भारत के 4,041 जनगणना शहरों और कस्बों में से केवल 12 प्रतिशत में ही वायु गुणवत्ता निगरानी प्रणाली मौजूद है। इनमें से केवल 200 शहर ही सभी छह प्रमुख मानदंडों वाले प्रदूषकों की निगरानी करते हैं। यह बात सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी एक नए विश्लेषण में कही गई है।
सीएसई ने अपने विश्लेषण में यह भी कहा है कि देश के वायु गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क की स्थिति बहुत ही भयावह है।
सीएसई के विश्लेषण में बताया गया है कि देश की लगभग 47 प्रतिशत आबादी वायु गुणवत्ता निगरानी ग्रिड के अधिकतम दायरे से बाहर है, जबकि 62 प्रतिशत वास्तविक निगरानी नेटवर्क से बाहर हैं। इस संबंध में सीएसई की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉयचौधरी कहती हैं कि सीमित वायु गुणवत्ता निगरानी से बड़ी संख्या में कस्बों/शहरों व क्षेत्रों की पहचान करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है और विशेष रूप से स्वच्छ वायु कार्रवाई के मूल्यांकन के लिए आवश्यक स्वच्छ वायु कार्रवाई और वायु गुणवत्ता में सुधार के प्रभावी मूल्यांकन में बाधा आती है।
दिल्ली की वायु गुणवत्ता में दिखा 7 सालों में सबसे अधिक सुधार
दिल्ली में 2016 के बाद से इस साल सबसे अधिक संख्या में ‘अच्छी से मध्यम’ वायु गुणवत्ता वाले दिन दर्ज किए गए हैं। इन आंकड़ों में 2020 के लॉकडाउन की अवधि को शामिल नहीं किया गया है।
पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार 2016 के पहले छह महीनों (यानी जनवरी से जून) के दौरान ‘अच्छी से मध्यम’ वायु गुणवत्ता वाले 30 दिन दर्ज किए गए थे; इसके मुकाबले 2017 में 57; 2018 में 65; 2019 में 78; 2020 में 126; 2021 में 84; 2022 में 54; और चालू वर्ष 2023 में 101 ‘अच्छी से मध्यम’ वायु गुणवत्ता वाले दिन दर्ज किए गए हैं।
आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 2016 के बाद से पिछले सात वर्षों की इसी अवधि (2020 को छोड़कर) की तुलना में 2023 में ‘खराब से गंभीर’ वायु गुणवत्ता वाले दिनों की संख्या सबसे कम रही है।
मंत्रालय ने कहा कि अनुकूल मौसम संबंधी परिस्थितियों और क्षेत्र में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए जमीनी स्तर पर किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप इस साल वायु गुणवत्ता बेहतर रही।
वायु प्रदूषण से बीमार पाए गए 86% सफाईकर्मी और सुरक्षा गार्ड
एक अध्ययन में कहा गया है कि देश में लगभग 97 प्रतिशत सफाई कर्मचारी, 95 प्रतिशत कचरा बीनने वाले और 82 प्रतिशत सुरक्षा गार्ड अपने काम के दौरान वायु प्रदूषण के संपर्क में आते हैं।
चिंतन एनवायरमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप द्वारा किए गए इस अध्ययन में कहा गया है कि 75 प्रतिशत कचरा बीनने वालों, 86 प्रतिशत सफाई कर्मचारियों और 86 प्रतिशत सुरक्षा गार्डों के फेफड़े असामान्य रूप से कार्य कर रहे थे। इसके विपरीत, कंट्रोल ग्रुप के 45 प्रतिशत प्रतिभागियों के फेफड़े असामान्य रूप से कार्य कर रहे थे।
शोध में कहा गया है कि 17 फीसदी कचरा बीनने वाले, 27 फीसदी सफाई कर्मचारी और 10 फीसदी सुरक्षा गार्ड फेफड़ों की गंभीर बीमारियों से पीड़ित पाए गए।
एम्स के आसपास वाहनों का प्रदूषण बढ़ा रहा बीमारियां
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के 500 मीटर के दायरे में हुए एक सर्वे में पता चला है कि इस क्षेत्र के आसपास से हर दिन 1.31 लाख से अधिक वाहन गुजरते हैं। साथ ही अतिक्रमण व पार्किंग के कारण पूरे इलाके में भारी यातायात रहता है।
इस वजह से यहां से गुजरने वाले वाहन निर्धारित 60 किलोमीटर प्रति घंटा की गति सीमा से भी धीमे चलते हैं। इससे वायु प्रदूषण होता है, जिसका सीधा असर लोगों की सेहत पर पड़ता है।
स्कूल आफ प्लानिंग व आर्किटेक्चर (एसपीए) की ओर से हाल में एम्स के आसपास किए गए सर्वे में यह स्थिति सामने आई है।
खराब वायु गुणवत्ता से हृदय रोग, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीस (सीओपीडी), कैंसर और यहां तक कि डिमेंशिया तक का खतरा बढ़ सकता है। यहां तक कि समय से पहले मौत भी हो सकती है।
वहीं दूसरी ओर अधिक से अधिक शोध यह दिखा रहे हैं कि दुनिया भर के लो एमिशन ज़ोन्स (एलईजेड) में लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है।
यूके, यूरोप और टोक्यो में 320 से अधिक एलईजेड संचालित हो रहे हैं। इन एलईजेड में अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों, आमतौर पर पुराने डीजल वाहनों की संख्या पर अंकुश लगाकर पूरे क्षेत्र में वायु प्रदूषण को कम किया जाता है।
लांसेट पब्लिक हेल्थ जर्नल में प्रकाशित एक नई समीक्षा में कहा गया है कि एलईजेड लागू होने पर हृदय और संचार संबंधी समस्याओं में स्पष्ट कमी देखी गई।अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीजों, दिल के दौरे और स्ट्रोक से होने वाली मौतों और रक्तचाप की समस्या ग्रसित लोगों में भी कमी आई।
लॉकडाउन के दौरान वायु प्रदूषण में गिरावट से हिमालय में बर्फ पिघलने की गति हुई धीमी
एक नए अध्ययन के अनुसार कोविड महामारी के दौरान भारत में वायु प्रदूषण में कम होने से हिमालय में बर्फ के पिघलने की गति भी धीमी हो गई थी। पीएनएएस नेक्सस पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के कारण पार्टिकुलेट प्रदूषण कम होने से 2019 की तुलना में 2020 में 27 मिलियन टन से अधिक बर्फ पिघलने से बच गई।
शोधकर्ताओं ने उपग्रह डेटा का उपयोग करके 2020 में दो महीने के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान बर्फ पिघलने पर होनेवाले प्रभाव को ट्रैक किया।
अध्ययन में पाया गया कि हिमालयी आरएफएसएलएपी (बर्फ पर रेडिएटिव फोर्सिंग पर मानव गतिविधियों के प्रभाव) में परिवर्तन का संबंध लॉकडाउन से था।
यह अध्ययन इस बात का प्रमाण है कि मानवजनित उत्सर्जन में कमी से बर्फ और हिमनदों के पिघलने में भी कमी आती है।
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