लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना लेकिन जीवाश्म ईंधन की कटौती से मुकरे देश

कई उतार-चढ़ाव देखने के बाद आखिर शर्म-अल-शेख में वह एकमात्र बड़ी कामयाबी हो पाई जिसकी कोशिश विकासशील देश कई वर्षों से कर रहे थे।

बढ़ती जलवायु आपदाओं और उससे जान-माल की क्षति के बाद मिस्र में हुए इस सम्मेलन में आखिरकार हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) फंड की स्थापना हो गई। हालांकि इस फंड के इस्तेमाल और इसमें आने वाले धन और उसके बंटवारे की बारीकियां आने वाले दो साल में तय होंगी। इस फंड की स्थापना जलवायु परिवर्तन वार्ता के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जा रहा है है लेकिन इसकी कामयाबी इसके प्रभावी  क्रियान्वयन पर निर्भर है। 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव की चेतावनी

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिस ने कहा, “हानि और क्षति के लिये वित्तीय कोष का गठन आवश्यक है – लेकिन अगर जलवायु संकट के कारण एक छोटा द्वीप देश दुनिया के मानचित्र से विलुप्त हो जाता है या अगर पूरा अफ्रीका रेगिस्तान में तब्दील हो जाये तो यह फंड कोई हल नहीं है। दुनिया को क्लाइमेट एक्शन की दिशा में अभी भी एक बड़ा कदम उठाने की ज़रूरत है।”

गुट्रिस का बयान स्पष्ट रूप से अंधाधुंध उत्सर्जनों की ओर इशारा है जिन्हें लेकर दुनिया भर के जानकार और आईपीसीसी के वैज्ञानिक भी चेतावनी देते रहे हैं। छठी आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि इमीशन कम करने के लिये तमाम देशों द्वारा घोषित लक्ष्य नाकाफी हैं। सम्मेलन में यह बात स्वीकार की गई कि धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से नीचे रखना ज़रूरी है। इसके लिये साल 2030 तक दुनिया के कुल उत्सर्जनों में 43 प्रतिशत की कमी (2019 से स्तर से) की जरूरत होगी। संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने 2030 तक (2010 के स्तर के मुकाबले) 45 प्रतिशत इमीशन कट की बात कही थी। 

लम्बी लड़ाई लेकिन उत्सर्जक बेलगाम 

क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के ग्लोबल एक्सपर्ट हरजीत सिंह का कहना है कि इस फंड की स्थापना के बाद भी बहुत काम किया जाना है लेकिन यह एक कामयाबी ज़रूर है और इससे अंधाधुंध उत्सर्जन कर रहे देशों पर लगाम लगेगी क्योंकि उन्हें यह डर होगा कि जलवायु जनित विनाश करके बच नहीं सकते। 

लेकिन शर्म-अल-शेख सम्मेलन में शमन (मिटिगेशन) को लेकर कुछ हाथ नहीं आया और सभी प्रकार के जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध प्रयोग में कटौती को समझौते में लिखित रूप में शामिल नहीं किया गया जो एक बड़ा धक्का है। हालांकि एक्शन प्लान में इस बात पर जोर दिया गया कि सभी देशों को ग्रीनहाउस उत्सर्जन में तत्काल और बड़ी कटौती करने की जरूरत है। ऐसा उत्सर्जन में कमी, नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि, न्यायपूर्ण ऊर्जा संक्रमण (जस्ट ट्रांजिशन) की भागेदारियों और आपसी सहयोग के माध्यम से किया जा सकता है। 

संकटों से घिरे साल में “अफ्रीकी सम्मेलन” 

मिस्र में आयोजित इस क्लाइमेट चेंज वार्ता को एक अफ्रीकी सम्मेलन के तौर पर देखा जा रहा था। अफ्रीकी देश अभी सबसे अधिक जलवायु संकटग्रस्त देशों में हैं। इस साल भारत समेत पूरी दुनिया को अभूतपूर्व हीटवेव का सामना करना पड़ा है और पाकिस्तान में बाढ़ और अन्य जगहों पर आपदाओं  के साथ साथ रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले और ज़बरदस्त महंगाई के कारण यह सम्मेलन बड़ी विषम परिस्थितियों में हुआ। 

कॉप 27 में यह स्वीकार किया गया कि अभूतपूर्व वैश्विक ऊर्जा संकट को देखते हुए ऊर्जा प्रणालियों को तेजी से अधिक सुरक्षित, विश्वसनीय और लचीला बनाने की आवश्यकता है। इस महत्वपूर्ण दशक के दौरान नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्वच्छ और न्यायोचित परिवर्तन में गति लाना जरूरी है। शर्म-अल-शेख एक्शन प्लान में माना गया कि साल 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन हासिक करने के लिये ज़रूरी है कि अगले 8 सालों में लगभग $4 ट्रिलियन (320 लाख करोड़ रुपये) प्रति वर्ष अक्षय ऊर्जा में निवेश करने की आवश्यकता है। 

राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप ऊर्जा मिश्रण और प्रणालियों में विविधता लाने की दिशा में एक स्वच्छ ऊर्जा मिश्रण को बढ़ाने के महत्व पर बल दिया गया। कम-उत्सर्जन और नवीकरणीय ऊर्जा में बढ़ोत्तरी और न्यायोचित परिवर्तन का समर्थन करने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया। 

पूर्व चेतावनी प्रणाली को लागू करना 

कॉप-27 सम्मेलन के पहले ही विश्व मौसम संगठन द्वारा पूरी दुनिया में पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित करने हेतु 5 साल की योजना का ऐलान किया गया था। इसके लिये अगले 5 साल में 310 करोड़ डॉलर के निवेश का ऐलान किया गया। शर्म-अल-शेख में वैश्विक जलवायु अवलोकन प्रणाली में मौजूदा कमियों को दूर करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है, विशेष रूप से विकासशील देशों में। दुनिया में साठ प्रतिशत अफ्रीका सहित एक तिहाई विश्व के पास प्रारंभिक चेतावनी और जलवायु सूचना प्रणाली नहीं है। 

भारत – जिसके पास विस्तृत संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र और हज़ारों किलोमीटर लंबी समुद्र तटरेखा के साथ बड़ी आबादी संकटग्रस्त इलाकों में रहती है  – के लिये अर्ली वॉर्निंग सिस्टम काफी उपयोगी साबित हुये हैं। 

उत्तराखंड में 2021 में चमोली के तपोवन गांव में आई बाढ़ का आकलन करते हुए वैज्ञानिकों ने पाया था कि घटना के पहले वह क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय था। घटना के कारणों का जिक्र करते हुए वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में एक एकीकृत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की आवश्यकता पर बल दिया था।

इसी प्रकार 2013 में केदारनाथ में हुई भयंकर तबाही भी हिमालयी क्षेत्रों में इस चेतावनी प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित किया था। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण इस प्रकार की आपदाएं बढ़ रही हैं और इनसे होने वाले आर्थिक और जान-माल के भारी नुकसान को देखते हुए, जल्द से जल्द ऐसी प्रणाली को स्थापित करना महत्वपूर्ण है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि किस तरह चक्रवातों की प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली ने हमें बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में आनेवाले चक्रवातों के बारे में पहले से ही आगाह कर दिया था जिसके कारण ऐसे कदम उठाए जा सके जिनसे इन आपदाओं से होनेवाली भारी क्षति को टाला जा सका। इसलिए, जैसे चक्रवातों के लिए भारत के पास चेतावनी प्रणाली है वैसे ही हिमालयी क्षेत्रों में भी इसे स्थापित करने की आवश्यकता है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने 23 मार्च 2022 को विश्व मौसम विज्ञान दिवस पर कहा था कि अगले पांच वर्षों के भीतर पूरी दुनिया के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली लाकर सभी को एक्सट्रीम वेदर और जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से बचाया जाए। सम्मेलन में  उनके इस आह्वान का स्वागत किया गया और इसे दोहराया गया।

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