हिमालयी राज्यों में तबाही: हिमाचल, उत्तराखंड में बाढ़ और भूस्खलन जारी

हिमाचल प्रदेश अब तक की सबसे भयानक बाढ़ और आपदा का सामना कर रहा है। पिछले एक महीने से यहां कई मार्ग बन्द हैं और बार-बार बाढ़ और भूस्खलन से तबाही की तस्वीरें  आ रही हैं। राज्य के कुल्लू, मंडी, सिरमौर और शिमला ज़िलों से तबाही की ख़बरें आई और अब तक 300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और 50 से अधिक लोग लापता हैं। उधर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के कई इलाकों में बाढ़ और भूस्खलन से हाहाकार मच गया है। 

हिमाचल में सेब बागान और पर्यटन चौपट: हिमाचल में आपदा की मार सेब के बागानों पर पड़ी है। पहले बर्फबारी न होने और असामान्य तापमान और लगातार बारिश के कारण सेब में फंगस के साथ कई बीमारियां आ गई। अनुमान है कि सेब के उत्पादन में इस साल 50 प्रतिशत से अधिक की गिरावट होगी। इसके अलावा भारी बारिश और भूस्खलन के कारण सड़कें बन्द हो जाने से किसान सेब को मंडियों तक नहीं पहुंचा पा रहे और यह कारोबार में एक और बड़ी दिक्कत है।

दूसरी ओर पर्यटन में भी बाढ़ और खराब मौसम ने बड़ी चोट की है। यह राज्य की अर्थव्यवस्था के लिये बहुत बड़ा संकट है क्योंकि कृषि और पर्यटन मिलकर हिमाचल की जीडीपी में करीब 17 प्रतिशत का योगदान करता है और 70 प्रतिशत लोगों को इन्हीं दो व्यवसायों में रोज़गार मिला है। जानकारों का कहना है कि चरम मौसमी घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बढ़ने के साथ यह संकट आने वाले दिनों में और अधिक बढ़ सकता है।  

उत्तराखंड के गौरीकुण्ड में लापता लोगों में से 8 के शव मिले: उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित गौरीकुण्ड में 3-4 अगस्त की रात  भारी बारिश और भूस्खलन से 23 लोग लापता हो गए थे। इनमें से आठ लोगों के शव मिल गए हैं, जबकि 15 की तलाश जारी है। गौरीकुण्ड केदारनाथ धाम के रास्ते में महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहां मंदाकिनी नदी में उफान के कारण तीन दुकानों के बह जाने से यह हादसा हुआ। लापता लोगों में अधिकांश नेपाली श्रमिक थे। 

उत्तर भारत में सबसे मज़बूत और मध्य भारत में कमज़ोर हो रहा अल निनो, ला निना प्रभाव 

एक नए अध्ययन में पता चला है कि पिछले कुछ दशकों में उत्तर भारत के मॉनसून पर अल निनो और ला निना प्रभाव “असामान्य रूप से शाक्तिशाली” हुआ है जबकि मध्य भारत क्षेत्र में यह कमज़ोर हुआ है। यह एक बड़ा महत्वपूर्ण बदलाव है क्योंकि इन क्षेत्रों में कृषि और रोज़गार मौसमी बारिश पर काफी हद तक निर्भर हैं।

यह अध्ययन पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मैटरिलॉजी के क्लाइमेट साइंटिस्ट रॉक्सी मैथ्यू कॉल की अगुवाई में किया गया जिसमें पाया गया कि समय बीतने के साथ अल निनो और ला निना के बीच व्यवहार में एक नया बदलाव आया है। बीसवीं सदी के पहले 40 सालों में (1901 से 1940 तक) यह  मज़बूत हुआ और फिर अगले 40 सल यानी 1980 तक स्थिर रहा और उसके बाद कमज़ोर हुआ है। 

हालांकि यह बदलाव पूरे देश में इस दौरान एक समान नहीं रहे हैं। दक्षिण भारत में ईएनएसओ और मॉनसून के रिश्ते में कोई बड़ा उतार-चढ़ाव नहीं हुआ है। इसका मतलब है कि मॉनसून पर ला निना और एल निनो  का सर्वाधिक प्रभाव अब उत्तर भारत में और सबसे कम प्रभाव मध्य भारत में हो रहा है। 

अत्यधिक भू-जल दोहन का ख़तरा, दिल्ली-एनसीआर में धंस रही ज़मीन

एक नए शोध से पता चला है कि दिल्ली और आसपास के इलाकों में भू-जल के अत्यधिक दोहन के कारण ज़मीन में धंसाव हो रहा है। इस कारण बहुमंज़िला इमारतों और घरों में दरारें दिख रही है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधार्थी ने 2020 में भू-जल निकासी और भू-धंसाव में संबंध स्थापित किया था। शोधकर्ताओं ने दिल्ली के अलावा चंडीगढ़, कोलकाता, गांधीनगर और अंबाला जैसे शहरों में भूधंसाव के खतरे की ओर संकेत दिया है। इस बारे में विस्तार से आप यहां पढ़ सकते हैं। 

हवाई के जंगलों में आग, 106 लोगों की मौत 

अमेरिका के हवाई द्वीप में भयानक आग से 106 लोगों की मौत हो गई।  करीब एक हज़ार लोग लापता हैं और पूरा इलाका तबाह हो गया। इतनी भयानक आग के कारण अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन तापमान वृद्धि के कारण यहां काफी सूखा पड़ गया था। इसके बाद यहां प्रशांत महासागर से उठे चक्रवाती तूफान डोरा के कारण आग भड़क गई। विशेषज्ञों का कहना है कि हवाई द्वीप श्रंखला में आग का ख़तरा लगातार बढ़ा है और पिछली एक सदी में यहां आग की ज़द में आने वाले क्षेत्रफल में कोई 400% का वृद्धि हुई है। 

इस आग से हुई क्षति के बाद अर्ली वॉर्निंग को लेकर भी सवाल खड़े हुये हैं। क्या यहां लोगों को आग से संभावित ख़तरे की जानकारी समय रहते नहीं दी गई। हवाई के अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि इसका सम्पूर्ण रिव्यू किया जाएगा। 

पिघल रहा है विश्व का सबसे बड़ा पर्माफ्रॉस्ट क्रेटर, दुनिया के लिए खतरे की घंटी 

रूस के साखा गणराज्य में बटागाइका क्रेटर खतरनाक दर से पिघल रहा है और इसका विस्तार हो रहा है।

वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि बढ़ते तापमान और उच्च मानवजनित दबाव के कारण, विश्व में इस तरह के मेगास्लंप और देखने को मिलेंगे,  जब तक सारी स्थायी तुषार भूमि, यानी पर्माफ्रॉस्ट खत्म नहीं हो जाती।

यह 100 मीटर (328 फीट) गहरा क्रेटर 1960 के दशक में बनना शुरू हुआ जब आसपास के जंगल साफ कर दिए गए और भूमिगत पर्माफ्रॉस्ट पिघलना शुरू हुआ, जिससे जमीन धंसने लगी।

स्थानीय लोग जिसे ‘केव-इन’ कहते हैं वह 1970 के दशक में पहले एक खड्ड के रूप में विकसित हुआ और अंततः गर्म दिनों के दौरान पिघलने से उसमें विस्तार होने लगा। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से उत्तरी और उत्तरपूर्वी रूस के शहरों और कस्बों में सड़कों का खिसकना, घरों का टूटना और पाइपलाइनों का बाधित होना शुरू हो चुका है।

यदि यह पिघलना जारी रहता है तो इससे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और ग्रीनहाउस गैसों का अधिक उत्सर्जन होगा, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी।

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