तापमान वृद्धि के अनुपात में वित्तीय मदद बहुत कम, बदलाव की मांग

क्लाइमेट फाइनेंस जलवायु परिवर्तन से जंग में सबसे महत्वपूर्ण है। कॉप27 में माना गया कि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री से कम रखने के लिए जितना धन चाहिए, क्लाइमेट फंड के तहत उसका एक तिहाई भी नहीं दिया गया है।

क्लाइमेट फाइनेंस जलवायु परिवर्तन वार्ता का एक बड़ा महत्वपूर्ण पहलू है। विकसित देशों द्वारा 2020 तक शमन कार्रवाई के लिए प्रति वर्ष संयुक्त रूप से 100 बिलियन अमरीकी डालर प्रदान करने का लक्ष्य पूरा नहीं होने पर भी गंभीर चिंता व्यक्त की गई, और उनसे आग्रह किया गया कि वह इस लक्ष्य को पूरा करें। साल 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए 2030 तक लगभग $4 ट्रिलियन प्रति वर्ष अक्षय ऊर्जा में निवेश करने की आवश्यकता है। 

पूरे विश्व को एक कम-कार्बन अर्थव्यवस्था बनने के लिए प्रति वर्ष कम से कम $4-6 ट्रिलियन के निवेश की आवश्यकता है। इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि इस तरह की फंडिंग के लिए वित्तीय प्रणाली और इसकी संरचनाओं और प्रक्रियाओं में परिवर्तन जरूरी है। इसके लिए सरकारों, केंद्रीय बैंकों, वाणिज्यिक बैंकों, संस्थागत निवेशकों और अन्य वित्तीय अभिकर्ताओं के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है।

विकासशील देशों की जरूरतों और उन्हें मिले योगदान के बीच बढ़ती खाई पर चिंता व्यक्त की गई, विशेष रूप से ऐसे देश जिनपर कर्ज बहुत है और उनपर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बढ़ रहा है। इस बात पर प्रकाश डाला गया कि 2030 से पहले इस तरह की जरूरतों के लिए वर्तमान में लगभग 5.8–5.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर चाहिए। 

इस बात पर जोर दिया गया कि विकसित देशों और अन्य स्रोतों से विकासशील देशों के लिए त्वरित वित्तीय सहायता शमन कार्रवाई को बढ़ाने और असमानताओं को दूर करने के लिए जरूरी है। कमजोर क्षेत्रों, विशेष रूप से सब-सहारन अफ्रीका को शमन और अनुकूलन के लिए अतिरिक्त सार्वजनिक अनुदान कम लागत पर अधिक परिणाम देगा।

क्लाइमेट ट्रांसपरेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में भारत को एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं से लगभग 8,700 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ। वहीं 2021 में ग्रीनहाउस उत्सर्जन के कारण बढ़ी गर्मी से भारत को 15,900 करोड़ डॉलर की क्षति हुई। 

बढ़ते तापमान से सेवाओं, मैन्युफैक्चरिंग, कृषि और निर्माण क्षेत्रों की आय में कमी आई है, जिससे भारत को होनेवाला नुकसान सकल घरेलू उत्पाद का 5.4% है। 

तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर भारत में चावल का उत्पादन 10-30% तक, और मक्के का उत्पादन 25-70% तक गिर सकता है।

इस साल अगस्त में एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में क्लाइमेट फाइनेंस देश की वर्तमान आवश्यकता से बहुत कम है। रिपोर्ट ने पाया था कि 2019-2020 में भारत का ग्रीन फाइनेंस लगभग 309,000 करोड़ रुपए (लगभग $44 बिलियन) प्रति वर्ष था, जो भारत की जरूरतों के एक चौथाई से भी कम है। पेरिस समझौते के तहत अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारत को हर साल लगभग 11 लाख करोड़ रुपए ($170 बिलियन) की आवश्यकता है।

भारत समेत अन्य विकाशील देश, विकसित देशों को एक नए वैश्विक क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य पर सहमत होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। भारत को उम्मीद है कि विकसित देश जल्द से जल्द एक ट्रिलियन डॉलर का जलवायु वित्त मुहैया कराएंगे। 

भारत ने जलवायु वित्त की परिभाषा पर भी स्पष्टता मांगी। विशेषज्ञों का मानना है इस परिभाषा के अभाव में विकसित देशों को ग्रीनवॉशिंग का अवसर मिल जाता है। भारत ने इस बात पर भी जोर दिया कि 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर प्रदान करने में देरी और कार्यान्वयन में कमी पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

अभी जलवायु वित्त विकासशील देशों की जरूरतों के हिसाब से बहुत कम है। मसलन 2019-2020 में यह लगभग 803 बिलियन अमरीकी डॉलर था, जो वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे या 1.5 डिग्री सेल्सियस पर बनाए रखने के लिए आवश्यक वार्षिक निवेश का 31-32 प्रतिशत ही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.