मुद्दा गंभीर पर चर्चा नहीं : रिसर्च बताती है कि क्लाइमेट चेंज के भारी ख़तरे के बावजूद संसद में इस विषय पर बहुत कम चर्चा होती है।

संसद में जलवायु परिवर्तन की बहुत कम होती है चर्चा

भारत भले ही जलवायु परिवर्तन से सबसे संकटग्रस्त देशों में हो लेकिन यहां की संसद में इस ज्वलंत मुद्दे पर बहुत ही कम चर्चा होती है। इस विषय पर हुई एक रिसर्च से पता चला है कि 1999 से 2019 के बीच पूछे गये संसदीय सवालों में केवल 0.3% ही जलवायु परिवर्तन पर थे। यह हैरान करने वाली बात है क्योंकि देश में किसी भी तरह की समस्या के लिये अक्सर सरकारें एक्सट्रीम वेदर या क्लाइमेट चेंज पर ज़िम्मेदारी डालते हैं लेकिन इन बीस सालों में संसद में कुल 895 ही ऐसे सवाल पूछे गये जिनका रिश्ता  जलवायु परिवर्तन से था। यह कुल संसदीय प्रश्नों के आधे प्रतिशत (0.3%) से भी कम है। 

वेबसाइट मोंगाबे इंडिया में इस विषय पर लिखी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में करोड़ों गरीब लोग जलवायु परिवर्तन के हिसाब से संकटग्रस्त क्षेत्रों में रहते हैं फिर भी यहां क्लाइमेट जस्टिस और एडाप्टेशन के लेकर विमर्श न के बराबर है। जलवायु परिवर्तन चुनावी मुद्दा भी नहीं बनता जो कि चिन्ता विषय है। 

ग्लोबल वार्मिंग पर अपने राष्ट्रीय लक्ष्य पर समय सीमा से आगे है भारत

केंद्र सरकार का कहना है कि भारत ग्लोबल वॉर्मिंग पर तय अपने निर्धारित राष्ट्रीय लक्ष्य (एनडीसी) हासिल करने की  प्रक्रिया में समय से आगे चल रहा है। पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने बुधवार को कहा कि भारत 23 सितंबर से पहले संयुक्त राष्ट्र में अपने तय लक्ष्यों की प्रगति की रिपोर्ट जमा कर देगा। सभी देशों को इस तारीख तक अपने तय राष्ट्रीय लक्ष्यों की रिपोर्ट जमा करनी है। यह लक्ष्य 2015 में पेरिस डील के तहत तय हुये हैं जिन्हें सभी देश समय समय पर अपडेट करते हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के पैनल (यूएनएफसीसीसी) में इन रिपोर्ट्स के जमा होने के बाद साल के अंत में होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में सचिवालय द्वारा रिपोर्ट प्रकाशित की जायेगी जिसमें सभी एनडीसी का विश्लेषण होगा।

इस विश्लेषण से ही यह तय होता है कि साल के अंत तक धरती की तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक रोकने और 1.5 डिग्री के आसपास सीमित करने की दिशा में क्या तरक्की हुई है। अब तक की रिपोर्ट्स के हिसाब से तमाम देशों के प्रयास इस दिशा में नाकाफी ही हैं। 

मराठवाड़ा में 8 महीनों में 600 किसानों की गई जान, एक्सट्रीम वेदर या कमज़ोर सरकारी नीति ?

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में 8 महीनों में कुल 600 किसानों की जान जाने से यह सवाल मुखर हो गया है कि वहां कृषि कितनी बदहाल है। डाउन टु अर्थ में छपी ख़बर के मुताबिक साल 2021 के 12 महीनों में औरंगाबाद ज़िले (जो की मराठवाड़ा का अधिकांश हिस्सा है) में 800 किसानों की मौत हुई। इस साल जनवरी से जुलाई के बीच में ही 547 किसान मरे। किसानों की आत्महत्या के पीछे पहले सूखा और फिर बेइंतहा बारिश से हुई फसल बर्बादी को वजह बताया जा रहा है। इससे लाखों हेक्टेयर में तूर, मक्का, सोयाबीन, कपास और केले की फसल चौपट हो गई। 

हालांकि सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किसानों की आत्महत्या के लिये एक्सट्रीम वेदर के बजाय सरकार की नीतियों को दोषी ठहराया है। कृषि से जुड़े एक्टिविस्ट्स ने डाउन टु अर्थ को कहा कि सरकार जिस भाव में उपज खरीदने की बात करती है उससे काफी कम कीमत देती है और बैंक भी किसानों को समय पर कर्ज नहीं देते।   

क्लाइमेट एक्शन पर सहयोग की अमेरिकी पेशकश पर चीन का ठंडा रुख 

चीन ने मंगलवार को अमेरिका की पेशकश ठुकरा दी जिसमें बाइडेन सरकार ने क्लाइमेट पर सहयोग करने और वार्ता को शुरू करने की पेशकश की थी। चीन ने क्लाइमेट फाइनेंस पर अमेरिका के रुख की आलोचना की और कहा कि बाइडेन सरकार चीन के सोलर पैनलों पर लगे प्रतिबंध को हटाये। 

अमेरिका की सीनेटर नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद चीन ने इसी महीने क्लाइमेट वर्किंग ग्रुप की बैठक को रद्द कर दिया था। ताइवान में स्वायत्ता और लोकतंत्र के बावजूद चीन उसे अपना हिस्सा मानता है।  

क्लाइमेट से जुड़ा कानून पास करने के बाद चीन में अमेरिकी राजदूत निकोलस बर्न ने क्लाइमेट प्रयासों पर अपने देश की पीठ थपथपाते हुये कहा कि चीन को कुछ ऐसा ही करना चाहिये और अमेरिका के साथ रुकी बातचीत को शुरु करना चाहिये। इस पर चीन ने बहुत ही ठंडा रुख दिखाते हुये बस यही कहा कि “हमें सुनकर अच्छा लगा लेकिन देखने की बात होगी कि क्या अमेरिका जो कह रहा है वह कर सकता है।”

महत्वपूर्ण है कि चीन और अमेरिका अभी दुनिया के दो सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जन देश हैं और इनके कुल इमीशन दुनिया के सालाना इमीशन के 40 प्रतिशत से अधिक होते हैं। 

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