मालदीव, मॉरीशस, फिजी, बारबाडोस सहित 39 छोटे द्वीप देशों से बने लघु द्वीपीय देशों के गठबंधन (एओएसआईएस) पर जलवायु परिवर्तन और संबंधित घटनाओं का खतरा सबसे अधिक बताया जाता है।
एओएसआईएस पहला समूह था जिसने जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली हानि और क्षति पर जोर दिया।
कार्बनकॉपी ने एओएसआईएस के वित्त प्रमुख और जलवायु, महासागरों और कानूनी मामलों के लिए उनके सलाहकार माइकाई रॉबर्टसन से एओएसआईएस की अपेक्षाओं और जलवायु आपदा से लड़ने में वित्त की भूमिका पर बात की। रॉबर्टसन जलवायु वित्त पर प्रमुख वार्ताकार भी हैं।
उनसे बातचीत के कुछ अंश:
एओएसआईएस के देशों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा सबसे अधिक है, ऐसे में वह कौनसे प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर कॉप27 में चर्चा होने की उम्मीद है?
हमारा ध्यान विकसित देशों पर है जो शमन (मिटिगेशन) पर अपने वादों से पीछे हट रहे हैं। उनका कहना है कि यह बस कुछ समय के लिए है। लेकिन विज्ञान हमें बताता है कि कुछ समय के लिए ही सही, इस प्रकार लक्ष्यों से पीछे हटना दशकों के लॉस एंड डैमेज (हानि और क्षति) का कारण बन सकता है।
इसलिए, हमारे लिए बहुत जरूरी है कि हम हानि और क्षति से निबटने के लिए पैसों की व्यवस्था पर चर्चा करें। देशों को न केवल इस ओर प्रतिबद्ध होने की जरूरत है, बल्कि इसे निष्पक्ष और न्यायसंगत तरीके से करने की आवश्यकता है। क्योंकि आकंड़े हमें बताते हैं कि जब क्लाइमेट फाइनेंस (जलवायु वित्त) की बात आती है, तो लघु द्वीपीय विकासशील देश हमेशा हाशिए पर रख दिए जाते हैं।
भले ही हमारी विशेष परिस्थितियों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें की जाएं, लेकिन हमें क्लाइमेट फाइनेंस का छोटा सा हिस्सा ही मिलता है। इसलिए हमें इस बारे में कारगर उपायों को खोजना आवश्यक है।
नोट: जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए विकसित देशों द्वारा जो धन देने का वादा किया गया था वह क्लाइमेट फाइनेंस (जलवायु वित्त) कहलाता है। 2010 में अमीर देशों ने गरीब देशों को 100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष मुहैया करने का वादा किया था।
100 अरब डॉलर का लक्ष्य अभी पूरा नहीं हुआ है। विकसित देश घरेलू वित्तीय संकट का हवाला देकर लगतार अपने संकल्प से पीछे हट रहे हैं। यहां तक कि पिछले महीने ग्रीन क्लाइमेट फंड की बैठक में ब्रिटेन को जो पैसा देना था वह उसने नहीं दिया। ऐसी स्थिति में इस साल क्या उम्मीदें की जा सकती हैं?
हम चाहते हैं कि इस वर्ष यह [$100 बिलियन का] लक्ष्य पूरा हो। वैसे भी अभी दो साल तक हमें पता नहीं चलेगा कि ऐसा हुआ या नहीं, लेकिन मौजूदा अनुमानों को देखकर यह संभव नहीं लग रहा है।
मुझे लगता है कि हमें यह सवाल करना चाहिए है कि यह वास्तव में संकट या आपात स्थिति है? क्योंकि हम अतीत में देख चुके हैं कि कैसे वैश्विक संकटों, विशेष रूप से यूरोप-केंद्रित विश्वयुद्धों के दौरान पूरी दुनिया रुक गई थी। हर तरह के साधन, उत्पादन, राशन और रसद उस संकट को हल करने के प्रयासों पर लगा दिए गए थे।
उसी प्रकार यह वैश्विक आपातकाल की स्थिति क्यों नहीं है?
हम हानि और क्षति की समस्या का सामना कर रहे हैं। सबसे अधिक संसाधनों और अनुकूलन क्षमता वाले अमीर देश भी इसका सामना कर रहे हैं, लेकिन यह चिंताजनक है कि वह विकार्बनीकरण (डीकार्बनाइजेशन) की पहल को प्राथमिकता नहीं दे रहे हैं। हमारे पास खुद को लचीला बनाने के लिए धन नहीं है। हमने उतना शमन नहीं किया कि हम जीएचजी को स्थिर करके प्राकृतिक अनुकूलन पर विचार कर सकें।
यह सौ अरब डॉलर सिर्फ प्रतीकात्मक हैं। हमें जितना चाहिए यह उसके आस-पास भी नहीं है। लेकिन यदि हम इतना भी नहीं कर सके तो यह दर्शाता है कि हम इस वैश्विक आपदा को कितना महत्व देते हैं।
कहा जा रहा है कि इस “कार्यान्वयन कॉप” में कई साहसिक कदम उठाए जाएंगे। आपके विचार में वित्त से संबंधित कौन से निर्णय लागू हो सकते हैं?
ईमानदारी से कहूं तो मुझे नहीं पता, क्योंकि आप प्रतिबद्धताओं की बात कर रही हैं। कई ऐसे वादे हैं जो ग्लासगो में किए गए थे लेकिन अभी तक पूरे नहीं हुए हैं। कुछ ऐसे हैं जो ग्लासगो से पहले किए गए थे, जैसे आपने ग्रीन क्लाइमेट फंड की बात की, जो अब तक पूरे नहीं हो सके हैं। तो जब वित्त की बात आती है हमारे पास दिखाने के लिए बहुत कुछ नहीं है।
इसलिए हम हानि और क्षति संबंधी कॉप के फैसलों को लागू करना शुरू कर सकते हैं, साथ-साथ हानि और क्षति से निबटने के लिए वित्त की व्यवस्था के संदर्भ में पेरिस समझौते के अनुच्छेद 8 और अनुच्छेद 9 को लागू कर सकते हैं। और फिर जीवन, आजीविका और संपत्ति को बचाने से जुड़े निर्णयों को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं।
नोट: पेरिस समझौते का अनुच्छेद 8 बताता है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हानि और क्षति से लड़ना कितना जरूरी है। अनुच्छेद 9 जलवायु वित्त मुहैया करने में विकसित देशों की अग्रणी भूमिका के महत्व पर जोर देता है।
पेरिस समझौते के अनुच्छेद 2.1(ग) को इस वर्ष प्राथमिक मुद्दे के रूप में शामिल किया गया है। यह कितना महत्वपूर्ण है?
यह बहुत अहम है। हमारी वैश्विक व्यवस्था वित्त और वित्त प्रवाह पर चलती है। इसलिए पेरिस समझौते के अति महत्वाकांक्षी उद्देश्यों को वास्तव में लागू करने और प्राप्त करने के लिए वित्तीय दृष्टिकोण अपना ही तर्कसंगत है।
निश्चित रूप से आपके पास जलवायु वित्त है, जो इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त है। लेकिन वह भी बस एक साधन है, जो विकासशील देशों के पास जाता है और उनकी प्रतिबद्धताओं को लागू करने में उनकी सहायता करता है। हमें निजी संस्थाओं के बीच वित्त प्रवाह पर व्यापक चर्चा करने की जरूरत है। हमें एक ऐसा तरीका सुनिश्चित करने की जरूरत है जिससे हमारे सभी वित्तीय लेनदेन कम उत्सर्जन, जलवायु-प्रत्यास्थी विकास के अनुरूप हों।
क्योंकि यदि ऐसा नहीं होगा तो आप कभी भी महत्वाकांक्षी अनुकूलन और शमन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे।
नोट: पेरिस समझौते के अनुच्छेद 2.1(ग) में कहा गया है कि जलवायु वित्त को कम उत्सर्जन आधारित विकास से जोड़ा जाना चाहिए। भारत जैसे विकासशील देशों का तर्क है कि यह अनुच्छेद अस्पष्ट है, जिससे धन के वितरण में असमानता हो सकती है।
पहली बार, वित्त संबंधी स्थायी समिति ने जलवायु वित्त की परिभाषा पर एक रिपोर्ट जारी की है। एओएसआईएस उन समूहों में से एक है जिन्होंने जलवायु वित्त की परिभाषा पर एक सामान्य दृष्टिकोण की मांग की थी। इस पर आपके क्या विचार हैं?
यह जरूरी है! यह जरूरी है क्योंकि यह जवाबदेही से जुड़ा हुआ है। और यह जलवायु वित्त के ‘नए और अतिरिक्त’ होने के सार से जुड़ा है। और कुछ ‘नया और अतिरिक्त’ है या नहीं यह आप तभी समझ सकते हैं जब आप उसके दायरे और सीमाओं को समझें। यह समझना कि जलवायु वित्त क्या है, इससे भी जरूरी है यह समझना कि जलवायु वित्त क्या नहीं है। नहीं तो जलवायु वित्त में ग्रीनवॉशिंग भी होती है।
हम एक नया लक्ष्य तभी तय कर सकते हैं जब हमें यह स्पष्ट रूप से पता हो कि उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए क्या फंड आ सकता है।
नोट: जलवायु वित्त के संदर्भ में ग्रीनवॉशिंग का मतलब है खर्चों/अनुदानों को गलत तरीके से जलवायु के अनुकूल बताना।
जलवायु वित्त पर नए सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य से आप क्या उम्मीद करते हैं?
यह प्रक्रिया काफी बिखरी हुई है, इसे केंद्रीकृत नहीं किया गया है। हमें तकनीकी प्रक्रिया पर फिर से ध्यान देने की जरूरत है। और हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि राजनीतिक प्रक्रिया भी केंद्रित हो।
लेकिन लक्ष्य की समय-सीमा जैसी कुछ चीजें हैं जिन पर हमें फैसला करना चाहिए। मुझे लगता है कि स्पष्टता के लिए समय-सीमा का होना वास्तव में उचित होगा।
(मृणाली लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच में एक शोधकर्ता हैं, जो भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन संचालन का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है।)