नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (एनसीएपी) ट्रेकर का विश्लेषण बताता है कि दिल्ली में इस साल पीएम 10, पीएम 2.5 और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) प्रदूषण पिछले साल के मुकाबले बहुत खराब रहा। मार्च से जून तक पीएम 10 और पीएम 2.5 सुरक्षित सीमा से ऊपर थे और NO2 की मात्रा मार्च और अप्रैल में बढ़ी। कोयला बिजलीघरों से होने वाले प्रदूषण काफी रहा क्योंकि इस साल भीषण गर्मी के कारण बिजली की मांग बहुत थी। दिल्ली, मुंबई और बैंगलुरु उन 10 शहरों में थे जहां गर्मियों में हवा सुरक्षित सीमा से अधिक खराब रही।
पिछले साल की पीक डिमांड 186 मेगावॉट के मुकाबले इस साल 10 जून को भारत में बिजली की मांग सबसे अधिक 211 गीगावॉट रही और इसका 75% कोयला बिजलीघरों से आया। हीटवेव के कारण एयरकंडीशनरों का बहुत इस्तेमाल हुआ और इस कारण पीएम 2.5 की सांध्रता हवा में बढ़ी। दिल्ली में एक भी दिन ऐसा नहीं रहा जब पीएम 2.5 सीपीसीबी के सुरक्षित मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति लीटर पर रहा।
एनसीएपी ट्रैकर क्लाइमेट ट्रैन्ड और रेस्पाइरर लिविंस साइंसेज़ का संयुक्त प्रयास है जो कि भारत की स्वच्छ वायु नीति पर अपडेट्स देता है। इसका मुख्य उद्देश्य इस बात पर नज़र रखना है कि भारत ने 2024 तक हवा में प्रदूषण कम करने के जो लक्ष्य तय किये हैं उनपर क्या तरक्की हो रही है।
औद्योगिक प्रदूषण: सीपीसीबी ने छोटे बॉयलरों के लिये मानक कड़े किये
छोटे बॉयलरों पर चलने वाले उद्योगों को प्रदूषण की अधिक छूट नहीं रहेगी। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दो टन प्रति घंटा से कम क्षमता वाले बॉयलरों के प्रदूषण सीमा 1,200 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से घटाकर 500 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर कर दी है।
सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरेंमेंट (सीएसई) के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर (जिनमें हरियाणा, यूपी और राजस्थान शामिल हैं) के औद्योगिक क्लस्टरों में ज़्यादातर बेबी बॉयलर इस्तेमाल हो रहे हैं। इन्हें नियंत्रित और रेग्युलेट किया जाना ज़रूरी है क्योंकि लगातार उत्सर्जन मॉनिटरिंग सिस्टम (सीईएमएस) और एयर पॉल्यूशन कंट्रोल डिवाइस लगाना आर्थिक रूप से संभव नहीं है।
हालांकि अब भी बड़े बॉयलरों के मुताबिक इन छोटे बॉयलरों के लिये तय मानक काफी कम हैं और इनसे हवा प्रदूषित होती रहेगी।
प्रदूषण की चेतावनी लोगों के बजाय प्रदूषण करने वाले को दी जाये: स्टडी
वायु प्रदूषण पर किये गये एक नये अध्ययन का निष्कर्ष है कि सेहत को लेकर वायु प्रदूषण के आंकड़े और चेतावनी असल में जनता के बजाय प्रदूषण करने वाले को दी जानी चाहिये। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के इस अध्ययन में इस बात का विश्लेषण किया गया कि लंदनवासी किस तरह वायु प्रदूषण के डाटा देखते हैं। स्टडी में पाया गया कि बड़ी संख्या में व्यवसायिक कंपनियां पर्सनल सेंसर, मास्क और एयर फिल्टर का बाज़ार तैयार करने के उद्देश्य से आंकड़े दे रही हैं। शोध कहता है कि वर्तमान सिस्टम में कमियां हैं। अगर लोग जहां रह रहे हैं उस जगह वायु गुणवत्ता की सटीक जानकारी चाहते हैं तो अधिकांश सेवायें वह जानकारी प्रदान नहीं कर पा रहीं।
यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि जब वायु प्रदूषण बढ़े तो लोगों को सचेत करने के लिये उन्हे जानकारी देना अच्छा है लेकिन खतरा कम करने के लिये जानकारी प्रदूषक (कंपनियों, बिजलीघरों) को दी जानी चाहिये। स्टडी में यह बात याद दिलाई गई है कि 1955 में जब पहली बार इस तरह की योजना बनी तो उसमें उद्योगों को जानकारी देने की व्यवस्था थी ताकि वह बॉयलर एक्टिविटी कम करें, कार पूलिंग बढ़े और लोग कूड़ा न जलायें।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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