अभी तक कोई भी स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता है कि एक गरीब देश को कौन से अनुदान या ऋण वास्तव में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए मिले हैं, और कौनसे अधूरे वादों के बावजूद श्रेय लेने के लिए बस केवल नाममात्र के लिए दिए गए हैं।
साल 2024 तक दुनिया को एक नया जलवायु वित्त लक्ष्य (क्लाइमेट फाइनेंस टार्गेट) निर्धारित करना है — यानि वह राशि जो विकसित देशों द्वारा गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए दी जानी है। भारत की मांग है कि इसे सालाना 1 लाख करोड़ डॉलर तक बढ़ाया जाए।
यह दूर की कौड़ी है, क्योंकि विकसित देश पिछले दस वर्षों में 100 अरब डॉलर सालाना प्रदान करने में ही विफल रहे हैं, जिसका वादा उन्होंने 2010 में किया था। 2015 में इस समय सीमा को 2025 तक बढ़ा दिया गया था, जिसका अर्थ है कि हम अभी भी वर्ष 2022 में उनके 2020 के लक्ष्य के बारे में बात कर रहे हैं।
लेकिन इस लक्ष्य निर्धारण का कोई खास मतलब नहीं है। जब तक विकसित देश जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल यानि इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की हालिया रिपोर्ट में वैज्ञानिकों द्वारा दी गई चेतावनी पर ध्यान नहीं देंगे: 28 से अधिक वर्षों से वह जलवायु वित्त की परिभाषा ही नहीं दे पाए हैं।
फरवरी 2022 में रिलीज हुई आईपीसीसी रिपोर्ट ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं, लेकिन इसका यह महत्वपूर्ण हिस्सा — जो विकासशील देशों के लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है — इस शोर-शराबे में कहीं खो गया।
वैज्ञानिकों के पैनल का निष्कर्ष था कि “विभिन्न डेटा प्रदाताओं और कोलेटर्स द्वारा की गई प्रगति के बावजूद, क्लाइमेट फाइनेंस के प्रवाह में परिभाषा, कवरेज और विश्वसनीयता से संबंधित समस्याएं आती रहती हैं।”
इसका मतलब यह है कि अभी तक कोई भी स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता है कि एक गरीब देश को कौन से अनुदान या ऋण वास्तव में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए मिले हैं, और कौन से अधूरे वादों के बावजूद श्रेय लेने के लिए बस केवल नाममात्र के लिए दिए गए हैं।
उदाहरण के लिए, 2020 में इटली द्वारा भारत को दिए अनुदान को लें। इसके तहत तेलंगाना के वारंगल में बधिर छात्रों हेतु एक स्कूल के विस्तार के लिए 224,502 अमरीकी डालर दिए गए। इसे अनुकूलन-संबंधी और शमन-संबंधी वित्त दोनों के रूप में वर्गीकृत किया गया। हालांकि, अनुदान के विवरण में जलवायु संबंधी कार्य किए जाने का कोई उल्लेख नहीं है।
इसी प्रकार यूनाइटेड किंगडम ने राष्ट्रीय आवास बैंक को $341,000 का अनुदान दिया था जो कम आय वाले परिवारों को कर्ज़ देने के लिए था। इसे शमन-संबंधी विकास वित्त के रूप में दर्ज किया गया था।
जापान द्वारा भारत को दिया गया एक और अनुदान जो “ईरान और अन्य पड़ोसी विकासशील देशों” के लिए था और कोविड राहत कार्यों हेतु निर्धारित था, जलवायु से संबंधित विकास वित्त की सूची में डाल दिया गया। जापान ने मथुरा में गरीबों को नेत्र चिकित्सा उपकरण खरीदने के लिए भी अनुदान दिया है।
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) ने इन आंकड़ों का उपयोग अपनी एक रिपोर्ट में यह पता लगाने के लिए किया गया था कि विभिन्न देश अपने 100 बिलियन अमरीकी डालर के लक्ष्य पर कहां तक पहुंचे हैं।
यह अनुदान, जो अधिक से अधिक विकास-संबंधी आर्थिक मदद कही जा सकती हैं, कैसे क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में वर्गीकृत हो गए? ऐसी स्थिति में जब विकसित देश भी इस पद की परिभाषा अस्पष्ट रखना चाहते हैं, आइए देखें कि विज्ञान का इस बारे में क्या कहना है कि जलवायु वित्त किसे कहा जा सकता है?
लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन संचालन का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है। यह जानने के लिए कि वैज्ञानिकों ने क्लाइमेट फाइनेंस के बारे में क्या कहा है, इस समूह ने आईपीसीसी रिपोर्ट के उस सारांश से परे देखा जिसे ज्यादातर राजनेता, नीति निर्माता और जलवायु कार्यकर्ता अक्सर पढ़ते हैं।
यह सारांश ‘नीति निर्माताओं के सारांश’ नामक एक संक्षिप्त (इस मामले में 40 पृष्ठों के) दस्तावेज तैयार करने से पहले सरकारों और वैज्ञानिकों के बीच वाद-विवाद के बाद तैयार किया गया है।
आम सहमति तक पहुँचने में अक्सर उन महत्वपूर्ण वैज्ञानिक निष्कर्षों को छोड़ दिया जाता है जो किन्हीं देशों के राजनीतिक रुख से मेल नहीं खाते। केवल वैज्ञानिकों द्वारा लिखी गई पूरी रिपोर्ट में कई विस्फोटक सत्य होते हैं जो दफन हो जाते हैं।
‘निवेश और वित्त’ पर अध्याय में आईपीसीसी रिपोर्ट कहती है कि जलवायु नीति के दृष्टिकोण से, जलवायु वित्त का अर्थ उस वित्त से है “जिसका अपेक्षित प्रभाव हो नेट ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना और/या जलवायु परिवर्तनशीलता और अनुमानित जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति लचीलापन बढ़ाना” (यूएनएफसीसीसी 2018ए)। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अनुकूलन वित्तपोषण को परिभाषित करना मुश्किल है, क्योंकि यह अंततः सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने तक सीमित रह जाता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि आकलन के मौजूदा तरीके भी वैश्विक वार्ताओं का आधार बनने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। वह चेतावनी देते हैं कि ‘जलवायु निवेश जाल’ में फंसने से बचने के लिए इसका हल आवश्यक है, विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए। बढ़ती ऊर्जा मांग के कारण, अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और मध्य पूर्व में निम्न और मध्यम आय वाले देशों में विश्व के जलवायु निवेश के एक बड़े हिस्से की आवश्यकता है। वर्तमान अनुमानों से यह जानकारी भी नहीं मिलती है कि जलवायु नीतियां किसी देश के विकास को कैसे प्रभावित करती हैं, और उनके प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए राजकोषीय और वित्तीय नीतियों का क्या महत्व है।
तो क्या फिर विकास-संबंधित वित्त को जलवायु वित्त माना जा सकता है, जैसे कि स्कूल बनाने के लिए इटली से अनुदान?
अध्याय में आगे एक स्पष्टीकरण दिया गया है। वैज्ञानिकों ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के लिए प्रदान किया जाने वाला फाइनेंस नया और अतिरिक्त होना चाहिए, न कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाए गए सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिए गए वित्त का ही एक भाग। जबकि केयर द्वारा हाल ही में जलवायु वित्त प्रवाहों पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि उनमें से केवल छह प्रतिशत ही ‘नया और अतिरिक्त’ वित्त था।
जहां एक ओर ‘नीति निर्माताओं के सारांश’ में संक्षेप में कहा गया है कि देश अपने सामूहिक लक्ष्यों से पीछे हैं, वहीं आईपीसीसी रिपोर्ट कहती है कि जलवायु वित्त की सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत परिभाषा न होने के कारण यह अनुमान लगाना मुश्किल है।
परिभाषा के अभाव के कारण जलवायु वित्त यानी क्लाइमेट फाइनेंस प्रवाह पर सटीक डाटा एकत्र करना असंभव है।
वर्तमान में, जलवायु वित्त प्रवाह का एकमात्र मापदंड केवल 100 बिलियन अमरीकी डालर का लक्ष्य है। लेकिन इस लक्ष्य को अपनाने के बाद से कई स्वतंत्र रिपोर्टों के अनुसार जलवायु वित्त की मात्रा बहुत अलग-अलग है।
“व्याख्या की पर्याप्त संभावनाओं” के बावजूद, क्लाइमेट फाइनेंस के लिए प्रतिबद्धताएं उन अनुमानों के आस-पास भी नहीं हैं जो वैज्ञानिकों के अनुसार वास्तव में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवश्यक हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि वित्तीय समुदाय जलवायु संबंधी वित्तीय जोखिमों को लगातार कम करके आंक रहा है, जिससे कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए आवश्यक पूंजी का पुनर्वितरण बाधित हो रहा है। जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों के बारे में बढ़ती जागरूकता के बावजूद भी निवेशक जलवायु के अनुकूल विकल्प नहीं चुनते हैं।
यूएनएफसीसीसी और आईपीसीसी द्वारा 2018 में प्रकाशित दो रिपोर्टों में अनुमान लगाया गया है कि 2020 से 2035 के बीच वैश्विक तापमान वृद्धि को क्रमशः 2 डिग्री सेल्सियस और 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए अतिरिक्त वित्त की जरुरत होगी। जबकि द्विवार्षिक आकलन का अनुमान है कि तापमान के स्तर को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए 1.75 लाख करोड़ अमरीकी डालर की आवश्यकता होगी, ग्लोबल वॉर्मिंग पर आईपीसीसी की विशेष रिपोर्ट का अनुमान है कि अकेले ऊर्जा क्षेत्र के लिए 2.4 लाख करोड़ अमरीकी डालर की आवश्यकता होगी। वास्तव में, स्वतंत्र रिपोर्टों से पता चलता है कि 2015 में शमन वित्तपोषण में 67% की कमी थी और 2017 में अकेले ऊर्जा क्षेत्र में 76% कमी थी। अन्य क्षेत्रों को शामिल करने पर यह अंतर और अधिक हो जाता है, और उनके समावेश से वैश्विक तापमान के स्तर को कम करने के लिए वित्त की आवश्यकता भी 2.4 लाख करोड़ अमरीकी डालर की राशि से तीन गुना अधिक हो जाती है।
वैज्ञानिकों ने पाया कि चूंकि जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) शब्द की व्याख्या अलग-अलग हो सकती है, मतभेद इस बात पर होते हैं कि “जलवायु” और “वित्त” के विभिन्न प्रकारों से क्या समझा जाए।
यदि शोधकर्ता जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने वाली गतिविधियों को लेकर रूढ़िवादी हैं, तो वह वित्त की मात्रा बहुत कम बताएंगे। यदि वह बाजार दरों पर दिए गए कर्ज़ को भी वित्त मानने का निर्णय लेते हैं, तो यह संख्या बहुत अधिक होगी।
आईपीसीसी की रिपोर्ट यह भी कहती है कि उचित वितरण को सुनिश्चित करने के लिए क्लाइमेट फाइनेंस प्रवाह को परिभाषित करना महत्वपूर्ण है। इसका कहना है कि उच्च विश्वास स्तर बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि देशों में प्रमुख परिभाषाओं पर जल्द से जल्द सहमति बने। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति हेतु दूसरे अंतरराष्ट्रीय लोक वित्त प्रावधान केवल अनुदान और शुद्ध वित्त प्रवाह के तहत आते हैं।
रिपोर्ट कहती है कि फाइनेंस के तहत धन का प्रकार और मात्रा इस आधार पर भिन्न होती है कि उसे निम्न में से किस चरण में मापा गया था: संकल्प, प्रतिबद्धता या वितरण। इससे निजी या लोक के रूप में वित्त का वर्गीकरण भी निर्धारित किया जा सकता है और यह भी कि इसे किस देश में मापा जा रहा है।
आईपीसीसी ने यह भी देखा कि 100 बिलियन डॉलर (1 बिलियन = 100 करोड़) के लक्ष्य पर दोनों स्वतंत्र रिपोर्टें क्या कहती हैं।
जबकि उपरोक्त ओईसीडी रिपोर्ट कहती है कि 2018 में 78.9 बिलियन अमरीकी डालर का लक्ष्य हासिल किया गया था, ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट का आंकड़ा इससे कम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऑक्सफैम रिपोर्ट ने केवल अनुदान और अनुदान समतुल्य राशि को जलवायु वित्त प्रवाह माना है।
जबकि ओईसीडी रिपोर्ट में वित्त प्रवाह का लगभग 74% हिस्सा ऋणों का था। हालांकि वैज्ञानिकों का मानना है कि पेरिस समझौते के तहत नए ढांचे से जलवायु वित्त प्रवाह की पारदर्शिता में सुधार हो सकता है, उन्होंने यह भी कहा कि 100 बिलियन अमरीकी डालर के लक्ष्य को मापने वाले विश्लेषण कम ही हैं। यहां तक कि यूएनएफसीसीसी का द्विवार्षिक आकलन भी इसका सटीक विश्लेषण नहीं करता है।
इन विवेचनों में से कितनों का उल्लेख ‘नीति निर्माताओं के सारांश’ में आया?
मिस्र में इस साल के सीओपी में जलवायु वित्त की परिभाषा का मुद्दा प्रमुखता से उठाए जाने की उम्मीद है, लेकिन सारांश में इसका कोई उल्लेख नहीं है। वास्तव में, सारांश में जलवायु वित्त का बमुश्किल तीन बार उल्लेख किया गया है, और विभिन्न देशों में जलवायु वित्त की मात्रा का कोई उल्लेख नहीं है।
वास्तव में, थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब सारांश को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तब विकसित देशों ने 100 बिलियन अमरीकी डालर के लक्ष्य को पूरा करने में उनकी विफलता के उल्लेख पर आपत्ति जताई। उन्होंने इसे आईपीसीसी का ‘राजनीतिकरण’ कहा, और इसलिए अंत में दस्तावेज़ ने इस संबंध में काफी नरम रुख अपनाया।
विकसित देश इसी प्रकार अपनी जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं को कमजोर करने के प्रयास करते रहते हैं। पिछले साल आयोजित ग्लासगो सीओपी में, विकासशील देशों द्वारा जलवायु वित्त की परिभाषा पर निर्णय लेने की सिफारिशों का विकसित देशों ने कड़ा विरोध किया था, और अंत में अपनाए गए निर्णयों में इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
इस साल जून में बॉन क्लाइमेट वार्ता के दौरान, जी 77 और वित्तीय मुद्दों पर चीन के समन्वयक ज़हीर फकीर ने कहा कि विकसित देशों के वास्तविक वित्तीय दायित्व यूएनएफसीसीसी के अनुच्छेद 4.3 में दिए गए हैं, जिसमें नए और अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों के प्रावधान पर जोर दिया गया है।
उन्होंने कहा कि जहां संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन जलवायु वित्त के ‘प्रावधान’ का उल्लेख करता है, वहीं 100 बिलियन डालर का लक्ष्य वित्त के ‘उपयोग’ के बारे में है, और दोनों के बीच का अंतर समझना महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, ‘वित्त के प्रावधान के बिना, महत्वाकांक्षा, टिपिंग पॉइंट और तत्काल जलवायु कार्रवाई जैसी शब्दावलियां कोई मायने नहीं रखती हैं’।
थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क में जलवायु परिवर्तन के वरिष्ठ शोधकर्ता इंद्रजीत बोस कहते हैं, “जलवायु वित्त की परिभाषा महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे जवाबदेही तय होती है।” “जब जलवायु वित्त की कोई परिभाषा नहीं होगी तो आप यह आकलन कैसे करेंगे कि वित्त वास्तव में आ रहा है या नहीं? विकसित देश इस ओर ध्यान नहीं देते क्योंकि यह उनके लिए फायदेमंद है।”
बोस कहते हैं कि “कई वर्षों की बातचीत के बाद, वित्त पर स्थायी समिति, जो यूएनएफसीसीसी की एक तकनीकी संस्था है, इस मामले पर चर्चा कर रही है और मिस्र में सीओपी27 में यह मुद्दा उठाए जाने की उम्मीद है।”
जलवायु वित्त की परिभाषा को लेकर आईपीसीसी की छठी आंकलन रिपोर्ट में पांचवी से कोई बदलाव क्यों नहीं हुआ, इस संबंध में उन्होंने कहा, “आईपीसीसी खुद को एक नीति प्रासंगिक संगठन कहता है, नीति निर्देशात्मक नहीं। इसलिए जलवायु वित्त क्या है, इसे परिभाषित करने में आईपीसीसी की कोई भूमिका नहीं है।”
आईपीसीसी के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 100 बिलियन डॉलर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी और प्रयास करने हैं। इसे देखते हुए भारत की 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग बहुत दूर की बात लगती है।
(मृणाली लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच में एक शोधकर्ता हैं, जो भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन संचालन का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है।)
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