अक्षय ऊर्जा विस्तार के बीच भारत को रखनी होगी इन बातों पर नज़र

भारत के ऊर्जा उत्पादन में 2040 तक अक्षय ऊर्जा का योगदान 50-70% तक पहुंचने की उम्मीद है। ताजा आंकड़ों के अनुसार, 31 जनवरी 2024 तक देश में स्थापित सौर ऊर्जा क्षमता लगभग 74.3 गीगावाट और स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता लगभग 44.9 गीगावाट थी। जहां एक ओर यह आंकड़े दिखाते हैं कि भारत अपने अक्षय ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करने की ओर अग्रसर है, वहीं यह भी एक तथ्य है कि देश को जीवाश्म ईंधन से दूर जाने के लिए और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है

इन प्रयासों में सबसे जरूरी है घरेलू मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देना। भारत सोलर सेल और मॉड्यूल के लिए बहुत हद तक चीन से आयात पर निर्भर है, ऐसे में बिना घरेलू मैनुफैक्चरिंग और लोकल सप्लाई चेन को बढ़ावा दिए यदि इनपर अधिक आयात शुल्क लगाया गया तो इससे मौजूदा परियोजनाओं पर असर पड़ सकता है। वर्तमान में चल रहे ग़ज़ा युद्ध के कारण लाल सागर में हो रहे हमलों से भी आपूर्ति मार्ग बाधित हुआ है, जिसके कारण एशिया और यूरोप में सोलर मॉड्यूल की कीमतें 20% तक बढ़ी हैं। वहीं पवन ऊर्जा के मामले में तकनीकी विकास की जरूरत है।                  

अक्षय ऊर्जा को ग्रिड से जोड़ना भी एक चुनौती है। इसके लिए जरूरत है ऐसी नीतियों की जो हाइब्रिड सौर, पवन और स्टोरेज इंस्टालेशन के विकास को प्रोत्साहित करें।

अंत में यह भी जरूरी है कि अक्षय ऊर्जा का यह विकास न्यायपूर्ण तरीके से हो। यानी ऊर्जा उत्पादन से लेकर उसके प्रयोग तक में कहीं भी मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो। इसके लिए जरूरी है मानवाधिकार और पर्यावरण संबंधी सम्यक तत्परता, यानी एक तरह का ऑडिट जो यह सुनिश्चित करे कि विभिन्न उत्पादकों की प्रोडक्शन प्रक्रिया के दौरान किसी भी मानवाधिकार या पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ है।

हाइड्रोजन का जलवायु पर प्रभाव अनुमान से कहीं अधिक: शोध

एनवायर्मेंटल डिफेंस फंड के वैज्ञानिकों के नए शोध के अनुसार, हाइड्रोजन उत्पादन के दौरान होनेवाले उत्सर्जन का आकलन करने के लिए जो मानक प्रयोग किए जाते हैं, उनसे बड़े पैमाने पर गलत अनुमान लगाए जा सकते हैं। शोध में पाया गया कि हाइड्रोजन और मीथेन उत्सर्जन के जलवायु पर पड़ने वाले प्रभावों के कारण, इससे होने वाले लाभ काफी कम हो सकते हैं।

शोध में पाया गया कि हाइड्रोजन लाइफसाइकिल असेसमेंट के दौरान तीन महत्वपूर्ण कारकों को संज्ञान में नहीं लिया जाता: हाइड्रोजन उत्सर्जन का ग्लोबल वार्मिंग पर प्रभाव, हाइड्रोजन उत्पादन और प्रयोग के दौरान होनेवाला मीथेन उत्सर्जन, और निकट भविष्य में इसके प्रभाव। शोधकर्ताओं ने पाया कि इन कारकों को आकलन में शामिल करने से यह पता लगाया जा सकता है कि जीवाश्म ईंधन प्रौद्योगिकियों की तुलना में हाइड्रोजन सिस्टम बेहतर हैं या नहीं।

भारत ने शुरू की चीन, वियतनाम से आयातित सोलर ग्लास की एंटी-डंपिंग जांच 

भारतीय निर्माताओं के आरोपों पर कार्रवाई करते हुए, सरकार ने चीन और वियतनाम से आयातित कुछ सोलर ग्लास की एंटी-डंपिंग जांच शुरू की है। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार वाणिज्य मंत्रालय की जांच शाखा व्यापार उपचार महानिदेशालय (डीजीटीआर) चीन और वियतनाम में बने ‘टेक्सचर्ड टेम्पर्ड कोटेड और अनकोटेड ग्लास’ की कथित डंपिंग की जांच कर रही है। 

बाजार की भाषा में इसे सोलर ग्लास या सोलर फोटोवोल्टिक ग्लास जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है। घरेलू उद्योगों की ओर से (देश की सबसे बड़ी ग्लास निर्माता) बोरोसिल रिन्यूएबल्स लिमिटेड ने एक शिकायत दायर करके जांच और आयात पर उचित एंटी-डंपिंग शुल्क लगाने की मांग की है।

साफ़ ऊर्जा में इस साल होगा $800 बिलियन निवेश: रिपोर्ट

एस एंड पी ग्लोबल कमोडिटी इनसाइट्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस साल स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी में निवेश 15 प्रतिशत तक बढ़कर 800 बिलियन डॉलर यानी करीब 66 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने की संभावना उम्मीद है। इस निवेश में सबसे बड़ा योगदान सौर ऊर्जा में हुए विकास का होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन कैप्चर और स्टोरेज, कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल और हाइड्रोजन जैसे उभरते क्षेत्रों में नीतिगत बदलावों के कारण निवेश में वृद्धि होगी। इसमें यह भी कहा गया है कि तकनीकी विकास के फलस्वरूप, साफ़ ऊर्जा के प्रयोग की लागत में 2030 तक 15 से 20 प्रतिशत की गिरावट आएगी।  हालांकि कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन और स्टोरेज (CCUS) को लेकर विशेषज्ञों में एक राय नहीं है क्योंकि टेक्नोलॉजी की प्रामाणिकता पर अभी सवाल हैं। जानकार इसे जीवाश्म ईंधन का प्रयोग जारी रखने का एक बहाना मानते हैं।

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