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पैरिस समझौते के वादे निभाने की राह पर बढ़ रहा है भारत

जहाँ एक ओर जलवायु परिवर्तन को लेकर 2015 में हुए पेरिस समझौते पर दस्तखत करने वाले सभी देश, हर साल की तरह इस साल भी’ जलवायु परिवर्तन से निपटने की अपनी योजनाएं पेश कर चुके हैं, वहीँ भारत की प्रगति काफ़ी चर्चा में है।

दरअसल कुछ दिन पहले ही वर्चुअली आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन के साइड इवेंट, ‘सेफगार्डिग द प्लैनेट-द सर्कुलर कार्बन इकोनॉमिक अप्रोच’ में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया को बताया कि हमारा देश न सिर्फ़ पेरिस समझौते के अपने लक्ष्यों को समय रहते पूरा कर रहा है, बल्कि उन लक्ष्यों के आगे भी बढ़ रहा है। प्रधान मंत्री ने अपने संबोधन में साफ़ किया कि भारत ने अपने स्तर पर स्वच्छ जलवायु के लिए तमाम क्षेत्रों में ठोस कार्रवाई भी की है।

और प्रधान मंत्री के उस सम्बोधन के ठीक बाद बैंक ऑफ़ अमेरिका की एक रिपोर्ट जारी हुई जिसके मुताबिक़ भारत वाक़ई अपने लक्ष्य न सिर्फ़ पूरे करेगा बल्कि उसके आगे निकलने के लिए भी तैयार है।

भारत, जहाँ दुनिया के दस में से नौ सबसे प्रदूषित शहर हैं, फ़िलहाल ऐसी स्थिति में है कि वो अपने एमिशन टारगेट्स को बड़े आराम से न सिर्फ़ हासिल कर लेगा बल्कि उनके आगे भी निकल लेगा। बैंक ऑफ़ अमेरिका सिक्योरिटीज़ की ताज़ा रिपोर्ट की मानें तो भारत 2015 के पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन लक्ष्यों को पार करने के लिए बिल्कुल तैयार है और 2015 और 2030 के बीच एक बेहतर पर्यावरण और जलवायु के लिए लगभग $ 400 बिलियन का निवेश सम्भव है। अपनी रिपोर्ट में बैंक ऑफ अमेरिका सिक्योरिटीज़ ने यह भी कहा कि इस सकारात्मक बदलाव के लिए सात प्रमुख कारक होंगे हैं। और ये कारक होंगे डीजल की खपत कम करना, प्राकृतिक गैस और रेन्युब्ल ऊर्जा का उत्पादन और खपत बढ़ाना, उत्सर्जन मानदंडों नियमों के अनुपालन में सख्ती, गंगा नदी की सफाई, और बेहतर ऊर्जा दक्षता।

यह लक्ष्य, जिन्हें नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस (एनडीसी-यानी अपनी मर्जी से अपने उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य), कहा जाता है, हर देश द्वारा तय किये जाते हैं। वैसे पेरिस समझौते का असल मकसद ही  ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को इस  हद तक कम करना है, कि इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर (Pre-Industrial level) से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखा जा सके। और हर साल इस समझौते में हिस्सा लेने वाले दुनिया के, भारत सहित, तमाम देश अपनी मर्ज़ी से अपने उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मलेन COP के समय घोषित करते हैं।

आज तय करेगा कल 

ये साल ख़ास रहा और यह आने वाले सालों की दशा और दिशा बदल सकता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की ताज़ा रिपोर्ट की मानें तो कोविड की आर्थिक मार से उबरने के लिए अगर अभी पर्यावरण अनुकूल फैसले लिए जाते हैं तो 2030 तक के अनुमानित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कमी लायी जा सकती है। यही नहीं, इन फैसलों से ही यह तय हो जायेगा कि क्या हम जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के वैश्विक तापमान में 2°C  बढ़ोतरी के लक्ष्यों को हासिल कर पाएंगे या नहीं। दरअसल, UNEP की ताज़ा एमिशन गैप रिपोर्ट कहती है कि कोविड-19 महामारी के कारण 2020 में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में गिरावट के बावजूद, दुनिया अभी भी इस सदी में 3°C से अधिक के तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रही है। इस रिपोर्ट में पाया गया है कि 2020 में उत्सर्जन में 7% की गिरावट दर्ज तो की गयी, लेकिन 2050 तक इस गिरावट का मतलब ग्लोबल वार्मिंग में कुल 0.01 डिग्री की गिरावट ही है।

वहीँ लीड्स यूनिवर्सिटी द्वारा नेचर पत्रिका में क्लाइमेट चेंज  पर प्रकाशित एक नये अध्यकयन में पता चला है कि कार्बन डाईऑक्साटइड तथा अन्यक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सरर्जन में कटौती के लिये मजबूत और तीव्र कदम उठाने से अगले 20 वर्षों में ग्लो्बल वार्मिंग की दर कम करने में मदद मिलेगी।

ज्ञात हो कि इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा  पूर्व-औद्योगिक युग के तापमान स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक तक ही ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों को सीमित रखने पर जारी एक विशेष रिपोर्ट के मुताबिक भी पेरिस समझौते के इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए   वर्ष 2030 तक दुनिया को अपने  वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में  45% कटौती करनी होगी।

करने को है बहुत कुछ

क्लाइमेट चेंज परफॉरमेंस इंडेक्स 2021 में भारत टॉप टेन में शामिल है लेकिन सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं। ताज़ा इंडेक्स से साफ़ पता चलता है कि पेरिस समझौते के पांच साल बाद भी दुनिया का कोई भी मुल्क इसके लक्ष्यों को पूरा करने की कसौटी पर खरा नहीं है। हालाँकि  विश्लेषण किए गए 57 देशों में से आधे से अधिक देशों में उत्सर्जन कम हो रहा है। जर्मनवाच और न्यूक्लाइमेट इंस्टीट्यूट ने क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (CAN) के साथ मिलकर जारी क्लाइमेट चेंज परफॉरमेंस इंडेक्स 2021 के अनुसार भारत शीर्ष दस देशों में शामिल तो है लेकिन पिछले साल के मुक़ाबले एक पायदान नीचे, 10वें स्थान पर है। बात वन आवरण का विस्तार करके अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने के तीसरे एनडीसी लक्ष्य को हासिल करने के करें तो भारत अभी बहुत पीछे है।

ये बनता है भारत के प्रयासों को ख़ास

भारत जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन और जीडीपी की एमिशंस इंटेंसिटी में कमी लाने के दो लक्ष्यों को वर्ष 2030 से काफी पहले हासिल करने की राह पर आगे बढ़ रहा है। भारत ने स्थापित ऊर्जा क्षमता में रिन्यू3एबिल्सा ऊर्जा की 24% भागीदारी का लक्ष्य सितंबर 2020 में ही हासिल कर लिया है। इसके अलावा उसने 2050 के स्तरों के मुकाबले अपनी जीडीपी एमिशंस इंटेंसिटी में भी 21% की कटौती कर ली है।

हाल ही में भारत सरकार ने पेरिस समझौते को लागू करने के लिए एक उच्च स्तरीय अंतर मंत्रालयी समिति  (एआईपीए) गठित की है। इस समिति का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को लेकर देश की प्रतिक्रिया का इस तरीके से समन्वय करना है कि भारत पेरिस समझौते के तहत व्यक्त की गई अपनी संकल्पबद्धताओं को पूरा करने के रास्ते पर आगे बढ़े। इस समिति में सरकार के नीति निर्धारक थिंक टैंक यानी नीति आयोग के साथ-साथ स्वास्थ्य, बिजली, अक्षय ऊर्जा, वित्त, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, जलशक्ति, भूविज्ञान, नगर विकास, ग्राम्यव विकास, वाणिज्य एवं उद्योग समेत 14 मंत्रालयों के प्रतिनिधि शामिल हैं। पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री इस समिति के अध्यक्ष हैं।

वर्ष 2014 में आईईए ने अनुमान लगाया था कि सौर ऊर्जा की कीमतें वर्ष 36 साल बाद यानी 2050 तक 50 डॉलर प्रति मिलियन वाट हो जाएंगी, लेकिन ऐसा होने में सिर्फ 6 साल लगे। भारत ने राउंड द क्लॉकक रिन्यू एबिल्स  की 38 डॉलर प्रति मेगावाट के हिसाब से नीलामी की और ताजा सोलर बिड 27 डॉलर प्रति मेगावाट रही है। एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में बहुत उछाल आने वाला है और जब इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमतंल परंपरागत ईंधन से चलने वाले वाहनों के मूल्यों के बराबर हो जाएंगी, तब इलेक्ट्रिक वाहनों के बाजार में जबरदस्त उछाल आएगा।

कार्बन उत्सबर्जन में कमी लाने की चर्चाओं में हम आमतौर पर कार और हवाई जहाज की बात करते हैं लेकिन भारत में सबसे बड़ा अवसर भाड़े पर चलने वाले ट्रकों में है। पहले माल ढुलाई का काम रेलवे से ज्यादा होता था लेकिन अब यह काम डीजल से चलने वाले ट्रकों पर आ गया है। यहां पर प्रदूषण कम करने के लिहाज से जबर्दस्ती सम्भाेवनाएं हैं।

अगर भारत को अपने सतत विकास लक्ष्योंज को हासिल करना है तो सीमेंट और स्टील जैसे उद्योगों में अक्षय ऊर्जा के प्रयोग के प्रति दक्षता लानी होगी। कार्बन प्राइसिंग और कार्बन ट्रेडिंग के जरिए इन उद्योगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है

पेरिस समझौते की सालगिरह से पहले उसी संदर्भ में हुई एक  वेबिनार में टेरी की प्रोग्राम डायरेक्टर रजनी आर. रश्मि ने कहा, “जहां तक अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का सवाल है तो मेरे हिसाब से भारत सही रास्ते पर है। भारत अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहा है। वह एमिशंस इंटेंसिटी के मामले में 24% की गिरावट दर्ज कर चुका है।”

उसी वेबिनार में डब्यू मे आरआई इंडिया की जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का  केलकर कहती हैं “पहले माल ढुलाई का काम रेलवे से ज्यादा होता था लेकिन अब यह काम डीजल से चलने वाले ट्रकों पर आ गया है। यहां पर प्रदूषण कम करने के लिहाज से जबर्दस्तब सम्भासवनाएं हैं। अगर भारत को अपने सतत विकास लक्ष्यों  को हासिल करना है तो सीमेंट और स्टील जैसे उद्योगों में अक्षय ऊर्जा के इस्तेकमाल के प्रति दक्षता लानी होगी। कार्बन प्राइसिंग और कार्बन ट्रेडिंग के जरिए इन उद्योगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।’’

वर्ष 2015 में हुए इस ऐतिहासिक समझौते के बाद से भारत में सौर तथा वायु बिजली की कीमतें, कोयले से बनने वाली विद्युत के मुकाबले कम हो गयी हैं। हर साल इलेक्ट्रिक वाहनों के नये मॉडल भी बाज़ार में उतारे जा रहे हैं।

वहीँ भारतीय रेलवे ने वर्ष 2030 तक प्रदूषणमुक्त संचालन वाली दुनिया की पहली रेलवे बनने का लक्ष्य तय किया है। भारत कूलिंग एक्शन प्लान घोषित करने वाले दुनिया के पहले देशों में शामिल है। भारत अक्षय ऊर्जा के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों और ऊर्जा दक्षता के मामले में भी अग्रणी है। ये सभी चीजें पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से भारत की सकारात्मक तस्वीर पेश करती हैं।

रिन्युबल एनर्जी पर ख़ास नज़र

वर्ष 2015 के बाद से भारत में अक्षय ऊर्जा क्षमता में 226% की वृद्धि हुई है।

वर्ष 2019 में न्यूयॉर्क में आयोजित क्लाइमेट एक्शन समिट में भारत ने अपनी अक्षय ऊर्जा क्षमता को वर्ष 2022 में 175 गीगावॉट से बढ़ाकर 2030 तक 450 गीगावॉट करने का संकल्प व्यक्त किया था।

इस वक्त भारत की कुल स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता 88793.43 मेगावाट है।लक्ष्य प्राप्ति के लिए वर्ष 2030 तक हर साल 35 गीगा वाट अतिरिक्त क्षमता जोड़ने की जरूरत होगी और यह वर्ष 2018-19 और 2019-20 में हुई सालाना 8 से 10% की बढ़ोत्तरी के मुकाबले कहीं ज्यादा है।

भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर नवंबर 2015 में इंटरनेशनल सोलर एलाइंस (आईएसए) का गठन किया था। इस वक्त इस गठबंधन में 80 से ज्यादा देश शामिल हैं और वे विकासशील देशों के बीच सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सहयोग प्रदान करते हैं।

राज्य के स्तर पर राजस्थान सरकार ने वर्ष 2019 में अपनी नई सौर नीति जारी की थी, जिसमें वर्ष 2025 तक प्रदेश में 50 गीगावॉट सौर ऊर्जा क्षमता के निर्माण का लक्ष्य रखा गया था। वहीं, गुजरात ने 2022 तक 30 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा क्षमता के विकास की योजना बनाई है।

फरवरी 2018 में सौर तथा वायु बिजली की दरें 2.44 रुपये प्रति किलोवाट तक गिर गई थीं। उसके बाद से इस बिजली की दरें 2.80 रुपये प्रति किलोवाट के आसपास बनी हुई हैं। हालांकि एसईसीआई द्वारा नीलामी के ताजा तरीन दौर के तहत सौर बिजली की सबसे कम कीमत 2 रुपये प्रति किलोवाट रही है। आने वाले वक्त में इस लागत में और भी गिरावट होने की संभावना है।

देश में फ्लोटिंग सोलर टेंडर का चलन तेजी से बढ़ रहा है। नेशनल हाइडल पावर कॉरपोरेशन (एनएचपीसी) और नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएचडीसी) ने हाल ही में 75 मेगावाट क्षमता का टेंडर किया है।

जनवरी 2020 में एसईसीआई ने 1.2 गीगा वाट हाइब्रिड अक्षय ऊर्जा क्षमता का टेंडर किया। इसमें सिर्फ अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल करके ही चौबीसों घंटे पीक पावर उपलब्ध कराने के लिए बैटरी एनर्जी स्टोरेज भी शामिल है। यह टेंडर दुनिया का सबसे बड़ा टेंडर है और इसका औसत टैरिफ 4.4 रुपये प्रति किलोवाट है। यह मुख्यतः कोयले से बनने वाली बिजली के मुकाबले बाजार में ज्यादा प्रतिस्पर्धी है। क्योंकि कोयला आधारित बिजली की कीमत 12 रुपये प्रति किलोवाट तक से ज्यादा हो चुकी है।

नई दिल्ली में टाटा पावर की 10 मेगावाट ग्रिड इंटीग्रेटेड बैटरी स्टोरेज प्रणाली का फरवरी 2019 में अनावरण किया गया था। यह भारत की सबसे बड़ी ग्रिड कनेक्टेरड बैटरी आधारित ऊर्जा स्टोरेज प्रणाली है। इसमें ग्रिड में होने वाले उतार-चढ़ाव को संतुलित करने के साथ-साथ  20 लाख उपभोक्ताओं को पीक पावर बैकअप उपलब्ध कराने की क्षमता है। भारत भर में ऐसी ही अनेक प्रणालियों का परीक्षण किया जा रहा है ताकि अधिक मात्रा में अक्षय ऊर्जा को ग्रिड के साथ जोड़ा जा सके।

नए कोयला बिजली घरों को रेड सिग्नल

गुजरात सरकार ने सितंबर 2019 में ऐलान किया कि वह राज्य में अब कोयले से चलने वाले नए बिजली घरों की स्थापना के लिए कोई नई मंजूरी नहीं देगी।

भारत में तीसरा सबसे बड़ा कोयला भंडार रखने वाल वाले छत्तीसगढ़ राज्य की सरकार ने भी किसी भी नए कोयला घर का निर्माण न करने की घोषणा की है। देश के सर्वाधिक औद्योगिकीकृत और सर्वोच्च जीडीपी वाले राज्य महाराष्ट्र ने अगस्त 2020 में अपने यहां कोई भी नया कोल प्लांट स्थापित न करने की घोषणा की।

भारत की सबसे बड़ी निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली उत्पादक कंपनियों एनटीपीसी और टाटा पावर ने ग्रीन फील्ड स्कूल पावर प्रोजेक्ट के निर्माण से परहेज करने या उसे पूरी तरह रोकने का ऐलान किया।

जनवरी से नवंबर 2020 के बीच कोयले से बनने वाली बिजली के उत्पादन में 2019 के मुकाबले 9.3% की गिरावट दर्ज की गयी। वहीं, कुल बिजली उत्पादन में ऐसी विद्युत की हिस्सेदारी 2019 के मुकाबले 3% घटी है और वर्ष 2020 में यह 67 फीसद रह गई है।

वर्ष 2015 से 2020 के बीच परंपरागत ऊर्जा क्षमता (मुख्यतः कोयला आधारित बिजली) में वृद्धि की वार्षिक दर क्रमशः 5.64%, 4.7 2%, 3.98%, 3.57%, 0.12% और -6.72% रही है। वहीं, अक्षय ऊर्जा के मामले में यह 6.47%, 23.97%, 24.88%, 24.47%, 9.12% और 3.48% रही है।

कोयला ऊर्जा के वित्तपोषण में भी हुई कमी

कोयला आधारित परियोजनाओं के वित्तपोषण में वर्ष 2018 में साल दर साल 90% और 2019 में 82% की गिरावट हुई है। वर्ष 2017 में कोयला बिजली घरों को 60767 करोड़ रुपए यानी 9.35 अरब डॉलर मिले। वही वर्ष 2019 में यह भारी गिरावट के साथ 1100 करोड़ रुपए यानी 19 करोड़ डॉलर रह गए। नई परियोजनाओं के लिए प्राइमरी फाइनेंस में वर्ष 2019 में साल दर साल 67% की गिरावट दर्ज की गई।

एक्जिमबैंक के 150 करोड़ रुपए के कर्ज को छोड़ दें तो वर्ष 2019 में कोयला बिजली घरों के लिए सरकार की तरफ से कोई वित्तपोषण नहीं किया गया। वर्ष 2017 में पहली बार अक्षय ऊर्जा पर व्यय ने जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन में हुए निवेश पर बढ़त हासिल कर ली।

वाणिज्यिक बैंकों ने ज्यादातर कर्ज अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए दिया जबकि सरकार के अधीन वित्तीय संस्थानों द्वारा दिए गए ऋण में अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं की हिस्सेदारी 24% रही। वर्ष 2018 में यह मात्र 9 फीसद थी।

हालांकि कोयला आधारित परियोजनाओं को सब्सिडी देने के रूप में मजबूती बनी रही। वर्ष 2019 में इस मद में 15456 करोड रुपए दिए गए। इसके विपरीत अक्षय ऊर्जा को दी जाने वाली सब्सिडी में वर्ष 2018 के 15313 करोड़ के मुकाबले 2019 में गिरावट हुई और यह 9930 करोड़ रुपए रह गई।

क्लाइमेट फाइनेंस में दिख रही तेज़ी

भारत में विभिन्न क्षेत्रों में 2016 से 2018 के बीच सालाना औसतन करीब 19 अरब डॉलर का कुल ग्रीन फाइनेंस उपलब्ध कराया गया। जलवायु संरक्षण संबंधी अपनी कार्ययोजना के वित्तपोषण के लिए भारत को हर साल 170 अरब डॉलर के निवेश की जरूरत है (एनडीसी के मुताबिक वर्ष 2015 से 2030 के बीच 2.5 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत होगी)।

भारत में अक्षय ऊर्जा में निवेश की रफ्तार ने जीडीपी विकास दर (वर्ष 2016-17 और 2017-18 की अवधि में) को बहुत पीछे छोड़ दिया है। साल 2016-17 और 2017-18 के बीच भारत की जीडीपी की औसत विकास दर 7.2% रही, वहीं जांचे गए निवेश में 24% की बढ़ोत्त1री देखी गई।

रफ़्तार पकड़ रहीं हैं बैट्री गाड़ियाँ

भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है। देश में वर्ष 2015 से 2019 के बीच 285000 इलेक्ट्रिक वाहनों  के लिए फेम-1 स्कीम (फास्ट अडॉप्टेशन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ़ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक व्हीकल) के तहत 359 करोड़ रुपए का वितरण किया गया।

वर्ष 2030 तक नए वाहनों की बिक्री में इलेक्ट्रिक वाहनों की 30% भागीदारी के लक्ष्य के बावजूद फेम-2 में सब्सिडी को बढ़ाकर 10 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया। भारत के 14 राज्यों ने या तो इलेक्ट्रिक वाहन संबंधी मसविदा नीतियों को जारी कर दिया है या फिर उन्हें औपचारिक रूप से अपना लिया है।

स्थानीय निर्माण क्षमता को मजबूत करने और सभी श्रेणियों में इलेक्ट्रिक वाहनों की अग्रिम लागत को अनुदानित करने  वाली नीतियों को अपनाने में तेलंगाना और दिल्ली शामिल हैं। वर्ष 2019-20 में वाहनों की सभी श्रेणियों में अनेक नए मॉडल बाजार में उतारे जाने की वजह से उनकी बिक्री में वर्ष 2018-19 के मुकाबले 20% का उछाल आया है। बेचे गए कुल 156000 इलेक्ट्रिक वाहनों (ई-रिक्शा को छोड़कर) में दोपहिया वाहनों की हिस्सेदारी करीब 90% है।

जनवरी से अक्टूबर 2020 के बीच पंजीकृत इलेक्ट्रिक वाहनों की संचयी बिक्री 91474 इकाइयों की है। क्षेत्रवार देखें तो उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा (27%) इलेक्ट्रिक वाहन बेचे गए हैं। उसके बाद बिहार (11%) और दिल्ली (10%) का स्थानन है।

भारतीय रेलवे वर्ष 2030 तक प्रदूषणकारी तत्वों के शून्य  उत्सर्जन का लक्ष्य तय कर रही है और खाली पड़ी जगहों पर 20 गीगावॉट सौर ऊर्जा उत्पादन प्लांट्स लगाने की उसकी योजना है। नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014 में भारतीय रेलवे से 6.84 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता था, जिसमें हर साल 18 टेरावाट बिजली की खपत होती थी। यह देश के कुल बिजली उत्पादन का करीब 2% है और इसकी पीक डिमांड लगभग 4000 मेगावाट है। मार्च 2019 तक भारतीय रेलवे के विद्युतीकरण का काम 34319 रूट किलोमीटर (आरकेएम) तक बढ़ गया है, जबकि भारतीय रेलवे का कुल नेटवर्क 67415 आरकेएम है। इस प्रकार विद्युतीकरण का दायरा कुल रेलवे नेटवर्क का लगभग 50% है। वर्ष 2013-14 में 610 आरकेएम का विद्युतीकरण हुआ था। वहीं 2018-19 में 5276 आरकेएम रेल नेटवर्क का विद्युतीकरण कार्य पूरा हो चुका है। यह एक साल में हुआ अब तक का सबसे बड़ा विद्युतीकरण कार्य है और यह पिछले वर्ष के मुकाबले 29% ज्यादा है।

सतत परिवहन परियोजनाओं को दिए जाने वाले सालाना औसत वित्तपोषण में वर्ष 2016-17 के मुकाबले 2017-18 में 43% की बढ़ोत्ततरी हुई। केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा मास रैपिड ट्रांसिट सिस्टम पर पूंजीगत व्यय और  निजी आवासीय तथा वाणिज्यिक  वर्गों में इलेक्ट्रिक तिपहिया वाहनों की बिक्री के कारण ऐसा हुआ।

चार पहिया वाहनों के मामले में मूलभूत ढांचा एक मुद्दा है और सरकार ने सही मूलभूत ढांचे के निर्माण के प्रति अपनी गंभीरता जाहिर की है और वह नगरों जैसे कि 100 स्मार्ट सिटीज को तरजीह देकर इस दिशा में आगे बढ़ रही है।

ओरिजिनल एक्विपमेंट्स मैन्युरफैक्चैरर्स (ओईएम) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। हमें उपभोक्ताओं को जानकारी देने के रास्तों के बारे में सोचने की जरूरत है तथा इलेक्ट्रिक वाहनों की रेंज और चार्जिंग वगैरह को लेकर उनके मन में व्याप्त गलतफहमियां को दूर करना होगा। पूरी दुनिया में इलेक्ट्रिक वाहनों के बाजार को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। हमें इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर जानकारी फैलाने के काम में तेजी लाने की जरूरत है।

ओईएम इकाइयों को हाथ मिलाने की तथा निजी घरों में चार्जिंग करने की जरूरत है, क्योंकि इलेक्ट्रिक वाहनों की करीब 80% चार्जिंग घरों में ही होगी। इसके अलावा वितरण कंपनियों के अंदर व्याप्त बड़े पैमाने पर विषमताओं की लास्ट माइल कनेक्टिविटी का समाधान भी निकालने की जरूरत है।

उपभोक्ताओं के लिए अच्छे मोबिलिटी समाधान निकालने होंगे। सरकार बैटरी और कार की कीमतों को अलग-अलग रखने के बारे में सोच रही है। ओईएम को काम करना पड़ेगा। इलेक्ट्रिक वाहनों में ही भविष्य है जो लंबे वक्त तक टिका रहेगा।

ज्यादातर नीतियां कारगर हैं और इसके लिए पूरी चीज को एक साथ लाने के लिए तैयारी की जरूरत होती है। हमें नीति को तोड़ने और यह देखने की जरूरत है कि अगले छह महीनों में यह क्या कर सकती है। दिल्ली की इलेक्ट्रिक वाहन संबंधी नीति में  उसके लागू होने के बाद से अब तक दो संशोधन किए जा चुके हैं। नीति को उद्योग और उपभोक्ताओं की सोच के अनुरूप होना चाहिए और उसमें उसी के अनुसार सुधार करना होगा।

अल्पकालिक और दीर्घकालिक होने के अलावा नीति को लागू किए जाने लायक समयबद्धता में विभाजित करना होगा और उसमें जमीनी हकीकत और ओईएम से मिलने वाली प्रतिक्रिया के अनुरूप सुधार करना होगा।

उपभोक्ताओं का ध्यान खींचने और उसके मापन के लिए हमें अल्पकाल में नीति निर्धारकों और ओईएम के साथ विभिन्न वर्गों में दो या तीन मिलियन अच्छे इलेक्ट्रिक वाहन मॉडल्स रखने की जरूरत है। ऐसा अल्पकालिक वित्तीय नीति के जरिए किया जा सकता है। हमें खरीद की सामर्थ्य से हटकर वैल्यू फॉर मनी की तरफ बढ़ने की जरूरत है। सरकार ने सीएनजी और एलईडी को अपनाने के लिए परोक्ष दबाव डालने में भूमिका निभाई है। उसी तरह से सरकार को इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने के लिए जोर लगाते हुए इसे अनिवार्य बनाना चाहिए।

ज़रूरी लचीलापन भी मौजूद

भारत में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन के तौर पर 30 देशों को मिलाकर कॉलीशान फॉर डिजास्टर रेसिलियंट इन्फ्राट्रक्चर (सीडीआरआई) के गठन का ऐलान किया है। यह गठजोड़ एक ऐसा ढांचा विकसित करने के साझा लक्ष्य के साथ काम करेगा जो जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संबंधी आपदाओं के दबाव के लिहाज से लचीला होगा। भारत ने सीडीआरआई में 4.8 अरब रुपए के निवेश का संकल्प व्यक्त किया है।

पानी को लेकर घरेलू स्तर पर उठाए जाने वाले कदमों की संपूरकता सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने जल शक्ति अभियान शुरू किया है। साथ ही पीने के साफ पानी की आपूर्ति, अंतर राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय साझा जल स्रोतों तथा विवादों से जुड़े मसलों से लेकर नदी सफाई परियोजनाओं तक के काम के लिए एक नया जल शक्ति मंत्रालय भी गठित किया है।

कम कार्बन उत्सर्जन के साथ सबका विकास

वर्ष 2019 में भारत और स्वीडन ने अन्य साझेदारों के साथ मिलकर इंडस्ट्री ट्रांजिशन ग्रुप का गठन किया था। इस समूह का उद्देश्य स्टील तथा सीमेंट जैसे दुरूह उद्योगों में वर्ष 2050 तक शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कम प्रदूषण कारी उपाय विकसित करना है।

भारत के कुकिंग एनर्जी प्रोग्राम के तहत 15 करोड़ घरों में स्वच्छ कुकिंग गैस कनेक्शन उपलब्ध कराए गए हैं। भारत ने वर्ष 2022 तक सिंगल यूज प्लास्टिक के इस्तेमाल को चरणबद्ध ढंग से खत्म करने का संकल्प व्यक्त किया है।

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