Newsletter - November 21, 2022
लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना लेकिन जीवाश्म ईंधन की कटौती से मुकरे देश
कई उतार-चढ़ाव देखने के बाद आखिर शर्म-अल-शेख में वह एकमात्र बड़ी कामयाबी हो पाई जिसकी कोशिश विकासशील देश कई वर्षों से कर रहे थे।
बढ़ती जलवायु आपदाओं और उससे जान-माल की क्षति के बाद मिस्र में हुए इस सम्मेलन में आखिरकार हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) फंड की स्थापना हो गई। हालांकि इस फंड के इस्तेमाल और इसमें आने वाले धन और उसके बंटवारे की बारीकियां आने वाले दो साल में तय होंगी। इस फंड की स्थापना जलवायु परिवर्तन वार्ता के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जा रहा है है लेकिन इसकी कामयाबी इसके प्रभावी क्रियान्वयन पर निर्भर है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव की चेतावनी
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिस ने कहा, “हानि और क्षति के लिये वित्तीय कोष का गठन आवश्यक है – लेकिन अगर जलवायु संकट के कारण एक छोटा द्वीप देश दुनिया के मानचित्र से विलुप्त हो जाता है या अगर पूरा अफ्रीका रेगिस्तान में तब्दील हो जाये तो यह फंड कोई हल नहीं है। दुनिया को क्लाइमेट एक्शन की दिशा में अभी भी एक बड़ा कदम उठाने की ज़रूरत है।”
गुट्रिस का बयान स्पष्ट रूप से अंधाधुंध उत्सर्जनों की ओर इशारा है जिन्हें लेकर दुनिया भर के जानकार और आईपीसीसी के वैज्ञानिक भी चेतावनी देते रहे हैं। छठी आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि इमीशन कम करने के लिये तमाम देशों द्वारा घोषित लक्ष्य नाकाफी हैं। सम्मेलन में यह बात स्वीकार की गई कि धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से नीचे रखना ज़रूरी है। इसके लिये साल 2030 तक दुनिया के कुल उत्सर्जनों में 43 प्रतिशत की कमी (2019 से स्तर से) की जरूरत होगी। संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने 2030 तक (2010 के स्तर के मुकाबले) 45 प्रतिशत इमीशन कट की बात कही थी।
लम्बी लड़ाई लेकिन उत्सर्जक बेलगाम
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के ग्लोबल एक्सपर्ट हरजीत सिंह का कहना है कि इस फंड की स्थापना के बाद भी बहुत काम किया जाना है लेकिन यह एक कामयाबी ज़रूर है और इससे अंधाधुंध उत्सर्जन कर रहे देशों पर लगाम लगेगी क्योंकि उन्हें यह डर होगा कि जलवायु जनित विनाश करके बच नहीं सकते।
लेकिन शर्म-अल-शेख सम्मेलन में शमन (मिटिगेशन) को लेकर कुछ हाथ नहीं आया और सभी प्रकार के जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध प्रयोग में कटौती को समझौते में लिखित रूप में शामिल नहीं किया गया जो एक बड़ा धक्का है। हालांकि एक्शन प्लान में इस बात पर जोर दिया गया कि सभी देशों को ग्रीनहाउस उत्सर्जन में तत्काल और बड़ी कटौती करने की जरूरत है। ऐसा उत्सर्जन में कमी, नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि, न्यायपूर्ण ऊर्जा संक्रमण (जस्ट ट्रांजिशन) की भागेदारियों और आपसी सहयोग के माध्यम से किया जा सकता है।
संकटों से घिरे साल में “अफ्रीकी सम्मेलन”
मिस्र में आयोजित इस क्लाइमेट चेंज वार्ता को एक अफ्रीकी सम्मेलन के तौर पर देखा जा रहा था। अफ्रीकी देश अभी सबसे अधिक जलवायु संकटग्रस्त देशों में हैं। इस साल भारत समेत पूरी दुनिया को अभूतपूर्व हीटवेव का सामना करना पड़ा है और पाकिस्तान में बाढ़ और अन्य जगहों पर आपदाओं के साथ साथ रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले और ज़बरदस्त महंगाई के कारण यह सम्मेलन बड़ी विषम परिस्थितियों में हुआ।
कॉप 27 में यह स्वीकार किया गया कि अभूतपूर्व वैश्विक ऊर्जा संकट को देखते हुए ऊर्जा प्रणालियों को तेजी से अधिक सुरक्षित, विश्वसनीय और लचीला बनाने की आवश्यकता है। इस महत्वपूर्ण दशक के दौरान नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्वच्छ और न्यायोचित परिवर्तन में गति लाना जरूरी है। शर्म-अल-शेख एक्शन प्लान में माना गया कि साल 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन हासिक करने के लिये ज़रूरी है कि अगले 8 सालों में लगभग $4 ट्रिलियन (320 लाख करोड़ रुपये) प्रति वर्ष अक्षय ऊर्जा में निवेश करने की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप ऊर्जा मिश्रण और प्रणालियों में विविधता लाने की दिशा में एक स्वच्छ ऊर्जा मिश्रण को बढ़ाने के महत्व पर बल दिया गया। कम-उत्सर्जन और नवीकरणीय ऊर्जा में बढ़ोत्तरी और न्यायोचित परिवर्तन का समर्थन करने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया।
पूर्व चेतावनी प्रणाली को लागू करना
कॉप-27 सम्मेलन के पहले ही विश्व मौसम संगठन द्वारा पूरी दुनिया में पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित करने हेतु 5 साल की योजना का ऐलान किया गया था। इसके लिये अगले 5 साल में 310 करोड़ डॉलर के निवेश का ऐलान किया गया। शर्म-अल-शेख में वैश्विक जलवायु अवलोकन प्रणाली में मौजूदा कमियों को दूर करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है, विशेष रूप से विकासशील देशों में। दुनिया में साठ प्रतिशत अफ्रीका सहित एक तिहाई विश्व के पास प्रारंभिक चेतावनी और जलवायु सूचना प्रणाली नहीं है।
भारत – जिसके पास विस्तृत संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र और हज़ारों किलोमीटर लंबी समुद्र तटरेखा के साथ बड़ी आबादी संकटग्रस्त इलाकों में रहती है – के लिये अर्ली वॉर्निंग सिस्टम काफी उपयोगी साबित हुये हैं।
उत्तराखंड में 2021 में चमोली के तपोवन गांव में आई बाढ़ का आकलन करते हुए वैज्ञानिकों ने पाया था कि घटना के पहले वह क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय था। घटना के कारणों का जिक्र करते हुए वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में एक एकीकृत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की आवश्यकता पर बल दिया था।
इसी प्रकार 2013 में केदारनाथ में हुई भयंकर तबाही भी हिमालयी क्षेत्रों में इस चेतावनी प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित किया था। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण इस प्रकार की आपदाएं बढ़ रही हैं और इनसे होने वाले आर्थिक और जान-माल के भारी नुकसान को देखते हुए, जल्द से जल्द ऐसी प्रणाली को स्थापित करना महत्वपूर्ण है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि किस तरह चक्रवातों की प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली ने हमें बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में आनेवाले चक्रवातों के बारे में पहले से ही आगाह कर दिया था जिसके कारण ऐसे कदम उठाए जा सके जिनसे इन आपदाओं से होनेवाली भारी क्षति को टाला जा सका। इसलिए, जैसे चक्रवातों के लिए भारत के पास चेतावनी प्रणाली है वैसे ही हिमालयी क्षेत्रों में भी इसे स्थापित करने की आवश्यकता है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने 23 मार्च 2022 को विश्व मौसम विज्ञान दिवस पर कहा था कि अगले पांच वर्षों के भीतर पूरी दुनिया के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली लाकर सभी को एक्सट्रीम वेदर और जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से बचाया जाए। सम्मेलन में उनके इस आह्वान का स्वागत किया गया और इसे दोहराया गया।
मिटिगेशन: उत्सर्जन में 43% कटौती का इरादा, लेकिन जीवाश्म ईंधन पर अड़े देश
मिटिगेशन को लेकर चर्चा फीकी रही। खींचतान के बीच 1.5 डिग्री के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश जारी रखी गई लेकिन उसके लिये ‘सभी प्रकार के जीवाश्म ईंधन कि कटौती’ शब्दावली को वार्ता के सहमति पत्र में शामिल नहीं किया गया।
बिजली उत्पादन के दौरान कार्बन उत्सर्जन को कम करना और वातावरण से कार्बन सोखने की व्यवस्था करना मिटिगेशन कहलाता है। जैसे नवीनीकरणीय बिजली स्रोत और जंगलों को लगाना।
कॉप -27 में घोषित शर्म-अल-शेख क्रियान्वयन योजना में यह स्वीकार किया गया कि ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिये 2030 तक उत्सर्जन में (2019 के स्तर के मुकाबले) 43 प्रतिशत की त्वरित, तीव्र और लगातार कटौती करनी होगी। महत्वपूर्ण है कि आईपीसीसी ने 2030 के स्तर के मुकाबले 45% कटौती की बात कही थी। लेकिन कॉप -27 में सभी प्रकार के जीवाश्म ईंधन के प्रयोग में कटौती (फेज़ डाउन) की शब्दावली को शामिल नहीं किया जा सका।
शर्म-अल-शेख प्लान में यह भी माना गया है कि इस महत्वपूर्ण दशक में इक्विटी (यानी जिसने जितना अधिक प्रदूषण किया है वह उतनी ज़िम्मेदारी निभाये) और सर्वोत्तम वैज्ञानिक जानकारियों के आधार पर त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता है, जिसमें विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप और सतत विकास तथा गरीबी उन्मूलन के प्रयासों के संदर्भ में समान लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियां और क्षमताएं झलकती हों। हालांकि अमीर और विकसित देश मिटिगेशन को इक्विटी से अलग करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
देशों से कहा गया कि वह कम-उत्सर्जन की ओर बढ़ने में सहायक तकनीक के विकास और प्रसार में तेजी लाएं और इसके लिए नीतियां बनाएं। स्वच्छ बिजली उत्पादन और ऊर्जा दक्षता (यानी कम बिजली के इस्तेमाल से अधिक उत्पादकता) को बढ़ावा दें।
कोयले के प्रयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करें और जीवाश्म ईंधन को मिलने वाली सब्सिडी बंद करें। लेकिन ऐसा करते हुए राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप सबसे गरीब और कमजोर तबकों को सहायता प्रदान करें और न्यायोचित परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता को पहचानें।
मीथेन सहित गैर-कार्बन डाइऑक्साइड ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक कम करने के लिए आगे की कार्रवाइयों पर विचार करने के लिए देशों को एक बार फिर निमंत्रित किया गया।
पेरिस समझौते के तापमान लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रकृति और पारितंत्र की रक्षा, संरक्षण और बहाली के महत्व पर जोर दिया गया। वन और अन्य स्थलीय और समुद्री पारितंत्र ग्रीनहाउस गैसों को रोकें तथा सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए, जैव विविधता की रक्षा की जाए।
अनुकूलन प्रयासों में गरीब देशों की तकनीकी और वित्तीय सहायता करें विकसित देश
आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु आपदाओं से लड़ने के लिए जिस स्तर पर अनुकूलन की तैयारी चाहिए उसके मुकाबले अभी क्षमता काफी कम है। एक्शन प्लान में अनुकूलन क्षमता और लचीलापन बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन के जोखिम को कम करने के लिए परिवर्तनकारी दृष्टिकोण अपनाने के लिए कहा गया है।
उत्सर्जन को कम करने और ग्लोबल वॉर्मिंग की रफ्तार को घटाने के बाद लोगों और समुदायों को जलवायु आपदाओं से बचाने की कोशिशों को एडाप्टेशन या अनुकूलन कहा जाता है।
शर्म-अल-शेख वार्ता में अनुकूलन में कमी को लेकर गंभीर चिंता जताई गई है; आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु आपदाओं से लड़ने के लिये जिस स्तर पर अनुकूलन की तैयारी चाहिए उसके मुकाबले अभी क्षमता काफी कम है।
एक्शन प्लान में अनुकूलन क्षमता और लचीलापन बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन के जोखिम को कम करने के लिए परिवर्तनकारी दृष्टिकोण अपनाने के लिये कहा गया है।
विकसित देशों से आग्रह किया गया कि वह क्लाइमेट फाइनेंस और तकनीकी सहायता प्रदान करके विकासशील देशों की अनुकूलन क्षमता बढ़ने में मदद करें ताकि वह अपनी राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं को लागू कर सकें।
जलवायु परिवर्तन का सामना करने में विकासशील देशों की मदद के लिए लीस्ट डेवलप्ड कंट्रीज़ फंड और स्पेशल क्लाइमेट चांस फंड की भूमिका पर प्रकाश डाला गया। दोनों कोषों के लिए किए गए वादों का स्वागत किया गया और विकसित देशों को दोनों कोषों में और योगदान करने के लिए आमंत्रित किया गया।
इसके अलावा नदी घाटियों, जलभृतों और झीलों सहित जल और जल से संबंधित पारितंत्रों की रक्षा, संरक्षण और बहाली के महत्व पर बल दिया गया, और देशों से अनुकूलन प्रयासों में जल का एकीकरण बढ़ाने का आग्रह किया गया।
तापमान वृद्धि के अनुपात में वित्तीय मदद बहुत कम, बदलाव की मांग
क्लाइमेट फाइनेंस जलवायु परिवर्तन से जंग में सबसे महत्वपूर्ण है। कॉप27 में माना गया कि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री से कम रखने के लिए जितना धन चाहिए, क्लाइमेट फंड के तहत उसका एक तिहाई भी नहीं दिया गया है।
क्लाइमेट फाइनेंस जलवायु परिवर्तन वार्ता का एक बड़ा महत्वपूर्ण पहलू है। विकसित देशों द्वारा 2020 तक शमन कार्रवाई के लिए प्रति वर्ष संयुक्त रूप से 100 बिलियन अमरीकी डालर प्रदान करने का लक्ष्य पूरा नहीं होने पर भी गंभीर चिंता व्यक्त की गई, और उनसे आग्रह किया गया कि वह इस लक्ष्य को पूरा करें। साल 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए 2030 तक लगभग $4 ट्रिलियन प्रति वर्ष अक्षय ऊर्जा में निवेश करने की आवश्यकता है।
पूरे विश्व को एक कम-कार्बन अर्थव्यवस्था बनने के लिए प्रति वर्ष कम से कम $4-6 ट्रिलियन के निवेश की आवश्यकता है। इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि इस तरह की फंडिंग के लिए वित्तीय प्रणाली और इसकी संरचनाओं और प्रक्रियाओं में परिवर्तन जरूरी है। इसके लिए सरकारों, केंद्रीय बैंकों, वाणिज्यिक बैंकों, संस्थागत निवेशकों और अन्य वित्तीय अभिकर्ताओं के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है।
विकासशील देशों की जरूरतों और उन्हें मिले योगदान के बीच बढ़ती खाई पर चिंता व्यक्त की गई, विशेष रूप से ऐसे देश जिनपर कर्ज बहुत है और उनपर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बढ़ रहा है। इस बात पर प्रकाश डाला गया कि 2030 से पहले इस तरह की जरूरतों के लिए वर्तमान में लगभग 5.8–5.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर चाहिए।
इस बात पर जोर दिया गया कि विकसित देशों और अन्य स्रोतों से विकासशील देशों के लिए त्वरित वित्तीय सहायता शमन कार्रवाई को बढ़ाने और असमानताओं को दूर करने के लिए जरूरी है। कमजोर क्षेत्रों, विशेष रूप से सब-सहारन अफ्रीका को शमन और अनुकूलन के लिए अतिरिक्त सार्वजनिक अनुदान कम लागत पर अधिक परिणाम देगा।
क्लाइमेट ट्रांसपरेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में भारत को एक्सट्रीम वेदर की घटनाओं से लगभग 8,700 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ। वहीं 2021 में ग्रीनहाउस उत्सर्जन के कारण बढ़ी गर्मी से भारत को 15,900 करोड़ डॉलर की क्षति हुई।
बढ़ते तापमान से सेवाओं, मैन्युफैक्चरिंग, कृषि और निर्माण क्षेत्रों की आय में कमी आई है, जिससे भारत को होनेवाला नुकसान सकल घरेलू उत्पाद का 5.4% है।
तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर भारत में चावल का उत्पादन 10-30% तक, और मक्के का उत्पादन 25-70% तक गिर सकता है।
इस साल अगस्त में एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में क्लाइमेट फाइनेंस देश की वर्तमान आवश्यकता से बहुत कम है। रिपोर्ट ने पाया था कि 2019-2020 में भारत का ग्रीन फाइनेंस लगभग 309,000 करोड़ रुपए (लगभग $44 बिलियन) प्रति वर्ष था, जो भारत की जरूरतों के एक चौथाई से भी कम है। पेरिस समझौते के तहत अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारत को हर साल लगभग 11 लाख करोड़ रुपए ($170 बिलियन) की आवश्यकता है।
भारत समेत अन्य विकाशील देश, विकसित देशों को एक नए वैश्विक क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य पर सहमत होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। भारत को उम्मीद है कि विकसित देश जल्द से जल्द एक ट्रिलियन डॉलर का जलवायु वित्त मुहैया कराएंगे।
भारत ने जलवायु वित्त की परिभाषा पर भी स्पष्टता मांगी। विशेषज्ञों का मानना है इस परिभाषा के अभाव में विकसित देशों को ग्रीनवॉशिंग का अवसर मिल जाता है। भारत ने इस बात पर भी जोर दिया कि 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर प्रदान करने में देरी और कार्यान्वयन में कमी पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
अभी जलवायु वित्त विकासशील देशों की जरूरतों के हिसाब से बहुत कम है। मसलन 2019-2020 में यह लगभग 803 बिलियन अमरीकी डॉलर था, जो वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे या 1.5 डिग्री सेल्सियस पर बनाए रखने के लिए आवश्यक वार्षिक निवेश का 31-32 प्रतिशत ही है।
क्लाइमेट फाइनेंस के अलावा लॉस एंड डैमेज फंड की मांग पिछले करीब 30 सालों से हो रही है। आखिरकार ‘विशेष रूप से संकटग्रस्त देशों के लिए’ अब इस फंड की स्थापना हो गई है जो इस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की एकमात्र और सबसे बड़ी उपलब्धि रही।
मानव जनित ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव जलवायु आपदाओं (जैसे अप्रत्याशित बाढ़, सूखा और चक्रवातों के रूप में) के रूप में दिख रहे हैं। इनसे होने जान और माल का नुकसान हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) में गिना जाता है। शर्म-अल-शेख में हुए समझौते की सबसे बड़ी और शायद एकमात्र कामयाबी लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना है जिसकी मांग विकासशील देशों की लंबे समय से कर रहे थे।
हालांकि समझौते की भाषा के हिसाब से यह फंड “विशेषरूप से संकटग्रस्त देशों” तक ही सीमित रखा जाएगा और भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश को इसका फायदा मिलेगा या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है।
सम्मेलन में सभी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से जुड़ी हानि और क्षति के बढ़ते दायरे पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई।
इन प्रभावों के परिणामस्वरूप विनाशकारी आर्थिक और गैर-आर्थिक नुकसान हो रहे हैं, जैसे जबरन विस्थापन और सांस्कृतिक विरासत, मानव गतिशीलता और स्थानीय समुदायों के जीवन और आजीविका पर प्रभाव आदि। हानि और क्षति से निबटने के लिए पर्याप्त और प्रभावी कार्रवाई के महत्व को रेखांकित किया गया।
हानि और क्षति से जुड़े उन वित्तीय नुकसानों पर भी गहरी चिंता व्यक्त की गई जिसका सामना विकासशील देश कर रहे हैं और जिसके कारण उनपर कर्ज का बोझ बढ़ रहा है और सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति बाधित हो रही है।
पहली बार, जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से जुड़ी हानि और क्षति का सामना करने के लिए फंड की व्यवस्था से संबंधित मामलों पर चर्चा का स्वागत किया गया।