यूरोपियन क्लाइमेट एजेंसी के मुताबिक पहली बार ऐसा हुआ है कि पूरे एक साल वैश्विक औसत तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री से ऊपर रही। हालांकि इसका मतलब पेरिस संधि के तहत बताई गई 1.5 डिग्री तापमान सीमा को स्थाई रूप से पार होना नहीं माना जायेगा क्योंकि इसका अर्थ कई सालों तक दीर्घ कालिक (long term) वॉर्मिंग से है। यूरोपीय यूनियन के कॉपरनिक्स क्लाइमेट चेंज सर्विस ने भी कहा है कि जनवरी का तापमान धरती पर अब तक का सबसे अधिक रहा। असल में पिछले साल जून के बाद हर महीना इसी तरह रिकॉर्ड गर्मी वाला रहा है। वैज्ञानिक अल नीनो – जो मध्य प्रशांत महासागर में असामान्य रूप से गर्म होने को दर्शाता है – और मानव जनित जलवायु परिवर्तन को इसकी वजह मानते हैं।
साल 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा जिसमें प्री इंडस्ट्रियल स्तर की तुलना में औसत वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस के करीब वृद्धि हुई थी। विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने दिसंबर में कहा था कि 2024 में हालात और भी बदतर हो सकते हैं क्योंकि “अल निनो आमतौर पर वैश्विक तापमान पर असर चरम पर पहुंचने के बाद डालता है।”
जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर-पूर्व और बांग्लादेश के कई हिस्सों में अति वृष्टि की घटनाएं हुई चार गुना
एक नई रिसर्च बताती है कि 1950 और 2021 के बीच मेघालय के गारो, खासी और जेन्तिया वाले पठारों और उससे लगे असम के क्षेत्र में चरम वृष्टि की घटनायें (एक दिन में 15 सेमी से अधिक बरसात) चार गुना हो गई है। मेघालय के चेरापूंजी और मौसिनराम भारत की उन जगहों में हैं जहां सबसे अधिक बरसात हुई और इसके साथ ही यह राज्य देश में सर्वाधिक वृष्टि वाले क्षेत्रों में दर्ज हुआ। हालांकि भारतीय मौसम विभाग के आंकड़े यह इंगित करते हैं कि पिछले 30 साल में मेघालय समेत उत्तर-पूर्व के इलाकों में मॉनसून की बारिश का ग्राफ गिरा है।
रिसर्च पेपर के सह लेखक क्लाइमेट साइंटिस्ट रॉक्सी कॉल कहते हैं, “हमारा शोध दिखाता है कि जहां इस क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में कुल बारिश कम हो रही है वहीं चरम वृष्टि की घटनायें बढ़ रही हैं।”
शोध बताता है कि1950 से 2021 के बीच मई से अक्टूबर तक मेघालय (और उत्तर-पूर्व बांग्लादेश और भारत) और तटीय बांग्लादेश में अति वृष्टि की घटनायें चार गुना हो गईं। तुलना के लिये 1950 से 1980 के 30 सालों को आधार बनाया गया। इस पूरे क्षेत्र में अत्यधिक बारिश की घटनायें हो रही है जिसके पीछे वैज्ञानिक ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़े कारक बता रहे हैं। इनमें एक बंगाल की खाड़ी का गर्म होना भी है।
वेटलैंड – भारत में रामसर सूची की संख्या में हुई बढ़ोतरी
इस साल 2 फरवरी को वर्ल्ड वेटलैंड डे के मौके पर केंद्र सरकार ने पांच अन्य वेटलैंड साइट्स को रामसर श्रेणी में शामिल करने की घोषणा की। अब भारत में रामसर वेटलैंड साइट्स की संख्या बढ़कर 75 से बढ़कर 80 हो गई है। वेटलैंड्स धरती पर बहुत महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र होते हैं जिन्हें आर्द्रभूमि कहा जाता है। यहां कई तरह की वनस्पतियां पनपती हैं और यह ज़मीन को नम रखने के साथ पानी को छानने और रेग्युलेट करने का का भी काम करते हैं। इसलिये कई बार इन्हें धरती की किडनी भी कहा जाता है।
वेटलैंड्स कई पक्षी प्रजातियों, जंतुओं का पर्यावास होता है और कार्बन को सोखने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं लेकिन धरती पर वेटलैंड्स विभिन्न कारणों से ख़तरे में हैं। 1970 के दशक में ईरान के रामसर में इन महत्वपूर्ण धरोहरों को बचाने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय संधि की गई जिसके नाम पर पारिस्थितिकी के लिहाज से अति महत्वपूर्ण वेटलैंड्स को रामसर क्षेत्र या रामसर साइट की श्रेणी में रखा जाता है।
टिपिंग पॉइंट की ओर बढ़ रहा अटलांटिक महासागर
वैज्ञानिक पिछले कई दशकों से चेतावनी देते रहे हैं कि अटलांटिक सागर में जलधाराओं का महत्वपूर्ण तंत्र (अटलांटिक मेरिडिओनल ओशिनिक सर्कुलेशन या एएमओसी) गड़बड़ा रहा है जो धरती के बड़े हिस्से पर विनाशलीला ला सकता है। एएमओसी अटलांटिक महासागर में घूमने वाली समुद्री धाराओं का तंत्र है जो गर्म पानी को सुदूर उत्तर में और ठंडे पानी को दक्षिण में ले जाता है। खाड़ी धारायें (गल्फ स्ट्रीम) इस तंत्र का हिस्सा हैं और इस मूवमेंट के कारण ध्रुवों पर बर्फ जमती है समुद्र में तापमान और खारेपन का संतुलन बना रहता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से समुद्री धाराओं का यह तंत्र शिथिल पड़ रहा है और एक रिपोर्ट कहती है कि यह “पूरे क्लाइमेट सिस्टम और मानवता के लिये ख़राब समाचार है।”
कम्प्यूटर सिम्युलेशन के प्रयोग से तैयार किये गये एक नये अध्ययन में कहा गया है कि अटलांटिक महासागर में जलधाराओं का अनायास थमना यूरोप के एक बड़े हिस्से को जमा सकता है। पहले से दिख रही यह आशंका अब अधिक करीब और प्रबल होती दिख रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तर-पश्चिमी यूरोप में कुछ दशकों में इस कारण तापमान में 5 से 15 डिग्री की गिरावट हो सकती है और आर्कटिक की बर्फ दक्षिणी हिस्से की ओर फैल सकती है और दक्षिणी गोलार्ध में तापमान में असमान्य बढ़ोतरी हो सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे बारिश का पैटर्न बड़े स्केल पर बदलेगा और भारी खाद्य और जल संकट पैदा हो सकता है। अटलांटिक महासागर तेज़ी से इस टिपिंग पाइंट की ओर बढ़ रहा है लेकिन यह कितनी जल्दी होगा यह मानव जनित जलवायु परिवर्तन के असर पर निर्भर है।
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