शर्म-अल-शेख में पिछले साल जिस लॉस एंड डैमेज फंड की घोषणा हुई थी वह विकसित देशों की ज़िद में फंस गया है। फोटो: UNclimatechange/Flickr

अमीर देशों की जिद में फंसा लॉस एंड डैमेज फंड

अगले महीने शुरू होने वाले कॉप28 महासम्मेलन से पहले लॉस एंड डैमेज फंड को लेकर पेंच फंस गया है और कोई सहमति बनती नहीं दिख रही है। जहां विकासशील देश इसे एक स्वतंत्र फंड बनाना चाहते हैं, वहीं अमीर देश, खास तौर पर अमेरिका चाहता है कि इसे विश्व बैंक के तहत लाया जाए।

ग्लोबल साउथ के देशों का कहना है कि ऐसा करना लॉस एंड डैमेज फंड की कल्पना और उद्देश्यों के विरुद्ध होगा। इस मुद्दे पर मिस्र के असवान शहर में हुई यूएन ट्रांज़िशनल कमेटी की बैठक बेनतीजा रही

पिछले साल शर्म-अल-शेख में हुए कॉप27 जलवायु महासम्मेलन के दौरान, लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा था। ‘लॉस एंड डैमेज’ जलवायु परिवर्तन के उन प्रभावों को कहा जाता है, जिनसे अडॉप्टेशन यानी अनुकूलन के द्वारा बचा नहीं जा सकता। विशेषकर गरीब देशों में, जिनका वैश्विक उत्सर्जन में योगदान बहुत कम है, जिन लोगों को जलवायु परिवर्तन के इस प्रभावों से नुकसान होता है, उससे निपटने के लिए उन्हें इस फंड के माध्यम से धन मुहैया कराया जाना है।

कॉप27 में हुए निर्णय के बाद इस फंड की स्थापना और संचालन की रूपरेखा तैयार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने ट्रांज़िशनल कमेटी बनाई थी। लेकिन चार बैठकों के बाद भी अबतक कोई नतीजा नहीं निकला है। फंड को विश्व बैंक के अंतर्गत लाने के अमेरिका के प्रयासों से विकासशील देश नाराज़ हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से फंड पर अमेरिका का कब्जा हो जाएगा।

ग्लोबल साउथ के वार्ताकारों और विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व बैंक हमेशा शेयरहोल्डरों को अधिक महत्त्व देता है, और वह अनुदान की बजाय लोन देना पसंद करेगा। इससे गरीब देशों पर कर्ज और बढ़ेगा। साथ ही, विश्व बैंक ने अभी पिछले हफ्ते ही जलवायु परिवर्तन से निपटने को अपने मिशन का हिस्सा बनाया है, इसलिए उसके पास इस तरह के फंड को सुचारु रूप से चला पाने की दक्षता नहीं है।

कौनसे देश लॉस एंड डैमेज फंड के तहत अनुदान के अधिकारी हैं और किन देशों को इसमें योगदान करना चाहिए, इसे लेकर भी गहरे मतभेद हैं। विकसित देश चाहते हैं कि “सबसे असुरक्षित” देशों की श्रेणी में केवल अल्पविकसित देशों (एलडीसी) और लघुद्वीपीय विकासशील देशों (एसआईडीएस) को रखा जाना चाहिए। इस सीमित परिभाषा में पकिस्तान और लीबिया जैसे देश नहीं आते हैं, जिन्हें हाल ही में जलवायु परिवर्तन से काफी नुकसान हुआ है।

वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि भारत और चीन जैसे प्रमुख उत्सर्जकों समेत उन सभी देशों को इसमें योगदान देना चाहिए जो ऐसा कर सकते हैं।

दूसरी ओर, विकासशील देशों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाले सभी गरीब देशों को इस फंड का लाभ मिलना चाहिए, विशेष रूप से उन्हें जहां अधिक संवेदनशील समुदाय रहते हैं। साथ ही, उनका कहा है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के प्रयासों को केवल वर्तमान नहीं बल्कि ऐतिहासिक उत्सर्जन के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए, और जो देश ऐतिहासिक रूप से बड़े उत्सर्जक रहे हैं उनका इसमें अधिक योगदान होना चाहिए।बहरहाल, अबू धाबी में 3 से 5 नवंबर को फिर इन मुद्दों पर चर्चा होगी। देखना यह है कि वहां कुछ निर्णय हो पाता है या नहीं।

क्लाइमेट एक्शन में फिसड्डी दिख रहे विकसित देश 

तेज़ी से हो रही तापमान वृद्धि और बढ़ते जलवायु परिवर्तन प्रभावों के बावजूद क्लाइमेट एक्शन के मामले में विकसित देश फिसड्डी दिख रहे हैं। यह बात एक बार फिर सामने आई है।

इस बार दिल्ली स्थित काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट, और वॉटर (सीईईडब्लू) की ताज़ा रिपोर्ट में सामने आई है। विकसित देशों में केवल दो देश नॉर्वे और बेलारूस ही हैं जो कार्बन इमीशन को घटाने में तय राष्ट्रीय संकल्प (एनडीसी) को पूरा करते हैं।

अगर सभी विकसित देश 2030 तक अपने तय घोषित लक्ष्यों को पूरा भी करते हैं तो भी उनका इमीशन (2019 के स्तर से) केवल 36% कम होगा जबकि धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री के नीचे रखने के लिए 43% की कटौती ज़रूरी है।

यह अनुमान है कि 2030 में विकसित देश अपने कार्बन बजट से 3.7 गीगावॉट अधिक कार्बन उत्सर्जित करेंगे जो कि उन्हें आवंटित कार्बन बजट से 38% अधिक है। 

जलविद्युत परियोजनाएं हिमालयी क्षेत्र में बढ़ा रही आपदाएं: विशेषज्ञ 

विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि पर्यावरण नियमों और सेफगार्ड्स की अनदेखी कर बनाए जा रहे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में आपदाएं बढ़ा रहे हैं। पिछले महीने सिक्किम में लोहनक झील के फटने से राज्य के तीन ज़िलों में भारी तबाही हुई और 1,200 मेगावॉट का तीस्ता-3 जल विद्युत प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया। विशेषज्ञों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के मुताबिक तीस्ता नदी पर बनी बांधों की कतार से संभावित आपदाओं की चेतावनी लगातार दी गई है और तीस्ता-4 प्रोजेक्ट को रद्द करने की मांग हो रही है। 

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिमनद झीलों (ग्लेशियल लेक) के फटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और विशेषज्ञों का कहना है कि इस कारण अचानक बाढ़ की स्थिति में हाइड्रो पावर डैम आपदा को बढ़ाने का काम करते हैं। साल 2015 में सेंट्रल वॉटर कमीशन ने एक स्टडी की जिसमें यह बताया गया कि सिक्किम तीस्ता नदी पर बने ज़्यादातर बांध उच्च संकटग्रस्त इलाकों में हैं। हिमाचल प्रदेश में जून-जुलाई में भारी बाढ़ के पीछे बांधों के रोल पर सवाल उठे थे। विशेषज्ञ कहते हैं कि बांध सुरक्षा क़ानून (डैम सेफ्टी एक्ट) में बांधों की बनावट की सुरक्षा की बात तो है लेकिन उनके सुरक्षित संचालन के लिये नियम कायदे नहीं हैं।  

जलवायु वार्ता रणनीति के लिए अंतर मंत्री समूह 

दुबई में होनी वाले जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) से पहले भारत ने अंतर मंत्री समूह (इंटर मिनिस्टीरियल ग्रुप) का गठन किया है।  इस सालाना वार्ता में दुनिया के करीब 200 देश हिस्सा लेंगे। समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक मंत्री समूह के तहत पांच उप-समूहों का गठन किया है जिनमें ऊर्जा, कोयला, नवीनीकरणीय ऊर्जा और वन, पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज जैसे मंत्रालयों के अधिकारी होंगे। 

नवंबर-दिसंबर में होने वाली वार्ता में कोयले और दूसरे जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करने और विकासशील और गरीब देशों को जलवायु प्रभावों से हो रही हानि (लॉस एंड डैमेज) के लिए बने फंड को प्रभावी करने जैसे मुद्दों पर चर्चा होनी है।

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