साफ ऊर्जा क्षमता को बढ़ाने और ई-मोबिलिटी जैसे विकल्पों पर ज़ोर देने के लिये ज़रूरी है कि लीथियम और ग्रेफाइट जैसी धातुओं का उत्पादन 2050 तक 500% बढ़े। “मिनरल्स फॉर क्लाइमेट एक्शन” नाम से छपी यह रिपोर्ट कहती है कि पेरिस समझौते के लक्ष्य को पूरा करने के लिय ऐसी धातुओं का 300 करोड़ टन खनन करना होगा।
यह भी एक चिन्ता का विषय है कि यह सभी खनिज वहां हैं जहां दुनिया की सबसे गरीब आबादी रहती है और अंधाधुंध खनन से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ सकता है।
BMW का हाइड्रोजन फ्यूल सेल पर निवेश जारी, VW ने बैटरी फैक्ट्री में लगाये 45 करोड़ यूरो
BMW ग्रुप ने ऐलान किया है कि वह 2025 तक नये प्रोडक्ट्स में 3000 करोड़ यूरो का निवेश करेगा। बैटरी वाहनों के अलावा कंपनी हाइड्रोजन फ्यूल सेल में भी निवेश करेगी जिसके प्रोटोटाइप 2015 से विकसित कर किये जा रहे हैं। हालांकि इस टेक्नोलॉजी के बेहद महंगे होने के कारण टेस्ला और फोक्सवेगन जैसी कंपनियां इसे निरर्थक बता रही हैं। उधर फोक्सवेगन ने कहा है कि वह इसके बजाय बैटरी वाहन के कारखाने में 45 करोड़ यूरो का निवेश करेगी जो जर्मनी में उसके Northvolt Zwei प्लांट के साथ लग रहा है। इसमें 2024 से काम शुरू हो जायेगा। उधर जर्मनी की डेमलर एजी ने भी बैटरी वाहनों पर संकल्प को यह कहकर दोहराया है कि उनके इरादों पर नहीं कोरोना का कोई असर नहीं पड़ेगा।
वायरलेस चार्जिंग टेक्नोलॉजी में कामयाबी का दावा
अमेरिकी की स्टेन्फर्ड यूनिवर्सिटी ने घोषणा की है कि उसे बैटरी वाहनों के लिये वायरलेस चार्जिंग टेक्नोलॉजी में कामयाबी मिली है। स्टेन्फर्ड के ताज़ा अध्ययन के मुताबिक इस तकनीक में जो एम्प्लीफायर इस्तेमाल हो रहा है वह दो से तीन फीट के दायरे में 10 वॉट तक पावर कुछ ही मिलीसेंकेंड्स के भीतर भेज सकता है। अभी तो यह टेक्नोलॉजी किसी छोटी इलेक्ट्रोनिक डिवाइस की चार्ज़िंग में काम आ रही है लेकिन जब इसे विकसित किया जायेगा तो यह बिना केबल के बैटरी वाहनों को चार्ज करने में काम आ सकती है। अगर यह तकनीक कामयाब हुई तो न केवल बैटरी का आकार छोटा हो सकेगा बल्कि एक बार चार्जिंग से कार अधिक दूरी तक जा सकेगी। ऐसी टेक्नोलॉजी अलग अलग रूप में दुनिया के दूसरे देश टेस्ट कर रहे हैं जिनमें स्वीडन एक देश है जो 2018 से प्रयोग में लगा है।
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