पिछले साल कॉप27 के दौरान, लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा था। फोटो: John Blower/Flickr

अमीर देशों की जिद में फंसा लॉस एंड डैमेज फंड

अगले महीने शुरू होने वाले कॉप28 महासम्मेलन से पहले लॉस एंड डैमेज फंड को लेकर पेंच फंस गया है और कोई सहमति बनती नहीं दिख रही है। जहां विकासशील देश इसे एक स्वतंत्र फंड बनाना चाहते हैं, वहीं अमीर देश, खास तौर पर अमेरिका चाहता है कि इसे विश्व बैंक के तहत लाया जाए।

ग्लोबल साउथ के देशों का कहना है कि ऐसा करना लॉस एंड डैमेज फंड की कल्पना और उद्देश्यों के विरुद्ध होगा। इस मुद्दे पर मिस्र के असवान शहर में हुई यूएन ट्रांज़िशनल कमेटी की बैठक बेनतीजा रही

पिछले साल शर्म-अल-शेख में हुए कॉप27 जलवायु महासम्मेलन के दौरान, लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा था। ‘लॉस एंड डैमेज’ जलवायु परिवर्तन के उन प्रभावों को कहा जाता है, जिनसे अडॉप्टेशन यानी अनुकूलन के द्वारा बचा नहीं जा सकता। विशेषकर गरीब देशों में, जिनका वैश्विक उत्सर्जन में योगदान बहुत कम है, जिन लोगों को जलवायु परिवर्तन के इस प्रभावों से नुकसान होता है, उससे निपटने के लिए उन्हें इस फंड के माध्यम से धन मुहैया कराया जाना है।

कॉप27 में हुए निर्णय के बाद इस फंड की स्थापना और संचालन की रूपरेखा तैयार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने ट्रांज़िशनल कमेटी बनाई थी। लेकिन चार बैठकों के बाद भी अबतक कोई नतीजा नहीं निकला है। फंड को विश्व बैंक के अंतर्गत लाने के अमेरिका के प्रयासों से विकासशील देश नाराज़ हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से फंड पर अमेरिका का कब्जा हो जाएगा।

ग्लोबल साउथ के वार्ताकारों और विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व बैंक हमेशा शेयरहोल्डरों को अधिक महत्त्व देता है, और वह अनुदान की बजाय लोन देना पसंद करेगा। इससे गरीब देशों पर कर्ज और बढ़ेगा। साथ ही, विश्व बैंक ने अभी पिछले हफ्ते ही जलवायु परिवर्तन से निपटने को अपने मिशन का हिस्सा बनाया है, इसलिए उसके पास इस तरह के फंड को सुचारु रूप से चला पाने की दक्षता नहीं है।

कौनसे देश लॉस एंड डैमेज फंड के तहत अनुदान के अधिकारी हैं और किन देशों को इसमें योगदान करना चाहिए, इसे लेकर भी गहरे मतभेद हैं। विकसित देश चाहते हैं कि “सबसे असुरक्षित” देशों की श्रेणी में केवल अल्पविकसित देशों (एलडीसी) और लघुद्वीपीय विकासशील देशों (एसआईडीएस) को रखा जाना चाहिए। इस सीमित परिभाषा में पकिस्तान और लीबिया जैसे देश नहीं आते हैं, जिन्हें हाल ही में जलवायु परिवर्तन से काफी नुकसान हुआ है।

वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि भारत और चीन जैसे प्रमुख उत्सर्जकों समेत उन सभी देशों को इसमें योगदान देना चाहिए जो ऐसा कर सकते हैं।

दूसरी ओर, विकासशील देशों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाले सभी गरीब देशों को इस फंड का लाभ मिलना चाहिए, विशेष रूप से उन्हें जहां अधिक संवेदनशील समुदाय रहते हैं। साथ ही, उनका कहा है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के प्रयासों को केवल वर्तमान नहीं बल्कि ऐतिहासिक उत्सर्जन के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए, और जो देश ऐतिहासिक रूप से बड़े उत्सर्जक रहे हैं उनका इसमें अधिक योगदान होना चाहिए।

बहरहाल, अबू धाबी में 3 से 5 नवंबर को फिर इन मुद्दों पर चर्चा होगी। देखना यह है कि वहां कुछ निर्णय हो पाता है या नहीं।

+ posts

दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
कार्बनकॉपी हिंदी में आपका स्वागत है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.