीरे-धीरे बढ़नी चाहिए। घरेलू आपूर्ति पर एक सीमा तय करने से पैसेवाले उपभोक्ता भी पानी का उपयोग सोच-समझकर करेंगे। और जहां पीने की जरूरत न हो, वहां उपचारित या रीसाइकल किया गया पानी ही इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए।”

भारत के शहरों का जल संकट अब केवल मंडराता हुआ खतरा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के लिए हर दिन की हकीकत बन चुका है। नदियां सिकुड़ रही हैं, भूजल तेजी से घट रहा है, और स्वच्छ पानी की उपलब्धता को लेकर अमीर और गरीब के बीच की खाई और गहरी होती जा रही है।

लेकिन समाधान हमारे हाथ में हैं। शहरों को पानी के अत्यधिक दोहन से संरक्षण की ओर बढ़ना होगा — अपशिष्ट जल को बेकार समझने के बजाय उसे संसाधन मानना होगा। उतना ही जरूरी है कि हम पानी के मूल्य पर फिर विचार करें — उचित मूल्य निर्धारण, समान उपलब्धता, और इंफ्रास्ट्रक्चर के बेहतर प्रबंधन से।

स्थिति की गंभीरता साफ है। अब सवाल यह है — क्या भारत के शहर इस चुनौती का सामना करेंगे, या तब तक इंतजार करेंगे जब बहुत देर हो चुकी होगी?

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