पर्यावरणीय स्वीकृति पत्र के अनुसार उत्तर उरीमारी परियोजना के लिए एक जन सुनवाई 2004 में की गई थी। हालांकि, लोगों को याद नहीं है कि ऐसी कोई भी जन सुनवाई हुई थी। उत्तर उरीमारी खदान का चित्र। Photo: Krithika A Dinesh

बदलते नियम और खदानों का विस्तार: जंगलों पर है किसका अधिकार?

आदिवासी बहुल होने के बाद भी बरका सयाल अपने कोयला खनन के लिए अधिक जाना जाता है। विशेष सरकारी रियायतों के कारण खनन के विस्तार के बाद यह पहचान और सुदृढ़ हो गई है — जो भारत की एक परेशान कर देने वाली वास्तविकता को दर्शाता है।

कालेश्वर मांझी द्वारा बताए रास्ते पर जैसे ही हमारी गाड़ी आगे बढ़ी, सामने एक आधा खुदा हुआ गड्ढा आ गया। उन्होंने हमें बताया था कि यह रास्ता हमें नए पोतंगा गांव की तक ले जाएगा, लेकिन वह इसी गड्ढे पर खत्म हो गया। जब हम कार पीछे कर रहे थे तो मांझी बोल पड़े, “हम यहां पैदा हुए हैं। पर अब हम ही भुला दिए गए हैं, खदान वाले रोज नया खुदाई करते हैं, फिर उन तक पहुंचने के लिए नया रास्ता बनाते हैं।”

मांझी उरीमारी गांव के निवासी हैं, जो तीन ओपनकास्ट खदानों: उरीमारी, और उत्तर उरीमारी ओपनकास्ट माइन और सयाल डी परियोजना से घिरा हुआ है।

अपने 78 साल के जीवनकाल में मांझी ने इस गांव और आस-पास के इलाके को बदलते देखा है। कोयले की खदानों का बरका सयाल नेटवर्क, साउथ करनपुरा कोलफील्ड का एक छोटा सा हिस्सा है। इसका खनन सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल) द्वारा किया जाता है, जो कोल इंडिया लिमिटेड की सहायक कंपनी है। आज, बरका सयाल क्षेत्र में तेजी से बदलाव देखा जा रहा है। हाल ही में पर्यावरणीय नियमों में दी गई ढील से यह और भी आसान हो गया है।

साल 2017 में देश में ‘कोयले की कमी’ को दूर करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने कोयला खनन परियोजनाओं को एक विशेष रियायत दी, जिसके तहत वह बिना जन सुनवाई के अपनी मूल क्षमता का 40% तक उत्पादन बढ़ा सकते थे। चूंकि इसके लिए कोई नया भूमि अधिग्रहण नहीं करना था, इसलिए माना गया कि आसपास रहने वाली आबादी पर परियोजना का प्रभाव बहुत कम होगा। उत्तर उरीमारी खदान ने भी  रियायतों की इस लहर और कोयला विस्तार की कोशिशों का खूब फायदा उठाया। जनसुनवाई के बिना ही कई बार इसकी क्षमता में विस्तार किया गया। इन गतिविधियों ने बरका सयाल क्षेत्र के आदिवासियों पर गहरा प्रभाव छोड़ा है और उनके जीवन को खतरे में डाला है। 

बरका सयाल क्षेत्र का ज्यादातर भाग झारखंड के रामगढ़ जिले के अंतर्गत आता है, बस एक छोटा सा हिस्सा हजारीबाग जिले में भी पड़ता है। इस क्षेत्र में उरांव, मुंडा, सांथाल जनजातियों और भुइया और रविदास समुदायों का निवास है। मांझी 2016 तक बिरसा/उरीमारी खदान में काम करते थे। “उन दिनों सरकारी नौकरी मिलती थी, पीढ़ियों के लिए,” उन्होंने सीसीएल की एक पुरानी योजना का जिक्र करते हुए कहा, जिसके तहत किसी सहायक कंपनी के कर्मचारी की सेवानिवृत्ति के बाद, उसके परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाती थी। 

नई खदानें इस योजना का पालन नहीं करती हैं। न्यू बिरसा/उत्तर उरीमारी में, बीजीआर माइनिंग द्वारा 2014 से आउटसोर्सिंग समझौते पर चलाई जा रही एक सीसीएल खदान में श्रमिकों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया है। जिनकी जमीनें थीं, उन्हें उनके बदले में नौकरी देने का वादा किया गया था।

इस इलाके में जब खनन की शुरुआत हुई, तो आदिवासी खुद को थोड़ा बहुत सशक्त मानते थे। हालांकि, खनन को आउटसोर्स करने के लिए जो नए अनुबंध बनाए गए, उन्होंने सशक्तिकरण की बची-खुची भावना का भी अंत कर दिया। तेजी से कोयला निकालने की हड़बड़ी ने उनके और खनन कंपनी/सरकार के बीच की दूरी को बढ़ा दिया।  

इसका ताजा उदाहरण है उरीमारी रेलवे साइडिंग का निर्माण। जिस भूमि पर साइडिंग का निर्माण किया जा रहा है, वह सीसीएल के खनन पट्टा क्षेत्र के अंतर्गत आती है। लेकिन यह भूमि आदिवासियों के घरों के बेहद करीब है। यह घर भी तब बने हैं जब 1990-91 में खदान के लिए स्थानीय लोगों ने अपने खेत और जमीनें छोड़ दी थीं। बरका सयाल एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है, लेकिन यह वनों और आदिवासियों से ज्यादा कोयला खनन के लिए जाना जाता है।

अनुपालन के बिना, खनन का विस्तार

आम तौर पर कुछ शर्तों के साथ कोयला खदानों को विस्तार करने के लिए जनसुनवाई से छूट दे दी जाती है — जैसे वह कोई अतिरिक्त भूमि अधिग्रहण नहीं करें, प्रदूषण का स्तर सीमा के अंदर रखें, सड़क के माध्यम से अतिरिक्त कोयला ढुलाई नहीं करें और परियोजना मिली मौजूदा पर्यावरणीय स्वीकृति में सूचीबद्ध सुरक्षा उपायों का संतोषजनक अनुपालन करें। 

इन शर्तों की अक्सर अनदेखी की जाती है, और उत्तर उरीमारी भी कोई अपवाद नहीं है। इस परियोजना को पहली पर्यावरणीय स्वीकृति (ईसी) 2006 में तीन मिलियन टन प्रति वर्ष (एमटीपीए) कोयला निकालने के लिए मिली थी। 2017 और 2021 के बीच, कई बार अनुरोध किया गया कि जनसुनवाई के बिना परियोजना की क्षमता में वृद्धि करने दी जाए, लेकिन अनुमति नहीं मिली। क्योंकि इसने पर्यावरणीय स्वीकृति की शर्तों का ठीक से अनुपालन नहीं किया था, जैसे खदान की सीमाओं से लगकर ग्रेन बेल्ट बनाना और ओवरबर्डन डंप को सरकने से बचाने के लिए बेंचों का निर्माण आदि।

लेकिन जनवरी 2022 में गैर-अनुपालन के इस रिकॉर्ड के बावजूद, परियोजना को (20% वृद्धि के साथ) 3.6 एमटीपीए तक विस्तार करने के लिए स्वीकृति दे दी गई। हालांकि, स्थानीय लोग अभी भी शिकायत करते हैं कि धूल से होने वाले प्रदूषण और जल स्रोतों के प्रदूषण को रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है। धूल को नियंत्रित करने के लिए पानी के छिड़काव किए जाने के बारे में पूछे जाने पर संजय टुडू ने कहा, “जब हम हल्ला करते हैं या जब कोई बाहर से आता है तो पानी छिड़कते हैं।”

हमने सीसीएल के बरका-सयाल क्षेत्र के महाप्रबंधक (खनन) अजय सिंह को ईमेल करके वन नियमों का उल्लंघन और स्थानीय लोगों द्वारा की गई शिकायतों के बारे में पूछा। हमें अभी तक उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिली है।

कोयला खनन परियोजनाओं द्वारा पर्यावरणीय स्वीकृति के आवेदनों का मूल्यांकन करने वाली विशेषज्ञ समिति (ईएसी) ने इस गैर-अनुपालन पर गौर किया। खनन क्षमता 40% बढ़ाने के अनुरोध पर विचार करते हुए समिति ने कहा, “क्षमता में और विस्तार पर समिति केवल तभी विचार करेगी जब कम से कम 75% शर्तों का पूरी तरह से पालन किया जाए…”।

लेकिन जमीन पर इस गैर-अनुपालन का गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। “धान की बाली धूल से ढकी रहती है। सिंचाई भी काले पानी से होती है,” टुडू ने दुखी होकर कहा।

आवेदन की तिथिप्रस्तावपरिणामअनुमोदन की तिथि
जून 2018ईआईए 2006 के तहत पर्यावरण स्वीकृति को पुनः वैध करने के लिए आवेदनपर्यावरण स्वीकृति को फिर से वैध किया गयानवंबर 2019
जनवरी 2022कोयला खदान के (40%) विस्तार के लिए आवेदन, 3 से 4.2 एमटीपीए तक3 से 3.6 एमटीपीए (20%) तक विस्तार के लिए ईसी दी गईफरवरी 2022
नवंबर 2022रेलवे साइडिंग पर जुलाई 2023 तक पूरा करने की शर्त में संशोधन का अनुरोधईसी में संशोधन किया गयादिसंबर 2022
जनवरी 2023कोयला खदान में 3.6 से 4.2 एमटीपीए तक विस्तार के लिए आवेदन3.6 से 4.2 एमटीपीए तक विस्तार के लिए ईसी दी गईफरवरी 2023

पर्यावरणीय स्वीकृति पत्र के अनुसार इस परियोजना के लिए एक जन सुनवाई 2004 में आयोजित की गई थी। हालांकि, लोगों को याद नहीं है कि परियोजना के लिए ऐसी कोई भी जन सुनवाई हुई थी। उन्हें कुछ और ही याद आता है।

“वह प्रोजेक्ट को उरीमारी नाम दे रहे थे। हमने कहा हमारे इलाके में प्रोजेक्ट आ रहा है तो इसका नाम हमारी पहचान पर होना चाहिए। तब प्रोजेक्ट का नाम बिरसा प्रोजेक्ट रखा,” मांझी ने कहा। वह सही थे। ज्यादातर साइन बोर्ड और खदान कार्यालयों में इन खदानों का नाम बिरसा और न्यू बिरसा बताया गया है। लेकिन माझी को यह नहीं पता कि जिन दो परियोजनाओं को स्थानीय लोग बिरसा और न्यू बिरसा के नाम से जानते हैं, आधिकारिक रिकॉर्ड में उन्हें उरीमारी और उत्तर उरीमारी परियोजना कहा जाता है। यह एक छोटा सा उदहारण है कि कैसे आदिवासियों को यह विश्वास दिलाया जाता है कि उनकी भूमि और जंगलों के उपयोग में उनकी बात सुनी जाती है। 

बिरसा खदान का डिस्प्ले बोर्ड। Photo: Meenakshi Kapoor

कोयले के उत्पादन में वृद्धि के प्रभाव

जब कोयले की खदान की क्षमता बढ़ती है तो परिवहन, कोयला प्रबंधन संयंत्र, वाशरी इकाई, और रेलवे साइडिंग की होल्डिंग क्षमता में भी वृद्धि होती है। रेलवे और कन्वेयर बेल्ट को कोयला परिवहन के ‘पर्यावरण के अनुकूल’ तरीके माना जाता है। हालांकि, यह केवल आधा सच है। साइडिंग का उपयोग आम तौर पर खाद्यान्न, चीनी, कागज, लकड़ी, उर्वरक और खनिज आदि की ढुलाई के लिए किया जाता है। 

कोयले जैसे खनिजों की ढुलाई के लिए कुछ एहतियाती कदम आवश्यक होते हैं, जैसे: साइडिंग की जगह का सावधानीपूर्वक चयन, साइडिंग क्षेत्र के बाहर अपवाह की रोकथाम, और वायु प्रदूषण की रोकथाम के उपाय, जैसे कि पानी का छिड़काव और लोड को कवर करना आदि। इन प्रभावों को स्वीकार करते हुए, 2015 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने रेलवे साइडिंग के निर्माण और संचालन के लिए दिशानिर्देश जारी किए थे। हालांकि, यह दिशानिर्देश कानूनी रूप से बाध्य नहीं हैं और सीसीएल इनका पूरी तरह पालन करने में अबतक विफल रही है

इसके अलावा, इस परियोजना ने वन संरक्षण अधिनियम 1980 का भी उल्लंघन किया है, जिसके तहत वन भूमि के किसी भी दूसरे उद्देश्य के उपयोग से पहले अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। उत्तर उरीमारी रेलवे साइडिंग के निर्माण के लिए लगभग 11.11 हेक्टेयर वन भूमि की आवश्यकता थी। यह भूमि सीसीएल को मिले तीन ओपनकास्ट खदानों के पट्टों के अंतर्गत आती है। 

बताया जा रहा है कि साइडिंग का निर्माण तेजी से चल रहा है, लेकिन वन विभाग की स्वीकृति मिलनी अभी बाकी है

जनवरी 2022 और 2023 के बीच, सीसीएल ने ईएसी से कहा कि साइडिंग का काम 75 से 80 प्रतिशत तक पूरा हो गया है, जबकि फारेस्ट क्लीयरेंस प्राप्त करने की प्रक्रिया जारी है। लेकिन स्वीकृति के लिए सीसीएल के आवेदन पर करीब से नजर डालें तो पता चलता है कि कंपनी ने माना कि रेलवे साइडिंग का निर्माण वन संरक्षण अधिनियम का ‘उल्लंघन’ था।

यदि किसी परियोजना में फारेस्ट क्लीयरेंस से पहले भूमि का उपयोग अथवा नई या विस्तारित परियोजनाओं का निर्माण या संचालन शुरू होता है तो इसे नियमों का ‘उल्लंघन’ माना जाता है। लेकिन पर्यावरणीय और तटीय स्वीकृति के साथ-साथ वन संबंधी स्वीकृति के बिना भी काम शुरू करने पर परियोजनाओं को माफी मिलती रही है। उत्तर उरीमारी के मामले में स्थानीय लोगों का कहना है कि कंपनी ने फारेस्ट क्लीयरेंस के बिना ही रेलवे साइडिंग का निर्माण शुरू कर दिया।

रेलवे साइडिंग निर्माण क्षेत्र। Photo: Krithika A Dinesh

वन अधिकार अधिनियम, वन भूमि का उपयोग बदलने के लिए मात्र एक औपचारिकता

2006 का वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) पारंपरिक वनवासियों और वनों पर निर्भर लोगों के उन पर अधिकार को मान्यता देता है। 2009 में एक कार्यालय ज्ञापन के माध्यम से, तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने वन भूमि के किसी अन्य उद्देश्य से उपयोग (फारेस्ट डायवर्जन) के पहले वन अधिकारों का ‘सेटेलमेंट’ अनिवार्य कर दिया था। हालांकि, संबंधित ग्राम सभा से एफआरए प्रक्रिया के पूरा होने और परियोजना के लिए जनता की सहमति की पुष्टि करने वाला पत्र अंतिम वन स्वीकृति से पहले ही चाहिए होता है। 

फारेस्ट क्लीयरेंस दो चरणों में दिया जाता है: चरण 1 या सैद्धांतिक रूप से अनुमोदन और चरण 2 या अंतिम अनुमोदन, इस समय तक चरण 1 पर लगाई गई सभी शर्तों को पूरा करना आवश्यक होता है। हालांकि चरण 1 की शर्तों में एफआरए का अनुपालन शामिल नहीं है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने पर्यावरण मंत्रालय को इस बारे में चेतावनी दी थी। 

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने कहा, “एमओईएफसीसी ने कहा है कि फारेस्ट क्लीयरेंस के चरण II में परियोजना प्रस्तावक को यह (एफआरए स्वीकृति) प्राप्त करना जरूरी होगा, एमओटीए का विचार है कि फिर इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा … यह देखा गया है कि कई बार एफआरए स्वीकृति के लिए आवेदन अंतिम क्षणों में किया जाता है और बिना अधिकारों के निर्धारण के परियोजना को फारेस्ट डायवर्जन की अनुमति दे दी जाती है…” मंत्रालय ने सिफारिश की कि एफआरए स्वीकृति प्रक्रिया शुरू करने का प्रमाण एफसीए स्वीकृति के पहले चरण में ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए। लेकिन फारेस्ट क्लीयरेंस प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं हुए। 

चित्रांगदा चौधरी और अनिकेत आगा ने अपने पेपर, ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट: माइनिंग, ब्यूरोक्रेटिक सबोटाज एंड द फॉरेस्ट राइट्स एक्ट इन इंडिया‘ में यह तर्क दिया है कि ग्राम सभा से सहमति प्राप्त करने की प्रक्रिया में प्रस्तावित फारेस्ट डायवर्जन पर कोई वास्तविक संवाद नहीं हो पाता क्योंकि यह कमजोर और ताकतवर के बीच होनेवाला समझौता है। उत्तर उरीमारी रेलवे साइडिंग इसका एक उदाहरण है।

जबकि सीसीएल ने फारेस्ट क्लीयरेंस के लिए आवेदन 2019 में किया था, ग्राम सभा को 2021 में सूचित किया गया। और अगस्त 2021 तक वन अधिकार अधिनियम के तहत अधिकारों की पहचान और निर्धारण पूरा हो चुका था। हालांकि स्थानीय लोगों की नजर में यह प्रक्रिया संदिग्ध थी। 2021 में उरीमारी साइडिंग का नोटिस आया था। जन सुनवाई हुई पर केवल खानापूर्ति की गई। हम गए थे, कुछ लोगों ने हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला तो वापस चले आए,” शंकर कुमार भुइया ने अनुमंडल स्तरीय वन अधिकार समिति की 2021 की बैठक का अनुभव साझा करते हुए कहा।  

बैठक के बाद जिला स्तरीय वन अधिकार समिति की एक ऑनलाइन बैठक हुई, जिसने परियोजना को स्वीकृति दे दी। भुइया को शक है कि पंचायत और वन अधिकार समिति के कुछ सदस्य कंपनी की तरफ हैं। इस साल जनवरी में अंचल अधिकारी ने वन अधिकार अधिनियम के तहत अंतिम सहमति के लिए ग्राम सभा का आयोजन किया था। उसके बाद और अप्रैल में भी आदिवासियों ने बेरोजगारी और आगामी साइडिंग से प्रदूषण के मुद्दों को उठाते हुए अंचल अधिकारी को पत्र लिख कर अपनी मांगों को रखा। “बैठक सौहार्दपूर्ण रही। इस तरह की बैठकों की अध्यक्षता कंपनी के एक अधिकारी द्वारा की जाती है, जो आम तौर पर एक आदिवासी होते हैं, ताकि सभा का संचालन सुचारू रूप से किया जा सके,” झारखंड के एक कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया।

आदिवासियों के पास कोई विकल्प नहीं

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने अपने नोट में फारेस्ट क्लीयरेंस प्रक्रिया की खामियों को दर्शाने के लिए ‘फेट एकोमप्ली’ वाक्यांश का प्रयोग किया था। यहां पर इसका अर्थ है कि परियोजना के भविष्य का निर्णय उससे प्रभावित होने वाले लोगों को सुनने से पहले ही लिया जा चुका है, और उनके पास उसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो लोग सबसे अधिक प्रभावित होने वाले हैं उनके साथ ही जोर-जबरदस्ती की जाती है, और उनके पास अपनी स्थिति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता है। 

उत्तर उरीमारी एक बेहतरीन उदहारण है कि कैसे एक नियम को कमजोर करने से दूसरा भी प्रभावित होता है, जिससे आदिवासियों के अधिकार और इन परियोजनाओं के पास रहने वालों के लिए सुरक्षित वातावरण के अधिकार भी कमजोर होते हैं। इस मामले में दो बार उपरोक्त ‘फेट एकोमप्ली’ की स्थिति पैदा होती है: एक, जब डायवर्जन के लिए वन अधिकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया देर से शुरू होती है। दूसरा, जब एक कानून में रियायत की शर्त किसी अन्य कानून के तहत परियोजना के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन को प्रभावित करती है। खदान के विस्तार के लिए जन सुनवाई से छूट की रियायत ने रेलवे साइडिंग का मार्ग प्रशस्त किया, जो बरका-सयाल के आदिवासियों के लिए एक ऐसी वास्तविकता बन गई जिसे स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा। जब उन्हें अहसास हो गया कि रेलवे साइडिंग को बनने से नहीं रोका जा सकता तो स्थानीय लोगों ने अपनी मांग में परिवर्तन किया। जो पहले चाहते थे कि रेलवे साइडिंग बने ही न, अब मांग कर रहे हैं कि साइडिंग से प्रदूषण न हो और उनका जीवन जोखिम में न पड़े। “हमने कहा कि साइडिंग यहां पर नहीं बनाए, पर उन्होंने कहा कि साइडिंग हमारी ही जमीन पर बनेगी। तो अब हम प्रदूषण और हाई वोल्टेज की तारों से बचना चाहते हैं,” मांझी ने कहा। 

उत्तर उरीमारी अपनी तरह का एकलौता उदाहरण नहीं है। एक-एक करके एफआरए और एफसीए के प्रावधानों को पिछले कुछ दशकों में इस हद तक कमजोर कर दिया गया है कि अब वह उन्हीं के अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ हैं जिनके लिए उन्हें बनाया गया था, यानि जनजातीय और वनों पर निर्भर समुदाय और जंगल। सरकार की हालिया अधिसूचनाएं इस बात के पर्याप्त प्रमाण देती हैं कि यह प्रक्रिया जारी रहने की संभावना है। हाल के वर्षों में ‘कोयले की कमी’ और ऊर्जा संसाधनों के मामले में स्वतंत्र होने की महत्वाकांक्षा के कारण, सड़क और रेलवे लाइनों के विस्तार सहित, गैर-वानिकी उद्देश्यों हेतु वन भूमि के उपयोग के लिए अभूतपूर्व स्तर की छूट दी गई है। दरअसल, भविष्य में नीलाम की जाने वाली कोयला खदानों की ताजा सूची में ऐसे ब्लॉक भी हैं जो घने जंगलों के भीतर हैं। कोयले के साथ-साथ अब अन्य खनिजों के भी खनन और ढुलाई के काम में यही प्रक्रिया अपनाए जाने की उम्मीद है, जिससे जनजातीय लोगों के अधिकार और पर्यावरण संरक्षण दोनों खतरे में पड़ सकते हैं। इसी तरह की चिंताएं पर्यावरण और वन संरक्षण को लेकर भी हैं, जो वन संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों के माध्यम से कमजोर पड़ सकते हैं।

भारत अब “हरित विकास” की यात्रा की शुरुआत कर रहा है। चारों ओर यही चर्चा है कि एक नई ऊर्जा अर्थव्यवस्था भारत के आर्थिक विकास को कैसे आगे बढ़ाएगी। लेकिन इससे प्रभावित समुदायों के अधिकार या पर्यावरण संरक्षण पर कोई चर्चा नहीं हो रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या “अमृत काल” और “हरित विकास” के विज़न से विकास की आड़ में किए गए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारा जा सकता है? या फिर वन-आश्रित समुदायों के साथ यह प्रशासनिक अन्याय जारी रहेंगे? क्या उन्हें ऐसी हालत में छोड़ दिया जाएगा जहां उनके पास अपनी स्थिति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प न बचे?

अतिरिक्त इनपुट श्रीशान वेंकटेश ने प्रदान किए।

पर्यावरणीय निर्णयों में जनता की भागीदारी पर अध्ययन के एक भाग के रूप में इस स्टोरी को इंटरनेशनल सेंटर फॉर नॉट-फॉर-प्रॉफिट लॉ द्वारा समर्थित किया गया है।

(इस स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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