धनबाद के जहाजटांड गांव के खेतों में कोयला डंप करने के बाद बनी पहाड़ी, जहां ग्रामीण कोयला चुनने आते हैं। Photo: Varsha Singh

क्या भविष्य की नौकरियों के लिए तैयार हैं कोयला समृद्ध क्षेत्रों के युवा

झारखंड देश को ऊर्जा और खनिज देने वाले राज्यों में अग्रणी है, लेकिन आज यहां की युवा पीढ़ी अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद है।

कोयला प्रचुर पहाड़ियों से गुजरते हुए दिन में धुंध और घुटन महसूस होती है। रात के अंधेरे में इन पहाड़ियों से निकली आग की लपटें दूर से देखी जा सकती हैं। झारखंड के धनबाद जिले के भौंरा कोयला खदान के नजदीक जहाजटांड गांव के लिए रास्ता यहीं से गुजरता है। 

पच्चीस साल के खेमलाल महतो कोयले की खुली खदानों से होने वाले प्रदूषण को समझाते हैं। खनन के कारण गांव के रास्ते बदलने पड़ रहे हैं और खेतों को घेरबाड़ कर उन पर कब्ज़ा कर लिया गया है। जहां कभी खेत था वहां कोयले के पहाड़ खड़े हैं। इस रास्ते पर महिलाएं अपने सिर पर और पुरुष साइकिल पर कोयला ढोते दिखते हैं। 

खेमलाल की दादी कोयला श्रमिक थीं। 70 के दशक में कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ तो दादी की जगह पिता को भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) में नौकरी मिली। जिसके चलते खेमलाल और उनके दो भाइयों को अच्छी शिक्षा हासिल करने का अवसर मिला।  

बीकॉम ऑनर्स करने के बाद खेमलाल ने पार्ट टाइम नौकरी पकड़ी और उसके साथ वह मैनेजमैंट कॉलेज में एडमिशन की तैयारी करने लगे। वह कहते हैं, “वर्ष 2019 में  बीसीसीएल ने मेरे गांव की ओर जाने वाली सड़क को अवरुद्ध कर दिया। जिससे लोगों को असुविधा होने लगी। कंपनी के पास ताकत और राजनीतिक प्रभाव था। कम पढे-लिखे होने के चलते गांव के लोग कुछ बोल नहीं पा रहे थे। अपने गांव को बचाने के लिए मैंने पढ़ाई-करियर सब छोड दिया और गांव लौटकर आंदोलन शुरू किया। जब रास्ता ही नहीं होगा तो यहां शिक्षा, स्वास्थ्य सब कुछ प्रभावित होगा”।

झारखंड के मूल निवासियों के हक के लिए संघर्ष कर रहे युवा खेमलाल महतो। Photo: Varsha Singh

धनबाद में बीसीसीएल की भौंरा दक्षिण कोलियरी क्षेत्र के जहाजटांड गांव के ग्रामीणों ने वर्ष 2021 में 4 महीने से अधिक समय तक धरना प्रदर्शन किया। यह मुद्दा केवल उनके गांव तक सीमित नहीं था इसलिए दूसरे गांवों के लोग भी उनसे जुड़ गए। 

“हमारी मुख्य मांग यही है कि हमें यहां के मूल माटी का अधिकार दीजिए। हम यहां के रैयत (मूल निवासी) हैं। हमारी जमीनें ली हैं तो मुआवजा दीजिए। रोजगार दीजिए। कंपनी यहां के लोगों को उनकी जमीन का मुआवजा देती तो यहां कोई गरीब रह ही नहीं जाता”। 

प्रचुर संसाधन पर युवा बेहाल 

झारखंड देश को ऊर्जा और खनिज देने वाले राज्यों में अग्रणी है लेकिन आज यहां की युवा पीढ़ी अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद है। साक्षरता, रोजगार, गरीबी और स्वास्थ्य सेवा मानकों और सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में झारखंड पिछड़ा हुआ है। यहां पूरे देश में शिक्षा का स्तर सबसे निचला है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है। दो से तीन हजार रुपए की मासिक आय पर गुजारा करने वाले परिवारों के युवा महंगी शिक्षा का खर्च वहन नहीं कर सकते।

इसी गांव की पिंकी कुमारी सिर्फ 23 साल की हैं और उनके पति बेराज़गार हैं। पिंकी ने स्नातक किया है लेकिन वह परिवार के गुज़ारे के लिए कोयला चुनने को मजबूर हैं। 

वह बताती हैं, “बच्चे का खर्च, खाना-पीना, पढ़ाई सबमें दिक्कत होती है। बीसीसीएल हमें कोई पैसा नहीं देती। जबकि हमारी जमीन से करोडों का कोयला निकल रहा है”।  

तस्वीर में दाईं तरफ बैठीं पिंकी कुमारी हिंदी ऑनर्स से ग्रेजुएट हैं और कोयला चुनती हैं। Photo: Varsha Singh

झारखंड भारत के उन राज्यों में है जहां सबसे अधिक बेरोज़गारी है। साल 2021 में राज्य सरकार ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में माना कि कोविड के दौरान दो सालों में बेरोज़गारों की संख्या 6 गुना बढ़ गई। सरकार ने जो आंकड़े दिए उसके हिसाब से तब रोज़गार कार्यालयों में पंजीकृत युवाओं की संख्या 6.45 लाख थी। भारतीय अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाली सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के ऑंकड़ों के मुताबिक करीब 17.5% की बेरोज़गारी दर के साथ झारखंड देश के उन 6 राज्यों में है जिनकी हालात रोज़गार के मामले में सबसे अधिक ख़राब है। 

बीसीसीएल की कुसुंडा कोलियरी से लगी गोधरपुर बस्ती के युवा भी रोज़गार के मुद्दे पर आक्रोशित हैं। 23 साल के दिलीप महतो कहते हैं, “हम नौकरी की मांग कई बार कर चुके हैं। कंपनी और प्रशासन को पत्र लिखे। गांव के कई लड़कों पर कोयला चोरी जैसे आरोप लगे हैं। ग्रेजुएशन करके भी हम खाली बैठे हैं। 5-6 हजार रुपए में मेहनत मजदूरी करते हैं”। 

‘रोज़गार नहीं, ज़मीन भी गई’ 

इसी गांव के राकेश महतो राजस्थान में अपनी नौकरी छोड़ घर वापस लौट आए। वह कहते हैं, “खदान के चलते मेरा घर धंसने लग गया। हमारे पास एक घर ही तो बचा है। यहां नौकरी है नहीं, और खेती बची नहीं है”।

जमीन अधिगृहीत करने और मुआवजा न देने की ग्रामीणों की शिकायत पर भौंरा कोलियरी के सीनियर मैनेजर रत्नेश राय कार्बन कॉपी से बातचीत में कहते हैं, “जिनकी जमीन के कागजात पूरे होते हैं, कंपनी उन्हें मुआवजा देने के लिए तैयार रहती है। लेकिन जिनके कागज पूरे नहीं होते उन्हें पैसा नहीं मिल पाता। कागजों को लेकर कानूनी झगड़े, भाई-भाई में विवाद, ग्रामीणों की आपसी शिकायतें समेत कई समस्याओं से गुजरना होता है”।

वहीं, जिले में कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने (नाम जाहिर न करने की शर्त पर) कहा, “हमारे पास ऐसे अनगिनत मामले हैं, जिसमें जमीन लेने और मुआवजा न देने की शिकायत है। कुछ शिकायतें सही होती हैं और कुछ में भ्रम की स्थिति भी होती है। जमीन के लीगल टाइटल होल्डर (एलटीएच) को मुआवजा पाने के लिए एक जटिल लंबी सरकारी प्रक्रिया से गुजरना होता है। पढ़े-लिखे लोगों को कानूनी प्रक्रिया पूरी करने में सहूलियत होती है। लेकिन जो कम पढ़े-लिखे हैं, वे हर स्तर पर मार खाते हैं”।

कोयला और रोजगार

कोयला समृद्ध इन क्षेत्रों के युवाओं की आमदनी का एक बड़ा जरिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर कोयला है।

पर्यावरण मुद्दों पर शोध करने वाली संस्था क्लाइमेट ट्रेंड्स की अप्रैल 2023 की एक रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2021 तक झारखंड में 113 संचालित खदानें हैं जो देश में मौजूद सभी कोयला खदानों का एक चौथाई (26%) हैं और जहां हर साल 115 मीट्रिक टन कोयले का उत्पादन होता है। झारखंड में कोयला खनन उद्योग द्वारा 3 लाख लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिला है। कोयले पर आजीविका के लिए अप्रत्यक्ष तौर पर निर्भर आबादी को चिन्हित करने के लिए अध्ययन की आवश्यकता है। ताकि अक्षय ऊर्जा आधारित अर्थव्यवस्था में बदलाव न्यायसंगत (जस्ट ट्रांजिशन) हो।

गोधरपुर बस्ती के युवा रोजगार न मिलने की शिकायत करते हैं। Photo: Varsha Singh

कोयला और खान मंत्रालय के तहत आने वाले कोयला नियंत्रक संगठन से मिले आंकड़ों पर आधारित  इस रिपोर्ट के मुताबिक, कोयले से जुड़े करीब 33% श्रमिक रोजगार के अन्य अवसर उपलब्ध न होने के चलते एक दशक से खदानों में काम कर रहे हैं। 

कोई आधिकारिक अनुबंध न होने के चलते ज्यादातर श्रमिक असुरक्षित महसूस करते हैं। कोयले के संगठित क्षेत्र के 34% श्रमिकों ने कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा हासिल की है। जबकि असंगठित क्षेत्र के 35% श्रमिकों को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली है। वहीं 38% श्रमिक 12वीं पूरी कर ग्रेजुएट हुए हैं। जिससे पता चलता है कि उच्च शिक्षा के लिए आवेदन करने वाले युवाओं की संख्या सीमित है। 

कोयले से नवीकरणीय ऊर्जा में बदलाव से कोयला समृद्ध राज्यों के युवाओं के लिए नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर बनेंगे। दिल्ली स्थित आई-फॉरेस्ट में जस्ट ट्रांजिशन निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी कहती हैं कोयला बहुल क्षेत्रों में युवाओं की शिक्षा और कौशल विकास से जुड़े कार्यक्रमों तक पहुंच बेहतर बनाने की आवश्यकता है। युवाओं को भविष्य के कार्यबल के तौर पर तैयार करना जस्ट ट्रांजिशन का एक अहम हिस्सा है। बेहतर शिक्षा तक पहुंच और कौशल विकास कार्यक्रमों के जरिए ही ये संभव है।वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की फ्यूचर ऑफ जॉब्स रिपोर्ट 2023 के मुताबिक, भविष्य की नौकरियां डिजिटलाइजेशन और तकनीक पर आधारित होंगी। डिजिटल प्लेटफॉर्म और ऐप्स, डेटा, क्लाउड कम्प्यूटिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ई-कॉमर्स आधारित नौकरियां होंगी।

आईआईटी कानपुर की जस्ट ट्रांजिशन रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट भी कोयला क्षेत्र के युवाओं को डिजिटल तौर पर सक्षम बनाने पर जोर देती है। रिपोर्ट के मुताबिक, डिजिटल डिवाइड को खत्म करना और इंटरनेट और डिजिटल प्लेटफॉर्म तक युवाओं की पहुंच बनाना जरूरी है। सोशल मीडिया मार्केटिंग, कंटेंट मार्केटिंग, सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन, ईमेल मार्केटिंग, वीडियो मार्केटिंग, डेटा एनालिटिक्स, वेबसाइट डेवलपर, कॉपी राइटिंग, ब्लॉगिंग और मोबाइल ऐप डेवलपर, ये दस जरूरी डिजिटल कौशल हैं जो भविष्य की नौकरियों के लिए युवाओं को तैयार कर सकते हैं। 

इन रिपोर्ट्स और जमीनी सच्चाई के बीच एक बड़ा फासला है। जस्ट ट्रांजिशन के जरिए जिसे कम किया जा सकता है। जिन युवाओं से हमने बात की उनमें कुछ ने कहा कि जिस मोबाइल का इस्तेमाल लड़के  इंस्टाग्राम और रील्स बनाने में करते हैं उसी मोबाइल को वह अपने अधिकारों के लिए शिक्षित होने में कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए डिजटल प्रशिक्षण और ट्रेनिंग के साथ जागरूकता चाहिए। 

डिजिटल दुनिया: चुनौतियां और संभावनाएं  

जानकारों से बातचीत में जस्ट ट्रांजिशन को लेकर कुछ चुनौतियों और कुछ संभावनाओं की झलक मिलती है। 

झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकरण धनबाद में कोयले से सुलगती धरती पर बसे लोगों के विस्थापन और पुनर्वास को लेकर कार्य करता है। प्राधिकरण के पुनर्वास प्रभारी कुमार बंधु कच्छप कहते हैं, “यहां के मूल निवासी मुख्यत अवैध तरीके से कोयला चुनने वाले लोग हैं। डिजिटल तकनीक, सॉफ्टवेयर, ऐप से जुड़ी स्किल डेवलप करना मुश्किल है क्योंकि उन्हें ऐसी शिक्षा नहीं मिली है।” 

जस्ट ट्रांजिशन को लेकर झारखंड में कार्य कर रहे शोधकर्ता चैतन्य साहनी कहते हैं कि डिजिटल कौशल या नवीकरणीय ऊर्जा से जुड़ी नौकरियों के लिए युवाओं को तैयार करना बिलकुल नए किस्म का विचार है और इसका प्रशिक्षण शहरी इलाकों में संभव है। 

दूरदराज के इलाकों में कई जगह मोबाइल इंटरनेट भले हो, लेकिन प्रशिक्षण की सुविधा नहीं है। ज़ाहिर तौर पर नीति निर्माताओं यह बात समझनी होगी कि युवाओं को ट्रेनिंग के साथ नौकरी भी चाहिए और ग्रामीण कौशल प्रशिक्षण पर कई  बार धनबाद या रांची जैसे शहरी क्षेत्र में आने को इच्छुक नहीं होते।  

चैतन्य आगे कहते हैं, “बिलकुल नए किस्म के कौशल की जगह मौजूदा उपलब्ध स्थानीय पारंपरिक कार्य और संसाधनों को ही नई तकनीक के इस्तेमाल से बेहतर बनाकर, बाजार मुहैया करा कर हम उनकी आजीविका को बेहतर बना सकते हैं। जैसे जैविक खेती, जल संरक्षण, वन उपज, मिट्टी के बर्तन बनाने की कारीगरी, मौजूदा इलेक्ट्रिशियन को सौर ऊर्जा से जुड़े कौशल से जोड़ने जैसे काम।”

आईआईटी कानपुर की रिपोर्ट भी नेट जीरो ऊर्जा व्यवस्था में नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने और ऊर्जा दक्षता हासिल करने के लिए युवाओं को डिजिटल कौशल सीखने पर जोर देती है। युवाओं को डिजिटल कौशल देकर सतत विकास के लक्ष्य 7 और 8 (किफायती और स्वच्छ ऊर्जा, उत्कृष्ट कार्य और आर्थिक विकास) भी हासिल किए जा सकते हैं।

इस रिपोर्ट के लेखक प्रोफेसर प्रदीप स्वर्णकार और डॉ रिति चटर्जी ने कार्बन कॉपी से कहा कि जस्ट ट्रांजिशन में नए उद्यमों की जरूरत के लिहाज से युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए डिजिटल साक्षरता से जुड़े व्यवसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने की ज़रूरत है, ताकि युवा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल कर सकें और जरूरी डिजिटल तकनीक समझ सकें। इसके लिए इंटरनेट सेवाओं को बेहतर करने के साथ कम्युनिटी सेंटर्स या मोबाइल कम्प्यूटर लैब स्थापित करने या सब्सिडी पर डिजिटल उपकरण मुहैया कराना होगा। जॉब प्लेसमेंट और अपना उद्यम शुरू करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करना होगा। 

प्रदीप कहते हैं कि डिजिटल कौशल से युवा अपने गांव में रहकर दुनियाभर की नौकरियों तक पहुंच हासिल कर सकते हैं।

आईटी सेक्टर में काम कर रहे धनबाद के युवा शक्ति महतो भविष्य के लिहाज से मोबाइल, इंटरनेट, डिजिटल तकनीक को अवसर के तौर पर देखते हैं। 

वह कहते हैं, “आने वाले समय में सबकुछ डिजिटल ही होगा। आज गांवों में भी बच्चों से लेकर बुजुर्गों के हाथ में मोबाइल है। जबकि परंपरागत कार्य आजीविका बेहतर करने में बहुत कारगर नहीं रहे। लेकिन इस सबके लिए खानापूर्ति करने वाली पढ़ाई की जगह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देनी होगी। आज भी यहां के ज्यादातर बच्चे 12वीं तक पढ़ाई कर  रोजगार के लिए कोयले पर ही निर्भर हैं। जबकि हम इससे बेहतर के हकदार हैं।”

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