इस साल 14 मार्च को जारी हुई ओवरव्यू रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत देश के 13 नदियों के रिवर बेसिन और आसपास के क्षेत्र में बड़ी संख्या में पेड़ लगायेगा ताकि 2027 तक कार्बन सोखने के लिये जंगल लगाने के वैश्विक लक्ष्य को पूरा किया जा सके। भारत इस मुहिम के तहत कुल 4,68,222 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पेड़ लगायेगा। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने झेलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलुज, यमुना, ब्रह्मपुत्र, लुनी, नर्मदा, गोदावरी, महानदी, कृष्णा और कावेरी के लिये प्रोजेक्ट रिपोर्ट जारी की।
इस वृक्षारोपण के तहत रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोग्राम, वृक्षारोपण और एग्रोफॉरेट्री के कार्यक्रम होंगे। इससे अगले 10 साल में 50.21 मिलियन कार्बन डाई ऑक्साइड और 20 साल में कुल 74.76 मिलियन टन CO2 सोखी जायेगी। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इस वृक्षारोपण की आड़ में इन जगहों पर रह रहे लोगों को हटाने और भू-अधिकारों को छीनने का काम हो सकता है।
भारत का फाइनेंस क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की चुनौती के लिये तैयार नहीं, बैंकों और बीमा कंपनियों की रैंकिंग कमज़ोर
जलवायु से जुड़े नुकसान की बात हो तो भारतीय बीमा कंपनियों का प्रदर्शन सबसे खराब है। दिल्ली स्थित क्लाइमेट ट्रेन्ड के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है। साल 2020-21 में क्लाइमेट से जुड़ी आपदाओं को लेकर किये गये 70 प्रतिशत दावे (जिनकी कुल कीमत 2559 करोड़ रुपये हैं) अब तक लम्बित हैं यानी उनका भुगतान नहीं हुआ है। कोलंबिया, भारत, कज़ाकिस्तान, न्यूज़ीलैंड, रूस, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की कंपनियां सबसे खराब प्रदर्शन वाली हैं।
उधर एक अन्य विश्लेषण के मुताबिक भारत का बैंकिंग सेक्टर जलवायु जनित आपदाओं के लिये लिये बिल्कुल तैयार नहीं दिखता। रिपोर्ट में 34 बैंकों की रैंकिंग की गई और ज्यादातर की मार्केट रणनीति में जलवायु परिवर्तन के हिसाब से कुछ नहीं था। यस बैंक, इंडसइंड, एचडीएफसी और एक्सिस बैंक सूची में सबसे ऊपर थे जबकि देश का सबसे बड़ा सरकारी बैंक एसबीआई इस मामले में छठे नंबर पर था।
अपवाद के रूप में प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद ग्रीन क्लीयरेंस
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अपवाद स्वरूप कुछ मामलों में किसी प्रोजेक्ट को शुरू होने के बाद ग्रीन क्लीयरेंस दी जा सकती है। इससे उन उद्योगों या प्रोजेक्ट्स को चलते रहने की छूट मिलेगी जिन्होंने बिना हरित अनुमति लिये और संभावित पर्यावरण प्रभावों के बारे में बताये काम करना शुरू कर दिया। कानून के जानकारों का कहना है कि इस अनुमति से पर्यावरण कानून की मूल आत्मा खत्म हो गई है जो एहतियाती सिद्धांत की तरह है। अब धड़ल्ले से इस नियम का दुरुपयोग होगा।
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