आईपीसीसी के मुताबिक धरती को बचाने के लिए 2030 तक 2010 के स्तर पर उत्सर्जन में 45% कटौती ज़रूरी है।

रिपोर्ट कार्ड: दीर्घकालीन जलवायु लक्ष्य हासिल करने में दुनिया फेल

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के  फ्रेमवर्क कन्वेंशन यानी (यूएनएफसीसीसी) के मुताबिक सदी के अंत तक धरती की तापमान वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रखने के दीर्घकालीन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दुनिया के देशों के वर्तमान कदम पर्याप्त नहीं हैं। यूएनएफसीसीसी का यह आकलन क्लाइमेट एक्शन पर दुनिया भर की सरकारों का रिपोर्ट कार्ड है होता है जिसे ग्लोबल स्टॉकटेक यानी जीएसटी कहा जाता है। कन्वेंशन की रिपोर्ट 2022 और 23 में दुनिया की तमाम सरकारों, एनजीओ संगठनों, वैज्ञानिकों और संयुक्त राष्ट्र की बाडीज़ के बीच 250 घंटों से अधिक की वार्ता का निचोड़ है जिसमें वैज्ञानिक आंकड़ों और तथ्यों का गहन विश्लेषण किया गया। 

हालांकि यूएनएफसीसीसी का आकलन ये मानता है कि 2015 में हुई पेरिस संधि के बाद जो राष्ट्रीय संकल्प यानी एनडीसी सभी देशों ने बनाए उससे एक्शन की दिशा में एक कदम बढ़ा लेकिन धरती को बचाने के लिए जो किया जाना चाहिए उस महत्वपूर्ण बदलाव के समय तेज़ी से खत्म हो रहा है।    

आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक धरती को बचाने के लिए 2030 तक 2010 के स्तर पर उत्सर्जन में 45% कटौती ज़रूरी है, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। जी-20 देशों ने दिल्ली में हुए सम्मेलन में माना कि 2030 तक वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2019 के स्तर  होने वाले उत्सर्जन से 43% करना ज़रूरी है। लेकिन सरकारों की कथनी और करनी में भारी अंतर है और यूएन का यह आकलन बताता है कि 2050 तक अगर दुनिया को नेट-ज़ीरो हासिल करना है तो बड़े आपातकालीन कदम उठाने होंगे।  इसमें जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को फेज़ आउट करने की सलाह दी गई है और कहा गया है कि 2030 तक इस कारण जितनी नौकरियां जाएंगी उससे 3.5 गुना जॉब पैदा होंगे। इस साल के अंत में हो रहे जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन की कामयाबी इसी बात से आंकी जाएगी की सरकार जीएसटी की सिफारिशों और चेतावनियों पर कितना अमल करती हैं। 

मौजूदा क्लाइमेट नीतियां पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाने के लिए नाकाफी: लैंसेट

उच्च आयवर्ग वाले देशों में “ग्रीन ग्रोथ” के जो भी प्रयास किए जा रहे हैं उनसे इमीशन में वह कटौती हासिल नहीं होगी जो पेरिस नीति के तहत किए गए जलवायु लक्ष्यों और न्यायपूर्ण सिद्धांत के लिए ज़रूरी हैं। यह बात प्रतिष्ठित हेल्थ जर्नल लांसेट में प्रकाशित हुई एक स्टडी में कही गई है। इस अध्ययन के मुताबिक अगर वर्तमान ट्रेंड जारी रहते हैं तो उन 11 देशों — जिन्होंने अपने जीडीपी बढ़ाते हुए अपना कार्बन इमीशन कम करना शुरू किया है — को भी इमीशन को शून्य करने में 200 साल लग जाएंगे। 

स्टडी में जिन 11 देशों पर शोध किया गया वे हैं ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, कनाडा, बेल्जियम, जर्मनी, डेनमार्क, फ्रांस, लक्समबर्ग, नीदरलैंड, स्वीडन और यूके। ये देश कार्बन बजट में अपने जायज़ हिस्से से 27 गुना अधिक ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित करेंगे। धरती पर विनाशकारी जलवायु आपदाएं रोकने के लिए उसकी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से नीचे रखना ज़रूरी है जिसके लिए कुल उत्सर्जन इस कार्बन बजट के भीतर ही रहना चाहिए। शोधकर्ताओं का कहना है कि अमीर देशों में आर्थिक तरक्की की कोशिशें उन जलवायु लक्ष्यों और नीतियों से मेल नहीं खातीं जिन्हें लेकर सभी देशों ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सहमति जताई। 

वन संरक्षण (संशोधन) क़ानून के खिलाफ नागालैंड विधानसभा ने पास किया प्रस्ताव

नागालैंड विधानसभा ने संविधान के आर्टिकल 371 (ए) के तहत विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है जिससे संसद में पास किये गये वन संरक्षण (संशोधन) क़ानून के बदलाव राज्य पर लागू नहीं होंगे। महत्वपूर्ण है कि संविधान के अनुच्छेद 6 के तहत नागालैंड के आदिवासियों और उनके रीति रिवाजों को संरक्षण दिया गया है। मिज़ोरम के बाद नागालैंड दूसरा राज्य बन गया है जिसने अपनी विधानसभा में यह प्रस्ताव पारित किया है जो संसद द्वारा क़ानून में किये गये संशोधन के खिलाफ है। 

सरकार ने संशोधित क़ानून को पिछली 4 अगस्त को नोटिफाइ किया ज़मीन और संसाधनों के बारे में व्याख्या करता है। क़ानून में जंगल का परिभाषा में किये बदलावों को लेकर विवाद हैं। नागालैंड विधानसभा में पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि इससे ज़मीन और संसाधनों पर आदिवासियों के पारम्परिक स्वामित्व और उपयोग के अधिकारों पर हमला होगा। 

भूमि क्षरण से नष्ट हुआ मध्य एशिया जितना बड़ा भूभाग: यूएनसीसीडी

संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा जारी नवीनतम अनुमानों के अनुसार, साल 2015 से मध्य एशिया के आकार की स्वस्थ और उपजाऊ भूमि का क्षरण हो गया है। इससे विश्व स्तर पर खाद्य और जल सुरक्षा प्रभावित हो रही है और 130 करोड़ लोगों के जीवन पर सीधा असर पड़ रहा है।

यूएनसीसीडी का अनुमान है कि 2015 से 2019 के बीच हर साल कम से कम 100 मिलियन हेक्टेयर स्वस्थ और उपजाऊ भूमि नष्ट हुई। कुल मिलाकर इन चार सालों में 420 मिलियन हेक्टेयर (4.2 मिलियन वर्ग किलोमीटर) भूमि का क्षरण हो गया, जो पांच मध्य एशियाई देशों — कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान — के संयुक्त क्षेत्रफल से थोड़ा अधिक है।

यूएनसीसीडी ने कहा है कि यदि भूमि क्षरण की मौजूदा गति जारी रहती है, तो 2030 तक ‘लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रल’ (यानि जितनी भूमि का क्षरण हो उतनी ही बहाल हो) होने के लिए दुनिया को 1.5 बिलियन हेक्टेयर भूमि को बहाल करना आवश्यक होगा।’

हाल ही में जी-20 देशों ने अपने घोषणापत्र में 2040 तक भूमि क्षरण को 50% तक कम करने के लक्ष्य का समर्थन किया है।

विकसित देशों ने $100 बिलियन क्लाइमेट फाइनेंस के वादे को इस साल पूरा करने का दिया आश्वासन

दिल्ली में संपन्न जी-20 शिखर सम्मलेन में विकसित देशों ने संयुक्त रूप से साल 2020 से 2025 तक सालाना 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने उम्मीद जताई है कि 2023 में पहली बार यह लक्ष्य पूरा होगा।

सम्मलेन के घोषणापत्र में कहा गया कि विकासशील देशों को 2030 से पहले अपनी राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए 5.9 ट्रिलियन डॉलर के क्लाइमेट फाइनेंस की आवश्यकता होगी। यदि विकासशील देशों को 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करना है तो उन्हें 2030 तक स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए सालाना लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी। विकसित देशों ने इस उद्देश्य के लिए निवेश और क्लाइमेट फाइनेंस में पर्याप्त वृद्धि करने की बात भी स्वीकार की है।
साथ ही, जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील विकासशील देशों की सहायता के लिए कॉप27 में जिस लॉस एंड डैमेज फंड को मंजूरी दी गई थी, उसे भी सफलतापूर्वक लागू करने की दिशा में काम करने की बात की गई है।

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