ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लक्ष्य के अनुरूप वैश्विक उत्सर्जन की सीमा तय है।

बड़े उत्सर्जक देशों को भारत को देना चाहिए अरबों डॉलर का मुआवजा: शोध

कार्बन डाइऑक्साइड के जरुरत से ज्यादा उत्सर्जन का 90 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका और जर्मनी जैसे ग्लोबल नार्थ के देशों से आता है, और उन्हें कम उत्सर्जन वाले भारत जैसे देशों को मुआवजे के रूप में कुल 170 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, ताकि 2050 तक जलवायु परिवर्तन के जो लक्ष्य हैं वह पूरे हो सकें।

वैज्ञानिक पत्रिका नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत को 2050 तक प्रति व्यक्ति 1,446 अमरीकी डालर और 2018 में इसके सकल घरेलू उत्पाद के 66 प्रतिशत के बराबर वार्षिक मुआवजा दिया जाना चाहिए।

यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स, यूके के शोधकर्ताओं ने 168 देशों का विश्लेषण किया और वैश्विक कार्बन बजट के आधार पर अतिरिक्त उत्सर्जन करने वाले देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारी तय की।

यदि कुछ देश अपने कार्बन बजट से अधिक उत्सर्जन करते हैं, तो इसका मतलब है कि वह ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले नुकसान के लिए न केवल अधिक जिम्मेदार हैं, बल्कि वह एक तरह से अन्य देशों को उनके उचित हिस्से का उपयोग करने से रोकते हैं, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लक्ष्य के अनुरूप वैश्विक उत्सर्जन की सीमा निर्धारित है।

अमेरिका, जर्मनी, रूस, ब्रिटेन और जापान शीर्ष पांच अधिक उत्सर्जक देश हैं।

वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 8 लाख सालों में सबसे अधिक

ताजा आंकड़ों से पता चला है कि मई 2023 में वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर ने पिछले आठ लाख वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया

नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (नोआ) की मौना लोआ एटमॉस्फेरिक बेसलाइन ऑब्जर्वेटरी ने बताया कि मई 2023 में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 424 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) पर पहुंच गया था। गौरतलब है कि ऐसा पिछले लाखों वर्षों में नहीं देखा गया है।

वातावरण में बढ़ता कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पूरी मानवता के लिए खतरा है। यदि पिछले आंकड़ों को देखें तो यह स्तर औद्योगिक काल के शुरूआत की तुलना में अब 50 फीसदी तक बढ़ चुका है।

रिपोर्ट के मुताबिक मई 2023 में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर उत्तरी गोलार्ध में अपने चरम पर पहुंच गया था।

इराक से तेल निकालने की होड़ से पैदा हुआ जलसंकट 

यूक्रेन में रूस के हमले के बाद से तेल संकट बढ़ा है और इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाने को कोशिश में पश्चिमी देशों की तेल कंपनियां कई जगह  जल-संकट और प्रदूषण बढ़ा रही है। इराक इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है। इसके प्रचुर तेल भंडार वाले दक्षिणी हिस्से में पानी की भारी कमी है लेकिन कंपनियां तेल निकालने के लिये जिस तरह पानी का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं उससे यहां के दलदली हिस्से और तालाब सूखते जा रहे हैं जिन पर समुदायों का जीवन टिका है। तेल कंपनियों द्वारा पानी के इस्तेमाल के कारण मछुआरों को मछलियां मिलना दुश्वार हो गया है। महत्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र ने अब इराक को जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों की सूची में पांचवे नंबर पर रखा है। 

यहां से तेल निकालने वाली अग्रणी कंपनियों में इटली की एनी, यूके की बीपी और अमेरिका की एक्सॉनमोबिल शामिल है। ताप बिजलीघरों की तरह ही तेल और गैस कंपनियों को अपने ऑपरेशन के लिये बहुत सारे पानी की ज़रूरत होती है। ओपेक देशों में सऊदी अरब के बाद इराक दूसरे नंबर का तेल उत्पादक देश है और यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद इसका उत्पादन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। साल 2022 में यूरोप की 40% तेल सप्लाई इराक से ही हुई।

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