ओडिशा सरकार ने ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ की श्रेणी समाप्त करने के अपने फैसले पर रोक लगा दी है और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के विस्तृत नियमों और दिशानिर्देशों की प्रतीक्षा करने का फैसला लिया है।
इससे पहले, ओडिशा सरकार ने 11 अगस्त को जिला-स्तर के अधिकारियों को भेजे गए एक पत्र में कहा था कि वन-भूमियों का गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने के अनुरोधों पर निर्णय अब संशोधित वन अधिनियम के अनुरूप होना चाहिए, साथ ही ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ की श्रेणी अब समाप्त की जाती है।
‘डीम्ड फॉरेस्ट’ ऐसी भूमि को कहा जाता है जिसे केंद्र या राज्यों द्वारा वन-भूमि के रूप में दर्ज नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में राज्यों को ऐसी भूमियों को वनों के ‘पारंपरिक’ अर्थ के अंतर्गत लाने का आदेश दिया था।
ओडिशा में इकोलॉजिकल रूप से महत्वपूर्ण माने जाने वाले वनों को प्रभावित करने वाले इस कदम के कारण सरकार की आलोचना हो रही थी।
संशोधित वन संरक्षण अधिनियम के अनुसार ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ को संरक्षित भूमि की परिभाषा के बाहर रखा गया है।
वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक को मानसून सत्र के दौरान सदन में पारित किया गया था और 4 अगस्त को इसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिल गई। केंद्र सरकार द्वारा राजपत्र में अधिसूचित करते ही यह कानून लागू हो जाएगा।
इस अधिनियम के तहत संरक्षित भूमि का उपयोग केंद्र के साथ-साथ संबंधित क्षेत्रों की ग्राम पंचायतों की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता है। जो लोग संरक्षित भूमि का उपयोग गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए करते हैं, उनपर भारी आर्थिक दंड लगाने के साथ ही यह कानून उनपर नष्ट किए गए क्षेत्र से दोगुनी भूमि के बराबर भूखंड पर पेड़ लगाने का दायित्व भी डालता है।
अधिनियम में संशोधन के बाद उन सभी भूमियों पर वाणिज्यिक गतिविधियों का खतरा मंडरा रहा है जो आधिकारिक तौर पर ‘वन’ के रूप में वर्गीकृत नहीं हैं।
कूनो में जारी मौतें, विशेषज्ञों ने सौंपी रिपोर्ट
कूनो नेशनल पार्क में पिछले दिनों एक और चीते की मौत के बाद अबतक नौ चीतों की मौत हो चुकी है। लेकिन सरकार ने फिर कहा है कि फिलहाल चीतों को कूनो से बाहर भेजने की उनकी कोई योजना नहीं है।
2 अगस्त की सुबह मादा चीता धात्री मृत पाई गई। 6 अगस्त को पर्यावरण मंत्री भूपेंदर यादव ने कहा कि सरकार स्थिति की गंभीरता को समझती है और कूनो में “सभी वन अधिकारी और पशुचिकित्सक बहुत मेहनत कर रहे हैं”।
इससे पहले, 1 अगस्त को पर्यावरण मंत्रालय और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि कूनो राष्ट्रीय उद्यान के अलावा, उन्होंने मध्य प्रदेश और राजस्थान में चीतों के लिए संभावित स्थलों की पहचान की है।
पिछले महीने रेडियो कॉलर के कारण गर्दन पर लगे घावों में संक्रमण के कारण दो चीतों की मौत हो गई थी। हालांकि, भूपेंदर यादव ने इस संक्रमण के लिए मानसून-जनित कीड़ों को जिम्मेदार ठहराया।
जानकारों का कहना है कि भारी बारिश, अत्यधिक गर्मी और नमी के कारण समस्याएं हो सकती हैं, और “चीतों की गर्दन के चारों ओर लगे कॉलर संभावित रूप से अतिरिक्त जटिलताएं पैदा कर रहे हैं”।
इन मौतों के बाद, दो मादाओं को छोड़कर सभी चीतों को जांच के लिए उनके बाड़ों में वापस ले आया गया था और उनके कॉलर निकालकर घावों को साफ़ किया गया था। जो दो मादाएं बाहर थीं उनमें धात्री की मौत 2 अगस्त को हो गई, जबकि एक और मादा ‘निरवा’ लापता हो गई थी क्योंकि उसके रेडियो कॉलर ने काम करना बंद कर दिया था। ‘निरवा’ को 22 दिनों की खोज के बाद वापस पकड़ा जा सका, और बताया जा रहा है कि वह स्वस्थ है।
इसी बीच अफ्रीका के विशेषज्ञों ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी है और बताया है कि कैसे चीतों को सुरक्षित भारत में बसा कर इस प्रोजेक्ट को सफल बनाया जा सकता है।
नए कानून से लिथियम आदि खनिजों के निजी खनन का रास्ता साफ
निजी क्षेत्र को लिथियम सहित 12 परमाणु खनिजों में से छह और सोने और चांदी जैसे खनिजों के खनन की अनुमति देने वाले एक विधेयक को मानसून सत्र के दौरान संसद में पारित किया गया। पिछले महीने लोकसभा से मंजूरी मिलने के बाद यह विधेयक 2 अगस्त को राज्यसभा में पारित हो गया। इसे 4 अगस्त को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई।
यह विधेयक खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 में संशोधन करके 29 खनिजों की खोज और खनन में निजी भागीदारी की अनुमति देता है, जिनमें सोना, चांदी, तांबा, कोबाल्ट, निकल, सीसा, पोटाश, रॉक फॉस्फेट, बेरिलियम और लिथियम शामिल हैं।
लिथियम का इस्तेमाल इलेक्ट्रिक वाहनों और ऊर्जा भंडारण उपकरणों के लिए बैटरी के निर्माण हेतु किया जाता है।
यह कानून केंद्र सरकार को कुछ महत्वपूर्ण खनिजों के लिए विशेष रूप से खनन पट्टे और मिश्रित लाइसेंस की नीलामी करने का अधिकार भी देता है।
कर्नाटक में बढ़ी हाथियों की संख्या
ताजा सर्वेक्षण के अनुसार कर्नाटक में हाथियों की आबादी 6,049 से बढ़कर 6,395 हो गई है।
राज्य के वन मंत्री ईश्वर खंडरे ने मई में हुई हाथियों की जनगणना की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि 2017 में आयोजित अंतिम जनगणना की तुलना में 346 हाथी अधिक पाए गए हैं।
कर्नाटक में 6,104 वर्ग किमी में फैले 32 वन मंडलों में हाथियों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए गणना की। खंडरे ने बताया कि सर्वेक्षण के दिन 23 मंडलों में हाथी पाए गए और 2,219 हाथियों की सीधे गणना की गई। वन विभाग ने हाथियों की औसत संख्या जानने के लिए विशेषज्ञों द्वारा विकसित एक फार्मूले का प्रयोग किया।
गौरतलब है कि पूरे देश में हाथियों के हैबिटैट लगातार सिकुड़ रहे हैं और उनकी संख्या घटी है। हालांकि, पिछले कुछ सालों में सरकार ने एलीफैण्ट रिज़र्व की संख्या बढ़ाई है। फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और अवैज्ञानिक विस्थापन के कारण हाथियों के बसेरे (हैबिटैट) लगातार नष्ट हो रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण नष्ट हो रही हैं भाषाएं
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, आज दुनिया में जो भाषाएं बोली जाती हैं, उनमें से आधी इस सदी के अंत तक लुप्त या गंभीर रूप से लुप्तप्राय हो जाएंगी।
भाषाओं के लुप्त होने के कई कारण हैं, लेकिन हाल ही में जलवायु परिवर्तन एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में उभर रहा है।
जलवायु आपदाओं के कारण पलायन करने को मजबूर समुदाय अक्सर अपनी भाषा भावी पीढ़ियों तक नहीं पहुंचा पाते, यदि वह ऐसी जगह पलायन करते हैं जहां उनकी भाषा मुख्य रूप से नहीं बोली जाती है।
दुनिया में सबसे अधिक भाषाई विविधता वाले देशों में से कुछ इंडो-पैसिफिक में हैं और यही क्षेत्र विशेष रूप से पर्यावरणीय आपदाओं के प्रति संवेदनशील भी है। ग्लोबल ट्रेंड्स रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में 108 मिलियन से अधिक लोग जबरन विस्थापित हुए। दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और पैसिफिक क्षेत्र में होने वाला लगभग पूरा आंतरिक विस्थापन जलवायु संबंधी आपदाओं, जैसे बाढ़ और तूफान के कारण हुआ।
चूंकि दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और पैसिफिक क्षेत्र बड़ी संख्या में लुप्तप्राय भाषाओं का घर है, और यहां जलवायु आपदाओं के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापन भी होता है, इसलिए भविष्य में इस क्षेत्र में विशेष रूप से भाषाओं का नुकसान हो सकता है।
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