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जलवायु परिवर्तन कर सकता है पूरी दुनिया की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को ध्वस्त: लान्सेट

दुनिया का कोई भी देश, अमीर हो या ग़रीब, पूरी तरह से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए तैयार नहीं है। और कोविड के इस प्रकोप के दौरान हम बस भविष्य की सम्भावनाओं की एक झलक भर देख रहे हैं।

दरअसल एक बेहद चिंताजनक तस्‍वीर पेश करती लान्सेट काउंटडाउन की पांचवीं वार्षिक रिपोर्ट की मानें तो आने वाले समय में अगर जलवायु परिवर्तन को लगाम लगाने के लिए सही फैसले नहीं लिए गए तो पूरी दुनिया की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं ध्वस्त हो सकती हैं।

और आज जारी हुई लान्सेट की काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट रिपोर्ट 2020 रिपोर्ट के मुताबिक़ फ़िलहाल कोविड के दौरान जो कुछ सम्भावना भर लग रहा है, वो सब भयावह हक़ीक़त की शक्ल ले लेगा अगर अभी हमने जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ सही नीतिगत फैसले नहीं लिए तो।

जन स्‍वास्‍थ्‍य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रेखांकित करने वाली यह रिपोर्ट स्‍वास्‍थ्‍य एवं जलवायु परिवर्तन के बीच सम्‍बन्‍धों पर आधारित 40 से ज्‍यादा संकेतकों पर पड़ताल करने के बाद कुछ चिंताजनक तथ्य सामने रखती है। रिपोर्ट का दावा है कि दुनिया में कहीं भी स्वास्थ्य सेवाओं का तंत्र ऐसे किसी हालात के लिये पूरी तरह से तैयार नहीं है।

वैसे भी बढ़ती गर्मी की वजह से पूरी दुनिया में मृत्‍यु दर में तेजी से इजाफा हो रहा है। साथ ही यह तपिश करोड़ों लोगों की रोजीरोटी के लिये भी खतरा बन रही है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 महामारी के संकट से एक साथ निपटकर करोड़ों लोगों की जिंदगी और सेहत को बचाया जा सकता है।

रिपोर्ट के लेखक कहते हैं कि कोविड-19 महामारी से हुए नुकसान की भरपाई की प्रक्रिया हमें जलवायु परिवर्तन पर काम करने का एक सुनहरा मौका भी देती है। संकट में तब्दील हो रहे हालात में साथ मिलकर काम करने से जन स्वास्थ्य में सुधार करने, एक सतत अर्थव्यवस्था का निर्माण करने और पर्यावरण की सुरक्षा करने का मौका मिल रहा है।

अपनी प्रतिकिर्या देते हुए लान्सेट काउंटडाउन के अधिशासी निदेशक इयान हैमिल्टन कहते हैं, “कोविड-19 महामारी ने हमें दिखाया है कि जब वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य को खतरा पैदा होता है तो हमारी अर्थव्यवस्थाएं और जीवन जीने का तरीका बिल्कुल ठहर सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से इंसान के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले खतरे कई गुना बढ़ गए हैं और जब तक हम अपना तौर-तरीका नहीं बदलते, तब तक भविष्य में हमारी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्थाओं पर जोर पड़ने का खतरा बना रहेगा। इस साल अमेरिका के जंगलों में लगी विध्वंसकारी आग और कैरेबियन तथा पेसिफिक में चक्रवाती तूफान की घटनाएं कोविड-19 महामारी के साथ-साथ हुई हैं। इससे यह दुखद एहसास बिल्कुल साफ हुआ है कि दुनिया एक वक्त में सिर्फ एक संकट से निपटने जैसी आरामदायक स्थिति में नहीं है।”

काउंटडाउन रिपोर्ट में सामने आए नए तथ्यों से जाहिर होता है कि गर्मी के कारण अधिक उम्र के लोगों की मौत की घटनाओं में 54% का इजाफा हुआ है। इसके अलावा वर्ष 2019 में 65 साल से अधिक उम्र के लोगों पर हीटवेव एक्सपोजर के रिकॉर्ड 2.9 अरब अतिरिक्त दिन दर्ज किए गए हैं। यह आंकड़ा पूर्व में दर्ज किए गए सर्वाधिक आंकड़े का लगभग दो गुना है।

हालांकि लान्सेट की यह रिपोर्ट तैयार करने में मदद करने वाले 120 शीर्ष स्वास्थ्य तथा जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों और डॉक्टरों का यह भी कहना है कि अगर हमने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए फौरन कदम उठाए और वैश्विक तापमान में बढ़ोत्‍तरी को 2 डिग्री सेल्सियस से काफी नीचे रखने के अपने संकल्पों को पूरा करने की योजनाओं पर अमल किया तो हम  न सिर्फ इन खतरों को कम कर सकते हैं बल्कि स्वास्थ्य तथा अर्थव्यवस्था संबंधी फायदे भी उठा सकते हैं। साथ ही साथ इससे भविष्य में होने वाली महामारियों के खतरे को भी कम किया जा सकता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारकों से प्राणिजन्य महामारी (जानवरों से इंसानों में प्रवेश करने वाली संक्रामक बीमारियों के कारण उत्पन्न होने वाली महामारी का खतरा) का खतरा भी बढ़ सकता है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की अगुवाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक समेत 35 से ज्यादा संगठनों के विशेषज्ञों की मदद से तैयार यह रिपोर्ट पेरिस समझौते की पांचवी सालगिरह पर प्रकाशित की गई है। इस समझौते के तहत पूरी दुनिया ने वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को दो डिग्री सेल्सियस से काफी नीचे रखने की प्रतिज्ञा ली थी।

नवगठित लान्सेट काउंटडाउन रीजनल सेंटर फॉर एशिया की निदेशक और बीजिंग स्थित सिंघुवा यूनिवर्सिटी से जुड़ी डॉक्टर वेनजिया काई ने कहा “पेरिस समझौते की पांचवी वर्षगांठ के मौके पर हमें जलवायु परिवर्तन के कारण जन स्वास्थ्य तथा हमारी पीढ़ी पर पड़ने वाले सबसे बुरे प्रभावों पर बात करनी चाहिए।”

जलवायु से जुड़े सेहत संबंधी खतरे

चाहे छोटे द्वीप हों या बड़े शहर, अत्यधिक गर्मी के प्रभावों का अनुमान लगाने और उनके हिसाब से खुद को ढालने के कामयाब रास्तों की तलाश में होने वाली दिक्कतों की वजह से भविष्य में जलवायु परिवर्तन के कारण सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों में वृद्धि हो सकती है।

दुनिया के सभी हिस्सों में अधिक जोखिम वाले लोगों में गर्मी के कारण होने वाली मौतों की संख्या में इजाफा भी इन प्रभावों में शामिल है। साल 2018 में सिर्फ़ गर्मी के कारण दुनिया भर में 296000 लोगों की मौत हुई। बढ़ती तपिश की वजह से रोजी-रोटी पर भी खतरा पैदा हुआ है, क्योंकि गर्मी की वजह से विकासशील इलाकों में लोगों के लिए बाहर काम करना दूभर होता जा रहा है। इसकी वजह से अर्थव्यवस्था पर भी उल्लेखनीय असर पड़ रहा है। दुनिया भर में तपिश की वजह से 302 अरब कार्य घंटों का नुकसान हुआ, जिसका 40% हिस्सा भारत के खाते में आया है।

गर्मी और सूखे के कारण जंगलों में लगने वाली आग के असर में भी तेजी से बढ़ोत्‍तरी हो रही है। इसकी वजह से जलने की घटनाओं के साथ-साथ दिल तथा फेफड़ों को भी धुएं से नुकसान हो रहा है। 2000 के दशक के शुरू से अब तक 128 देशों में जंगलों की आग से आबादी पर पड़ने वाले असर में बढ़ोत्‍तरी देखी गई है।

रिपोर्ट में यह पाया गया है कि इस सदी के अंत तक समुद्र के जलस्तर में होने वाली अनुमानित वृद्धि की वजह से 56 करोड़ 50 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है। इसकी वजह से उन्हें स्वास्थ्य संबंधी व्यापक नुकसान होने का खतरा बढ़ जाएगा।

लांसेट काउंटडाउन के अध्यक्ष और इंटेंसिव केयर डॉक्टर प्रोफेसर ह्यू मोंटगोमरी ने कहा “जलवायु परिवर्तन एक क्रूर स्थिति की तरफ ले जा रहा है, जिससे देशों के बीच और उनके अंदर स्वास्थ्य संबंधी मौजूदा असमानताएं और गहरी हो जाएंगी। हमारी रिपोर्ट से यह जाहिर होता है कि कोविड-19 के कारण बुजुर्ग लोग खासतौर पर अधिक खतरे के घेरे में हैं और दमे तथा डायबिटीज से पहले से ही ग्रस्त लोगों पर खतरा और भी बढ़ गया है।”

रिपोर्ट में पेश किए गए आंकड़ों से यह पता चलता है कि तमाम सुधारों के बावजूद मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं की क्षमता भविष्य में आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए काफी नहीं है। सर्वेक्षण के दायरे में लिए गए केवल 50% देशों ने ही अभी तक अपने यहां स्वास्थ्य तथा जलवायु संबंधी राष्ट्रीय योजनाएं तैयार की हैं और उनमें से मात्र चार देशों ने ही यह बताया है कि उनके पास इसके लिए पर्याप्त राष्ट्रीय फंडिंग मौजूद है। इसके अलावा आधे से भी कम देशों ने स्वास्थ्य संबंधी जोखिम और अनुकूलन से जुड़े आकलन कराये हैं। इस बीच, सर्वे के दायरे में लिए गए दो तिहाई वैश्विक शहरों में जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य सेवा संबंधी ढांचे पर बेहद गंभीर असर पड़ने की आशंका है।

महामारी और जलवायु परिवर्तन के संकट का एकजुट होना

नई रिपोर्ट के साथ साथ प्रकाशित हुआ लान्सेट संपादकीय यह जाहिर करता है कि जलवायु परिवर्तन और प्राणीजन्य महामारी के खतरे साझा कारणों से उत्पन्न होते हैं, नतीजतन एक-दूसरे से जटिल तरीके से गुथे होने के कारण उनसे एक साथ निपटना होगा। जलवायु परिवर्तन और उसके कारकों के कारण नगरीयकरण बढ़ने, सघन कृषि तथा गैर सतत खाद्य प्रणालियों, हवाई यात्रा तथा पर्यटन, व्यापार और जीवाश्म ईंधन आधारित जीवन शैली से पर्यावरण को नुकसान होता है। इससे ऐसी परिस्थितियां पैदा होती हैं जिनसे प्राणीजन्य बीमारियों को बढ़ावा मिलता है।

लांसेट के एडिटर इन चीफ डॉक्टर रिचर्ड हॉर्टन ने कहा “अगर हम भविष्य में महामारियों का खतरा कम करना चाहते हैं तो हमें जलवायु परिवर्तन संबंधी संकट पर प्राथमिकता से काम करना होगा। जलवायु परिवर्तन आज जूनोसेस पैदा करने वाली सबसे शक्तिशाली ताकतों में से एक है। देर से कदम उठाने से बड़ी संख्या में ऐसे लोगों की मौत हो सकती है जिनकी मृत्यु को टाला जा सकता था।”

कोविड-19 से हुए नुकसान की प्रदूषण मुक्त भरपाई

ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक तापमान में बढ़ोत्‍तरी को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखकर और जलवायु तथा महामारी के कारण हुए नुकसान की भरपाई को एक दूसरे के अनुरूप बनाकर हमारी दुनिया स्वास्थ्य तथा अर्थव्यवस्था संबंधी अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक लाभों को हासिल कर सकती है।

जीवाश्म ईंधन को जलाने से फैलने वाले प्रदूषण के कारण हर साल 70 लाख लोगों की मौतें इस क्षमता की तरफ इशारा करती हैं। डब्ल्यूएचओ यूरोप क्षेत्र में स्वच्छ ऊर्जा और परिवहन के क्षेत्रों में उठाए गए सुधारात्मक कदमों से बड़ा अंतर देखने को मिला है। इन कदमों के कारण वर्ष 2015 में पीएम 2.5 वायु प्रदूषण के कारण प्रति लाख 62 लोगों की मौत का आंकड़ा वर्ष 2018 में घटकर प्रति लाख 59 मौतों का हो गया है। उसी साल पूरी दुनिया में कोयला जलाए जाने से उठने वाले पीएम 2.5 प्रदूषक के कारण होने वाली मौतों की संख्या में 50000 की गिरावट हुई है।स्वास्थ्य को मिलने वाले फायदे की वजह से अर्थव्यवस्था को कई बिलियन डॉलर का फायदा हो सकता है। यह धनराशि प्रदूषणकारी तत्वों के उत्‍सर्जन में कमी लाने पर होने वाले खर्च से अधिक हो सकती है। इस तरह यह प्रदूषण मुक्त अर्थव्यवस्था बनाने की मजबूत पैरवी करता है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2019 तक 5 सालों के दौरान यूरोपीय संघ के देशों में वायु की गुणवत्ता में हुए सुधारों को अगर धनराशि में तब्दील किया जाए तो सुधारों की रफ्तार बरकरार रहने की स्थिति में यह एक अनुमान के मुताबिक सालाना 8.8 अरब डॉलर हो सकती है। जलवायु परिवर्तन के कारण जीवन वर्षों को होने वाले नुकसान की सालाना औसत में कमी को देखते हुए भविष्य में यह आंकड़े वायु की गुणवत्ता में और सुधार के साथ बेहतर होते जाएंगे।

खाद्य पदार्थों के उत्पादन की वजह से दुनिया भर में होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का एक चौथाई हिस्सा उत्पन्न होता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन में पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य विभाग की निदेशक मारिया नीरा कहती हैं, “पूरी दुनिया में कोविड-19 महामारी से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए कई ट्रिलियन डॉलर खर्च किए जा रहे हैं। ऐसे में हमारे पास महामारी के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के तरीकों को एक साथ जोड़ कर आगे बढ़ाने और इससे तिहरी जीत हासिल करने का बेहतरीन मौका है। पहली जीत यह है कि इससे जन स्वास्थ्य में सुधार होगा। दूसरी, इससे सतत अर्थव्यवस्था बन पाएगी और तीसरी, इससे पर्यावरण की सुरक्षा होगी। मगर हमारे पास समय कम है।”

बात भारत की

2010 के बाद से भारत में हीटवेव एक्सपोजर के 10 उच्चतम रैंकिंग वर्षों में से आठ हुए हैं। इस बीच, 65 से अधिक वर्ष के लोगों मेंगर्मी से संबंधित मौतों की शुरुआत 2000 के दशक के बाद से दोगुनी हो कर 2018 में 31,000 से अधिक हो गई है।

स्वास्थ्य एडापटेशन भारत का प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ $ 0.80 है, लेकिन 2015/16 में $ 0.60 प्रति व्यक्ति से यह बढ़ गया है। नवीनतम वर्ष में उपलब्ध (2018) में इनडोर और बाहरी वायु प्रदूषण से लगभग 7 मिलियन मौतों के साथ वायु प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर व्यापक प्रभाव है। जबकि समस्या वैश्विक चिंता का विषय है, भारत जैसे देशों में निरपेक्ष संख्या सबसे बड़ी है, जहाँ बाहरी वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोत से एक वर्ष में लगभग आधे मिलियन लोगों की मृत्यु होती है। घरों, बिजली संयंत्रों और उद्योग द्वारा कोयला दहन इनमें से लगभग 100,000 के लिए जिम्मेदार था।

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