जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन में अक्षय ऊर्जा की भूमिका

ऊर्जा बदलाव की पांचवीं कड़ी में हृदयेश जोशी बात कर रहे हैं पत्रकार रोली श्रीवास्तव और एनर्जी एक्सपर्ट विभूति गर्ग से।

रोली थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन के साथ जुड़ी हैं और जस्ट ट्रांजिशन, जेंडर और पलायन के साथ इन्क्लूसिव इकोनॉमी जैसे विषयों पर काम करती हैं। विभूति इंस्टिट्यूट फॉर एनर्जी इकोनोमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आइफा) की साउथ एशिया डायरेक्टर हैं और पिछले दो दशकों से इस क्षेत्र में काम कर रही हैं।

यह बातचीत जस्ट ट्रांजिशन में अक्षय ऊर्जा के महत्व और उसकी भूमिका पर है।

भारत की कुल स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता अभी करीब 1 लाख 30 हज़ार मेगावॉट है । इसमें करीब 71 हज़ार मेगावॉट से अधिक सोलर पावर है। और पवनऊर्जा का हिस्सा 44 हज़ार मेगावॉट है। इसमें करीब 46,000 मेगावॉट की बड़ी हाइड्रो परियोजनाओं को जोड़ दें तो यह करीब पौने दो लाख मेगावॉट के आसपास पहुंच जाती है, हालांकि हाइड्रो के पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर बहुत विवाद और सवाल भी उठते रहे हैं।

भारत अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में बड़ी छलांग मारना चाहता है। सरकार का लक्ष्य है कि वह 2030 तक 450 गीगावॉट यानि साढ़े चार लाख मेगावॉट साफ ऊर्जा के संयंत्र लगाए। यह भारत की ऊर्जा बदलाव मुहिम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन यह रास्ता इतना आसान भी नहीं हैं।

रोली और विभूति दोनों का मानना है कि भारत की अक्षय ऊर्जा की ओर प्रगति संतोषजनक है, लेकिन इसे और बढ़ाने की आवश्यकता है। हालांकि इसमें सावधानी भी बरतनी चाहिए, क्योंकि देश की तीन चौथाई ऊर्जा जरूरतें अभी भी कोयले से ही पूरी होती हैं।

कर्नाटक का उदहारण देकर रोली बताती हैं कि वहां पवन ऊर्जा क्षमता इतनी अच्छी है कि मानसून के समय कभी-कभी राज्य की ऊर्जा आवश्यकताएं केवल पवन ऊर्जा से पूरी हो जाती हैं। फिर भी, हीटवेव के दौरान जब मांग बढ़ती है, तो थर्मल पावर का प्रयोग भी उसी परिमाण में बढ़ जाता है। इसलिए थर्मल पावर के बिना हम फिलहाल अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। इसलिए भारत अगले कुछ सालों तक जीवाश्म ईंधन फेजआउट की बात नहीं कर सकता।

अक्षय ऊर्जा के लिए क्लाइमेट फाइनेंस के सवाल पर विभूति ने कहा कि हमें अपने 2030 के ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करने के लिए ही 450-500 बिलियन डॉलर की जरूरत है, और 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के लिए करीब 10.1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश चाहिए, यानि हर साल करीब 120-140 डॉलर।  जबकि मौजूदा सालाना निवेश केवल लगभग 40 बिलियन डॉलर है। इसलिए भारत को न केवल फाइनेंस बल्कि सस्ते फाइनेंस की जरूरत है।

वहीं रोली का कहना था कि यह ग्रीन फाइनेंस परियोजनाओं के साथ-साथ रीस्किलिंग और पुनर्वास पर भी लगाया जाना चाहिए, विशेष रूप से उनके जो अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से विस्थापित होंगे। उन्होंने यह भी कहा कि नवीकरणीय क्षेत्र में उतने रोज़गार नहीं मिल पाएंगे जितने कोयला क्षेत्र में हैं क्योंकि यह एक लेबर इंटेंसिव सेक्टर नहीं है।

अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए भूमि के सवाल पर विभूति का कहना था कि पूर्वी भारत में भी इन परियोजनाओं की संभावनाएं बहुत हैं और हम बंद हो चुकी या अयोग्य कोयला खदानों और संयंत्रों की भूमि पर भी इस तरह की परियोजनाएं लगा सकते हैं, जिससे भूमि उपलब्धता की समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। साथ ही, अक्षय ऊर्जा के विकेंद्रीकरण के लिए रूफटॉप सोलर और सोलर इरीगेशन आदि बहुत जरूरी है।

कोयला श्रमिकों, कोयले पर आधारित कामगारों या कोयला बहुल क्षेत्र के युवाओं की रोजगार ट्रेनिंग और रीस्किलिंग को लेकर रोली ने कहा कि जरूरी नहीं उन्हें नवीकरणीय क्षेत्र या एनर्जी सेक्टर के लिए ही प्रशिक्षित किया जाए। उनकी महत्वाकांक्षाओं के हिसाब से उन्हें हर प्रकार के विकल्प दिए जाने चाहिए। इस मुद्दे पर विभूति का कहना था कि विस्थापन रोकने के लिए हमें ऐसे स्थानों पर पर्यटन और कृषि के विकास और बेहतरी के बारे में सोचना चाहिए।

जस्ट ट्रांजिशन में अक्षय ऊर्जा को लेकर आगे की राह क्या हो, इसपर विभूति ने कहा कि हमें हर साल अपना ऊर्जा उत्पादन बढ़ाना है, लेकिन हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि यह उत्पादन कोयले की बजाय अधिक से अधिक नवीकरणीय स्रोतों से हो। इसके लिए नीति बनाने की जरुरत है। साथ ही हमें यह समझना होगा कि जैसे-जैसे अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं का पैमाना बढ़ेगा, उत्पादन और स्टोरेज की कीमतें कम होंगीं। रोली ने कहा कि हमें देखना होगा की नवीकरणीय ऊर्जा भी जीवाश्म ईंधन की राह पर न चली जाए। यानि भूमि क्षरण, समुदायों पर प्रभाव और स्वास्थ्य पर प्रभाव यदि उसी तरह होता है तो फिर इसे जस्ट ट्रांजिशन नहीं कहा जा सकता।

इस पूरी बातचीत को आप यहां सुन सकते हैं

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