बाढ़ से हिमाचल प्रदेशऔर उत्तराखंड में व्यापक तबाही हुई है। फोटो: हृदयेश जोशी

हिमालयी क्षेत्र में विकास के मॉडल पर प्रश्नचिह्न

पिछले दो महीनों से हिमालयी राज्य, खास तौर पर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड, भारी बारिश और उसके कारण आई  बाढ़ की चपेट में हैं। हिमाचल प्रदेश आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के आंकड़ों के अनुसार राज्य में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। 

केवल 14 से 16 अगस्त के दौरान दो दिनों के भीतर 71 लोगों की मौत हुई, दर्जनों लोग अभी भी लापता हैं और 300 से ज्यादा घायल हैं। राज्य आपातकालीन परिचालन केंद्र के अनुसार, 24 जून को मानसून की शुरुआत से लेकर अबतक 12,000 से अधिक घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गए हैं।

हिमाचल प्रदेश में पिछले दो महीनों में 100 से ज्यादा भूस्खलन हुए हैं और 60 फ्लैश फ्लड यानी बादल फटने से बाढ़ आने की घटनाएं हुई हैं।

हालांकि यह सरकारी आंकड़े हैं, और आपदा से हुआ नुकसान इससे कहीं ज्यादा बड़ा होगा।

भारी बारिश के कारण हुई तबाही

हिमाचल में इतनी बड़ी आपदा आने की एक बड़ी वजह यह थी कि वहां 8 से 11 जुलाई के बीच भारी बारिश हुई। मौसम विभाग के अनुसार इस दौरान कई जगहों पर 400 प्रतिशत से ज्यादा बारिश हुई। इससे खास तौर पर राज्य के चार जिलों — कुल्लू, मंडी, सिरमौर और शिमला — में भारी नुकसान हुआ है।

दूसरे जिलों में भी बाढ़ से नुकसान हुआ है। हिमाचल की बाढ़ इतनी गंभीर थी कि उससे पड़ोसी राज्य पंजाब में भी इसका प्रभाव दिख रहा है।

उत्तराखंड में भी जान-माल की हानि

दूसरी ओर, पिछले कई सालों से एक के बाद एक आपदा झेल रहे हिमाचल के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी भारी बारिश और भूस्खलन की वजह से नुकसान हुआ। आंकड़ों के अनुसार राज्य में बारिश के कारण हुई घटनाओं में 52 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 38 घायल हुए हैं।  

केदारनाथ जाने वाले मार्ग पर स्थित गौरीकुंड में भूस्खलन की एक घटना में 23 लोग लापता हो गए, जिनमें से कम से कम 8 की मौत की पुष्टि हो चुकी है। इसके अलावा चमोली जिले में भी भारी तबाही हुई है। मंगलवार को चमोली में लगातार बारिश के बीच ऋषिकेश-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग-58 का 250 मीटर का एक हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया, जिसके कारण स्थानीय प्रशासन को यातायात की आवाजाही रोकनी पड़ी।

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में भी काफी घर नष्ट हुए, जिनमें नैनीताल जिले के मैदानी इलाकों में स्थित घर भी शामिल हैं।

बेतहाशा निर्माण और पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में आपदाओं को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखा जा रहा है। इस कारण से वहां भारी और अप्रत्याशित बारिश बढ़ रही है और बादल फटने जैसी घटनाओं की संख्या भी बढ़ रही है।

लेकिन इन इलाकों में लोगों के जान-माल को हो रहे नुकसान को केवल कुदरत या क्लाइमेट चेंज का कहर बता कर जिम्मेदारी नहीं टाली जा सकती। पहाड़़ी राज्यों में पिछले दो दशकों में बुनियादी ढांचे, यानी इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के नाम पर बेतहाशा तोड़फोड़ हुई है।

कई गांवों की बर्बादी के पीछे जलविद्युत प्रोजेक्ट्स को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। फोटो: हृदयेश जोशी

पर्यटन और रिहायश के लिए बहुमंजिला इमारतें बनीं, जिनमें होटल और निजी भवनों का निर्माण शामिल है। तेज़ रफ्तार ट्रैफिक लिए चौड़े हाईवे का निर्माण और जल-विद्युत के लिए हाइड्रोपावर बांधों का निर्माण जैसे कार्य भी हुए हैं। जानकारों का मत है कि इन सभी कार्यों में टिकाऊ और समावेशी विकास की अनदेखी हुई है।

पहाड़ों पर विस्फोट किए जा रहे हैं, उन्हें अवैज्ञानिक तरीके से काटा जा रहा है और उनसे निकले मलबे के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं है। पर्यावरणीय नियमों की अवहेलना कर लगभग सभी मामलों में मलबा नदियों में फेंक दिया जाता है। इससे नदियों का तल ऊंचा हो गया और अंधाधुंध निर्माण की वजह से उनके बहाव क्षेत्र में बाधाएं खड़ी हो गई हैं। इससे बाढ़ का स्वरूप विकराल हो गया।

सरकारों की लापरवाही

उत्तराखंड में 900 किलोमीटर लंबी चारधाम यात्रा को लेकर पहले भी सवाल उठे हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन सरकार ने जानकारों की सभी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया

राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) हिमाचल प्रदेश में भी कई चौड़े हाईवे बना रहा है। विशेष रूप से कीरतपुर से मनाली तक करीब 250 किलोमीटर लंबा हाईवे बहुत जोर-शोर से बनाया गया लेकिन उद्घाटन से पहले ही उसके कई हिस्से ढह गए।

इसी प्रकार होटलों और घरों के ढहने तथा वहां पानी भरने से भी नुकसान हुआ।

उत्तराखंड में जहां इस मौसम में ज्यादातर नदियां उफान पर रहती हैं, वहीं हिमाचल प्रदेश में इस साल विशेष रूप से ब्यास और सतलुज नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया जिससे कुल्लू, मंडी, किन्नौर और सिरमौर में जिलों समेत राज्य में व्यापक तबाही हुई।

ऐसे ही दोनों ही राज्यों में बड़ी संख्या में हाइड्रोपावर डैम बनाए गए। उत्तराखंड में लगभग 5,000 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है और 100 से ज्यादा छोटी-बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं। हिमाचल प्रदेश में इन परियोजनाओं की संख्या लगभग 150 है और वहां लगभग 11,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। 

आनेवाले दिनों में दोनों ही राज्यों में हाइड्रो पावर ऊर्जा को बढ़ाने के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं चलाए जाने पर विचार हो रहा है। इसे लेकर भी दोनों राज्यों में असंतोष दिखता रहा है, क्योंकि इन जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जलाशयों से छोड़े जाने वाले पानी से नदियों का जलस्तर अचानक से बहुत बढ़ जाता है। 

सड़कों के लिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटान और मलबा निस्तारण न होना बाढ़ को और खतरनाक बना रहा है। फोटो: हृदयेश जोशी

इस बार हिमाचल प्रदेश में खास तौर पर सेंज घाटी और पंडोह गांव में इससे काफी नुकसान हुआ

न चेते तो आ सकती है और बड़ी आपदा 

इन चिंताओं के बीच, जलवायु परिवर्तन और भूविज्ञान से जुड़े विशेषज्ञों ने लगातार बताया है कि आने वाले दिनों में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का असर बढ़ेगा, वैसे-वैसे चरम मौसमी घटनाओं की ताकत भी बढ़ेगी जिससे क्षति और बढ़ेगी।

ऐसे में, अगर इन क्षेत्रों में हाईवे, होटलों और हाइड्रो पावर परियोजनाओं को यदि सतत और टिकाऊ तरीके से नहीं बनाया गया, तो आने वाले दिनों में इनसे विभीषिका की आशंका और बढ़ेगी

पनबिजली परियोजनाओं को बनाने, उनमें पानी के प्रबंधन और मलबे के निस्तारण की व्यवस्था को सुदृढ़ करने के साथ-साथ बाढ़ की समय पूर्व चेतावनी देने वाला सिस्टम भी बनाया जाना चाहिए।

यह हैरानी की बात है कि बाढ़ की पूर्व चेतावनी देने वाली एकमात्र एजेंसी, केंद्रीय जल आयोग का हिमाचल प्रदेश में ऐसा कोई बाढ़ पूर्वानुमान केंद्र है ही नहीं। इससे पहले भी 2013 की उत्तराखंड की बाढ़ हो, या कश्मीर की 2014 की बाढ़ हो या इस वर्ष हिमाचल और पंजाब में आई बाढ़ हो, वहां केंद्रीय जल आयोग ने कभी भी बाढ़ का कोई पूर्वानुमान नहीं किया और चेतावनी नहीं दे सका। इसलिए इस व्यवस्था को दुरुस्त करना जरूरी है।

साथ ही, हाईवे और हाइड्रोपावर बांधों के निर्माण के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल होना चाहिए और इन बांधों में जल निकासी का ऐसा प्रबंधन होना चाहिए कि नदियों का जलस्तर अचानक न बढ़े। निर्माण से निकले मलबे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही, नियमों की अवहेलना करने वाली कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।

कुदरत को काबू करने की कोशिश कभी भी कामयाब नहीं हुई है, और इंसान को कुदरत के साथ जीना सीखना पड़ेगा। इसका सीधा रास्ता यह है कि विकास से संबंधित जो भी परियोजनाएं बनें, उनमें पर्यावरणीय नियमों और सामाजिक सरोकारों का पूरा ध्यान रखा जाए।

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