Vol 1, September 2023 | लीबिया में बाढ़ ने कर दिया सब कुछ तबाह

Newsletter - September 14, 2023

विशेषज्ञों का कहना है कि क्लाइमेट चेंज डैनियल जैसे तूफानों के कारण होने वाली बारिश को कई गुना बढ़ा रहा है। Photo: @UnicefLibya on X

लीबिया में बाढ़ से तबाही, 20 हज़ार लोगों के मरने की आशंका

बीते रविवार लीबिया में सुनामी जैसी बाढ़ ने तटीय शहर डेर्ना को नेस्तानबूद कर दिया। बीबीसी में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक आपदा जैसे शब्द वहां के हालात को बयान करने के लिये काफी नहीं है। लीबिया में 6,000 से ज़्यादा लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है लेकिन जिस संख्या में लोग लापता बताये गये हैं उससे यह माना जा रहा है कि मरने वालों की संख्या 20,000 तक जा सकती है। राहत एजेंसियों का कहना है कि 30,000 से अधिक लोग बेघर हो चुके हैं। महत्वपूर्ण है कि लीबिया में कोई व्यवस्थित सरकार नहीं है और देश के जिस पूर्वी हिस्से में 80% तबाही हुई है वहां अलग अलग कबीलों का शासन है। 

भारी बारिश और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी   

लीबिया में चक्रवाती तूफान डेनियल के कारण भारी बरसात और दो बांधों के टूट जाने से प्रलय जैसे हालात पैदा हो गये। लीबिया के डेर्ना के पास बसे अल-बेदा में सालाना करीब 543 मिमी बारिश होती है और सितंबर में यहां करीब 12.7 मिमी औसत बारिश होती है लेकिन लेकिन 10-11 सितंबर को अल-बेदा में 414 मिमी से अधिक बारिश हो गई। इसी तरह डेर्ना में – जहां सितंबर में कुल 1.5 मिमी बारिश होती है वहां दो दिन के भीतर 150 मिमी बारिश हो गई। अचानक इतनी बरसात से यहां के हालात बेकाबू होने लगे। आंतरिक कलह और गृह युद्ध से जूझ रहे लीबिया के पास इस हालात से लड़ने के लिये संसाधन या तैयारी बिल्कुल नहीं थी। 

डेर्ना पर बने दो बांध टूटने से कहर 

वेबसाइट अलजज़ीरा के मुताबिक डेर्ना नदी पर बने दो बांधों में पहला बांध करीब 70 मीटर ऊंचा है और बारिश और भारी पानी के दबाव में वह टूट गया। इस बांध की देखभाल पिछले 20 साल से नहीं हो रही थी। इसके नीचे बने बांध में – जो पहले से भारी बारिश के कारण जलदबाव झेल रहा था – जब ऊंचाई से पहले बांध का पानी बड़े वेग के साथ आया तो वह भी टूट गया जिसके बाद 1 लाख आबादी वाले डेर्ना की बर्बादी तय हो गई। 

जलवायु परिवर्तन:  सैलाब से 1.5 मिलियन टन का दबाव 
बीबीसी में प्रकाशित एक इंटरव्यू में क्लाइमेट रिस्क और उससे निपटने की तैयारियों के विशेषज्ञ लिज़ स्टीफन ने कहा कि वैज्ञानिकों को इस बात का भरोसा है कि क्लाइमेट चेंज डैनियल जैसे तूफानों के कारण होने वाली बारिश को कई गुना बढ़ा रहा है। जो डेर्ना नदी तकरीबन पूरे साल में सूखी रहती थी उसमें इतना पानी आ गया कि दो बांध टूट गये। बीबीसी की रिपोर्ट कहती है कि पहले बांध से निकले हर एक घन मीटर पानी से एक टन के बराबर दबाव पैदा हुआ। इस बांध से करीब 1.5 मिलियन घनमीटर पानी छूटा जिसने 1.5 मिलयन टन का दबाव बनाया।

भारत में करीब 30 प्रतिशत हिस्से में सूखे के हालात हैं।

भारत में सूखे का संकट, खाद्य सुरक्षा को खतरा

इतिहास का सबसे सूखा अगस्त झेलने के बाद अब भारत में करीब 30 प्रतिशत हिस्से में सूखे के हालात हैं और इससे खाद्य सुरक्षा के लिये बड़ा संकट हो सकता है। आईआईटी गांधीनगर की जल और जलवायु प्रयोगशाला द्वारा संचालित सूखे के लिए बनाई गई प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के आंकड़ों से यह जानकारी मिली है। भारत में सूखे की रियलटाइम जानकारी के लिए बनाया गया यह अपनी तरह का पहला प्लेटफॉर्म है।  

जून में देश का 22 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल सूखा प्रभावित था जो अगस्त के अंत तक बढ़कर करीब 29 प्रतिशत हो गया। सितंबर के पहले हफ्ते में 30.4 प्रतिशत क्षेत्रफल सूखा प्रभावित हो गया। महत्वपूर्ण है कि अल निनो प्रभाव के कारण भी वर्षा पर असर पड़ा है। मृदा नमी सूचकांक के गिरने से महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, बिहार और कर्नाटक में कई ज़िलों में फसल को भारी नुकसान का खतरा है।

भू-जल गिरावट की दर तीन गुना हो जाएगी 2080 तक 

भारत में अगले 60 साल में भू-जल में गिरावट की रफ्तार तीन गुना तक बढ़ सकती है। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण बढ़ते सूखे की समस्या के लिए किसानों द्वारा अत्यधिक भू-जल दोहन और पर्याप्त बारिश के अभाव में रिचार्ज न होने के कारण यह ख़तरा बढ़ रहा है जो भारी खाद्य संकट और रोज़गार की समस्या पैदा कर सकता है।  यह बात अमेरिका की मिशीगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अध्ययन में पता चली है। 

साइंस एडवांसेज नाम के जर्नल में प्रकाशित इस शोध में वैज्ञानिकों ने 10 क्लाइमेट मॉडल्स से तापमान और बारिश के अनुमान को गणना के लिए इस्तेमाल किया। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग से बिगड़ते हालात में किसानों ने एडाप्टेशन के लिये भू-जल को इस्तेमाल किया लेकिन इसमें वॉटर टेबल पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका विचार नहीं किया गया। साल 2041 और 2080 के बीच भीजल में गिरावट वर्तमान दर की तीन गुनी हो सकती है। शोध बताता है कि भू-जल की कमी से  भारत की एक तिहाई आबादी के आगे रोज़गार का संकट भी खड़ा हो जाएगा। 

जून-अगस्त में पूरी दुनिया में रहा असामान्य रूप से अधिक  तापमान 

इस साल जून से अगस्त के बीच दुनिया में अब तक के सबसे अधिक तापमान दर्ज किए गए। इस बीच न केवल वैश्विक औसत तापमान ने रिकॉर्ड बनाया बल्कि दुनिया के अलग अलग देशों में तापमान वृद्धि उस स्तर तक पहुंच गई जो जलवायु परिवर्तन के कारण कम से कम दोगुना अधिक होने की संभावना थी। 

भारत में इस दौरान औसत तापमान सामान्य से 0.6 डिग्री ऊपर रहा।  कुल 200 देशों में रह रही दुनिया की 98% आबादी  ने इस दौरान कम से कम एक दिन ऐसा ज़रूर महसूस किया जब तापमान अभूतपूर्व था। यह बात एक क्लाइमेट चेंज और विज्ञान पर काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन क्लाइमेट सेंट्रल के अध्ययन में पता चली है। 

इससे ठीक पहले विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने यूरोप के कॉपरनिक्स क्लाइमेट चेंज प्रोग्राम के आंकड़ों के आधार पर कहा था कि अगस्त का महीना दूसरा सबसे गर्म और जुलाई का तापमान अब तक का सर्वाधिक रहा। इस साल जनवरी से अगस्त तक का औसत तापमान लें तो वह 2016 के बाद का अब तक की दूसरी सबसे गर्म समयावधि रही है।   

हिमालयी एवलांच पर्वतारोहियों के लिये बढ़ा रहे संकट 

शोध बताते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में एवलांच के कारण पर्वतारोहियों के मरने की घटनाएं बढ़ रही हैं और उनकी सुरक्षा को ख़तरा अधिक है। हालांकि हिमाद्रि में पर्वतारोहियों के लिए  एवलांच संकट हमेशा ही रहता है लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण हिमालयी पर्वत श्रंखला में यह ख़तरा तेज़ी से बढ़ रहा है। एक ताज़ा विश्लेषण से पता चला है कि पिछले 5 दशकों में 4,500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर चढ़ते हुए कुल 564 पर्वतारोहियों की जान गई। हिमालय में 8,000 मीटर से अधिक ऊंची 14 चोटियों और 6,000 मीटर से अधिक कुछ चोटियों पर चढ़ते हुए 1895 से 2022 के बीच कम से कम 1,400 पर्वतारोही मरे हैं जिनमें से एक तिहाई की मौत एवलांच के कारण हुई हैं। 

पर्वतारोहण विशेषज्ञ और हिमालयी भूगोल और मौसम के जानकार कहते हैं कि एवलांच की बढ़ती आवृत्ति और समय बताएगा कि आने वाले दिनों में कितनी बड़ी समस्या पैदा होगी। वैश्विक औसत की तुलना में हिमालयी रेंज में दोगुनी तेज़ी से गर्म हो रही है और विशेषज्ञों का कहना है कि तापमान वृद्धि के कारण पर्वतों में असंतुलन बढ रहा है जो भविष्य में एवलांच सक्रियता बढ़ाएगा। 

अमेरिका: आपदाओं में एक साल के भीतर सर्वाधिक आर्थिक क्षति का रिकॉर्ड  

अमेरिका में एक साल के भीतर आपदाओं सबसे अधिक आर्थिक क्षति का रिकॉर्ड बन गया है। नेशनल ओशिनिक एंड एटमॉस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) ने सोमवार को घोषणा की कि इस साल अमेरिका में अब तक कुल 23 आपदाएं हुई हैं जिनमें 57 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का आर्थिक नुकसान हो चुका है और 253 लोगों की मौत हो गई है। इस साल अगस्त में ही कुल 1 बिलियन डॉलर से अधिक की आर्थिक क्षति हुई। हवाई के जंगलों में लगी विनाशक आग और तूफान इडालिया जैसी आपदाओं  के कारण अमेरिका में यह क्षति इतनी बड़ी हुई और 2020 में एक साल में हुई कुल 22 आपदाओं का रिकॉर्ड टूट गया जिनमें कुल 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ था।

आईपीसीसी के मुताबिक धरती को बचाने के लिए 2030 तक 2010 के स्तर पर उत्सर्जन में 45% कटौती ज़रूरी है।

रिपोर्ट कार्ड: दीर्घकालीन जलवायु लक्ष्य हासिल करने में दुनिया फेल

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के  फ्रेमवर्क कन्वेंशन यानी (यूएनएफसीसीसी) के मुताबिक सदी के अंत तक धरती की तापमान वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रखने के दीर्घकालीन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दुनिया के देशों के वर्तमान कदम पर्याप्त नहीं हैं। यूएनएफसीसीसी का यह आकलन क्लाइमेट एक्शन पर दुनिया भर की सरकारों का रिपोर्ट कार्ड है होता है जिसे ग्लोबल स्टॉकटेक यानी जीएसटी कहा जाता है। कन्वेंशन की रिपोर्ट 2022 और 23 में दुनिया की तमाम सरकारों, एनजीओ संगठनों, वैज्ञानिकों और संयुक्त राष्ट्र की बाडीज़ के बीच 250 घंटों से अधिक की वार्ता का निचोड़ है जिसमें वैज्ञानिक आंकड़ों और तथ्यों का गहन विश्लेषण किया गया। 

हालांकि यूएनएफसीसीसी का आकलन ये मानता है कि 2015 में हुई पेरिस संधि के बाद जो राष्ट्रीय संकल्प यानी एनडीसी सभी देशों ने बनाए उससे एक्शन की दिशा में एक कदम बढ़ा लेकिन धरती को बचाने के लिए जो किया जाना चाहिए उस महत्वपूर्ण बदलाव के समय तेज़ी से खत्म हो रहा है।    

आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक धरती को बचाने के लिए 2030 तक 2010 के स्तर पर उत्सर्जन में 45% कटौती ज़रूरी है, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। जी-20 देशों ने दिल्ली में हुए सम्मेलन में माना कि 2030 तक वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2019 के स्तर  होने वाले उत्सर्जन से 43% करना ज़रूरी है। लेकिन सरकारों की कथनी और करनी में भारी अंतर है और यूएन का यह आकलन बताता है कि 2050 तक अगर दुनिया को नेट-ज़ीरो हासिल करना है तो बड़े आपातकालीन कदम उठाने होंगे।  इसमें जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को फेज़ आउट करने की सलाह दी गई है और कहा गया है कि 2030 तक इस कारण जितनी नौकरियां जाएंगी उससे 3.5 गुना जॉब पैदा होंगे। इस साल के अंत में हो रहे जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन की कामयाबी इसी बात से आंकी जाएगी की सरकार जीएसटी की सिफारिशों और चेतावनियों पर कितना अमल करती हैं। 

मौजूदा क्लाइमेट नीतियां पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाने के लिए नाकाफी: लैंसेट

उच्च आयवर्ग वाले देशों में “ग्रीन ग्रोथ” के जो भी प्रयास किए जा रहे हैं उनसे इमीशन में वह कटौती हासिल नहीं होगी जो पेरिस नीति के तहत किए गए जलवायु लक्ष्यों और न्यायपूर्ण सिद्धांत के लिए ज़रूरी हैं। यह बात प्रतिष्ठित हेल्थ जर्नल लांसेट में प्रकाशित हुई एक स्टडी में कही गई है। इस अध्ययन के मुताबिक अगर वर्तमान ट्रेंड जारी रहते हैं तो उन 11 देशों — जिन्होंने अपने जीडीपी बढ़ाते हुए अपना कार्बन इमीशन कम करना शुरू किया है — को भी इमीशन को शून्य करने में 200 साल लग जाएंगे। 

स्टडी में जिन 11 देशों पर शोध किया गया वे हैं ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, कनाडा, बेल्जियम, जर्मनी, डेनमार्क, फ्रांस, लक्समबर्ग, नीदरलैंड, स्वीडन और यूके। ये देश कार्बन बजट में अपने जायज़ हिस्से से 27 गुना अधिक ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित करेंगे। धरती पर विनाशकारी जलवायु आपदाएं रोकने के लिए उसकी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से नीचे रखना ज़रूरी है जिसके लिए कुल उत्सर्जन इस कार्बन बजट के भीतर ही रहना चाहिए। शोधकर्ताओं का कहना है कि अमीर देशों में आर्थिक तरक्की की कोशिशें उन जलवायु लक्ष्यों और नीतियों से मेल नहीं खातीं जिन्हें लेकर सभी देशों ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सहमति जताई। 

वन संरक्षण (संशोधन) क़ानून के खिलाफ नागालैंड विधानसभा ने पास किया प्रस्ताव

नागालैंड विधानसभा ने संविधान के आर्टिकल 371 (ए) के तहत विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है जिससे संसद में पास किये गये वन संरक्षण (संशोधन) क़ानून के बदलाव राज्य पर लागू नहीं होंगे। महत्वपूर्ण है कि संविधान के अनुच्छेद 6 के तहत नागालैंड के आदिवासियों और उनके रीति रिवाजों को संरक्षण दिया गया है। मिज़ोरम के बाद नागालैंड दूसरा राज्य बन गया है जिसने अपनी विधानसभा में यह प्रस्ताव पारित किया है जो संसद द्वारा क़ानून में किये गये संशोधन के खिलाफ है। 

सरकार ने संशोधित क़ानून को पिछली 4 अगस्त को नोटिफाइ किया ज़मीन और संसाधनों के बारे में व्याख्या करता है। क़ानून में जंगल का परिभाषा में किये बदलावों को लेकर विवाद हैं। नागालैंड विधानसभा में पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि इससे ज़मीन और संसाधनों पर आदिवासियों के पारम्परिक स्वामित्व और उपयोग के अधिकारों पर हमला होगा। 

भूमि क्षरण से नष्ट हुआ मध्य एशिया जितना बड़ा भूभाग: यूएनसीसीडी

संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) द्वारा जारी नवीनतम अनुमानों के अनुसार, साल 2015 से मध्य एशिया के आकार की स्वस्थ और उपजाऊ भूमि का क्षरण हो गया है। इससे विश्व स्तर पर खाद्य और जल सुरक्षा प्रभावित हो रही है और 130 करोड़ लोगों के जीवन पर सीधा असर पड़ रहा है।

यूएनसीसीडी का अनुमान है कि 2015 से 2019 के बीच हर साल कम से कम 100 मिलियन हेक्टेयर स्वस्थ और उपजाऊ भूमि नष्ट हुई। कुल मिलाकर इन चार सालों में 420 मिलियन हेक्टेयर (4.2 मिलियन वर्ग किलोमीटर) भूमि का क्षरण हो गया, जो पांच मध्य एशियाई देशों — कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान — के संयुक्त क्षेत्रफल से थोड़ा अधिक है।

यूएनसीसीडी ने कहा है कि यदि भूमि क्षरण की मौजूदा गति जारी रहती है, तो 2030 तक ‘लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रल’ (यानि जितनी भूमि का क्षरण हो उतनी ही बहाल हो) होने के लिए दुनिया को 1.5 बिलियन हेक्टेयर भूमि को बहाल करना आवश्यक होगा।’

हाल ही में जी-20 देशों ने अपने घोषणापत्र में 2040 तक भूमि क्षरण को 50% तक कम करने के लक्ष्य का समर्थन किया है।

विकसित देशों ने $100 बिलियन क्लाइमेट फाइनेंस के वादे को इस साल पूरा करने का दिया आश्वासन

दिल्ली में संपन्न जी-20 शिखर सम्मलेन में विकसित देशों ने संयुक्त रूप से साल 2020 से 2025 तक सालाना 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने उम्मीद जताई है कि 2023 में पहली बार यह लक्ष्य पूरा होगा।

सम्मलेन के घोषणापत्र में कहा गया कि विकासशील देशों को 2030 से पहले अपनी राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए 5.9 ट्रिलियन डॉलर के क्लाइमेट फाइनेंस की आवश्यकता होगी। यदि विकासशील देशों को 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करना है तो उन्हें 2030 तक स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए सालाना लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी। विकसित देशों ने इस उद्देश्य के लिए निवेश और क्लाइमेट फाइनेंस में पर्याप्त वृद्धि करने की बात भी स्वीकार की है।
साथ ही, जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील विकासशील देशों की सहायता के लिए कॉप27 में जिस लॉस एंड डैमेज फंड को मंजूरी दी गई थी, उसे भी सफलतापूर्वक लागू करने की दिशा में काम करने की बात की गई है।

दिल्ली सरकार ने पड़ोसी राज्यों से भी अपील की है कि वह पटाखों की बिक्री पर रोक लगाएं। Photo: Kalli Navya/Wikimedia Commons

दिल्ली में इस साल भी बैन रहेंगे पटाखे, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कहीं और जाकर जलाएं

दिल्ली सरकार ने सर्दियों में प्रदूषण पर अंकुश लगाने की योजना के तहत इस साल भी पटाखों के निर्माण, बिक्री, भंडारण और उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। राजधानी में इस साल भी दीवाली पर पटाखों की बिक्री और जलाने पर प्रतिबंध जारी रहेगा।

इस प्रतिबंध के विरोध में भाजपा नेता मनोज तिवारी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ारिज करते हुए कहा की वह इस मामले में दखल नहीं देगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली के लोग दीवाली मनाने के दूसरे तरीके ढूंढ लें। अगर किसी को पटाखे जलाने का बहुत मन हो, तो उस राज्य में जाकर ऐसा करें, जहां रोक नहीं है।

कोर्ट ने दिल्ली पुलिस से यह भी पूछा है कि साल दर साल दिल्ली सरकार पटाखों पर जो पाबंदी लगाती है, पुलिस उसका पूरी तरह पालन क्यों नहीं करवाती है?

सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में दीवाली पर पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। उसके बाद से दिल्ली सरकार भी हर साल अपनी तरफ से रोक लगाती आ रही है। दिल्ली सरकार ने पड़ोसी राज्यों से भी अपील की है कि वह पटाखों की बिक्री पर रोक लगाएं।

क्लाउड सीडिंग के ज़रिए कृत्रिम बारिश पर विचार कर रही दिल्ली सरकार

सर्दियों के दौरान वायु प्रदूषण को कम करने के लिए दिल्ली सरकार क्लाउड सीडिंग तकनीक के ज़रिए कृत्रिम बारिश कराने पर भी विचार कर रही है। दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने कहा कि सरकार शहर के प्रत्येक वायु प्रदूषण हॉटस्पॉट के लिए एक अलग एक्शन प्लान तैयार कर रही है।

सरकार की यह घोषणा ‘विंटर एक्शन प्लान’ पर चर्चा के लिए 24 पर्यावरण विशेषज्ञों के साथ बैठक के बाद आई, जहां आईआईटी-कानपुर के वैज्ञानिकों ने दिल्ली में कृत्रिम बारिश कराने पर एक प्रस्तुति दी।

स्वच्छ वायु के मामले में इंदौर देश में नंबर वन: सीपीसीबी

केंद्र सरकार के स्वच्छ वायु सर्वेक्षण में इंदौर को पहला स्थान मिला है, जबकि दूसरा और तीसरा स्थान क्रमशः आगरा और ठाणे को  मिला है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा संचालित स्वच्छ वायु सर्वेक्षण में उनकी ओर से उठाए गए कदमों के आधार पर शहरों की रैंकिंग की जाती है। यह रैंकिंग तीन श्रेणियों में की जाती है: 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहर (47), 3-10 लाख आबादी वाले (44) और 10 लाख से कम आबादी वाले (40) शहर। प्रत्येक शहर के शहरी स्थानीय निकाय रिपोर्ट दाखिल करते हैं जिनकी एक विशेषज्ञ पैनल द्वारा जांच की जाती है और अंततः केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड रैंक प्रदान करता है।

दस लाख से अधिक जनसंख्या श्रेणी में इंदौर, आगरा और ठाणे को शामिल किया गया है। वहीं, तीन से 10 लाख तक की आबादी वाले शहर में महाराष्ट्र के अमरावती ने शीर्ष स्थान हासिल किया है। इसके बाद उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद और आंध्र प्रदेश के गुंटूर का स्थान है। तीन लाख से कम आबादी वाले शहर में हिमाचल प्रदेश का परवाणू पहले स्थान पर है। हिमाचल का काला अंब और ओडिशा का अंगुल दूसरे और तीसरे स्थान पर रहा है।

राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम का लक्ष्य 2024 तक पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर में 20 से 30 प्रतिशत की कमी लाना है।

वायु प्रदूषण के कारण कमज़ोर और ठिगने बच्चे पैदा होते हैं 

एक अध्ययन के अनुसार, अपेक्षाकृत कम स्तर पर भी वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से महिलाएं कमज़ोर व ठिगने बच्चों को जन्म देती हैं। मिलान में यूरोपियन रेस्पिरेटरी सोसाइटी इंटरनेशनल कांग्रेस में प्रस्तुत एक शोध से यह भी पता चलता है कि अधिक हरे-भरे इलाकों में रहने वाली महिलाएं बड़े कद के बच्चों को जन्म देती हैं और इससे प्रदूषण के प्रभावों को कम करने में मदद मिल सकती है।

शोधकर्ताओं ने कहा कि जन्म के समय वजन का फेफड़ों के स्वास्थ्य के साथ मजबूत संबंध है। कम वजन वाले बच्चों में अस्थमा का खतरा अधिक होता है और उम्र बढ़ने के साथ क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) की दर भी अधिक होती है। उन्होंने कहा कि शिशुओं और उनके विकासशील फेफड़ों को संभावित नुकसान से बचाने के लिए वायु प्रदूषण को कम करने और कस्बों और शहरों को हरा-भरा बनाने की जरूरत है।

वायु प्रदूषण से फूलों की गंध नहीं पहचान पा रही मधुमक्खियां

एक नए शोध के मुताबिक, ओजोन प्रदूषण फूलों से निकलने वाली गंध को काफी हद तक बदल देता है, जिससे मधुमक्खियों की कुछ मीटर की दूरी से गंध पहचानने की क्षमता 90 फीसदी तक कम हो गई है। यह खुलासा यूके सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी (यूकेसीईएच) और बर्मिंघम, रीडिंग, सरे और दक्षिणी क्वींसलैंड विश्वविद्यालयों की शोध टीम ने किया है।

जमीनी स्तर पर ओजोन आम तौर पर तब बनती है जब वाहनों और औद्योगिक प्रक्रियाओं से नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में वनस्पति से उत्सर्जित वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया करती है। फूलों की गंध पर जमीनी स्तर के ओजोन के कारण बदलाव हो रहा है, जिसके कारण परागणकों को प्राकृतिक वातावरण में अपनी अहम भूमिका निभाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, इसका खाद्य सुरक्षा पर भारी असर पड़ने के आसार हैं।

निष्कर्षों से पता चलता है कि ओजोन का जंगली फूलों की बहुतायत और फसल की पैदावार पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका है। अंतर्राष्ट्रीय शोध पहले ही स्थापित कर चुका है कि ओजोन का खाद्य उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह पौधों की वृद्धि को नुकसान पहुंचाता है।

भारत को अपने 2030 के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कहीं अधिक नवीकरणीय ऊर्जा की जरूरत है।

भारत में अक्षय ऊर्जा विस्तार के लिए 100 करोड़ डॉलर के फंड को मंजूरी

भारत में उभरती हुई तकनीकों के इस्तेमाल के द्वारा एनर्जी ट्रांजिशन में तेजी लाने के लिए 1 अरब डॉलर तक के संयुक्त निवेश कोष को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरी झंडी दे दी है। भारत के राष्ट्रीय निवेश और अवसंरचना कोष (नेशनल इन्वेस्टमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर फंड) और अमेरिकी डेवलपमेंट फाइनेंस कॉरपोरेशन  ने नवीकरणीय अवसंरचना निवेश कोष को स्थापित करने के लिए $500 मिलियन तक प्रदान करने के लिए आशय पत्रों (एलओआई) का आदान-प्रदान किया है।

इस फंड का लक्ष्य होगा भारत में ग्रीनफील्ड, बैटरी स्टोरेज और उभरती हरित प्रौद्योगिकी परियोजनाओं की लागत को कम करना और इनकी स्थापना में तेजी लाना।

एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत को 2030 तक 500 गीगावाट जीरो-कार्बन ऊर्जा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए मौजूदा से कहीं अधिक स्वच्छ ऊर्जा की आवश्यकता है। जहां देश में हर साल 50 गीगावाट ऊर्जा क्षमता जोड़ी जानी चाहिए, वहीं 2019 के अंत से अबतक केवल 40 गीगावाट जोड़ी जा सकी है। इस मामले में भारत अभी चीन जैसे देशों से काफी पीछे है।

जी-20 देशों के बीच बना वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन

जीरो और लो-एमिशन विकास में जैव ईंधन, यानी बायोफ्यूल को महत्वपूर्ण बताते हुए कुछ जी-20 देशों ने एक वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन (ग्लोबल बायोफ्यूल अलायंस) की स्थापना की है। 

दिल्ली में हुए शिखर सम्मलेन के पहले दिन भारत ने वैश्विक जैव ईंधन गठबंधन की शुरुआत की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 देशों से इस पहल में शामिल होने और वैश्विक स्तर पर पेट्रोल के साथ इथेनॉल मिश्रण को 20 प्रतिशत तक ले जाने का आग्रह किया।

भारत के अलावा अर्जेंटीना, बांग्लादेश, ब्राजील, इटली, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका इस पहल में शामिल हुए, जबकि कनाडा और सिंगापुर इस गठबंधन के पर्यवेक्षक देश हैं।

यह जैव ईंधन गठबंधन अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए) की तर्ज पर बना है। जैव ईंधन ऊर्जा का एक नवीकरणीय स्रोत है जो बायोमास से प्राप्त होता है। भारत 85 प्रतिशत से अधिक कच्चा तेल आयात करता है, लेकिन अब यह फसलों के ठूंठ, पौधों के अपशिष्ट और म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट जैसी वस्तुओं से ईंधन का उत्पादन करने की क्षमता को धीरे-धीरे बढ़ा रहा है।

रूफटॉप सोलर स्थापना में हुई 3.2 प्रतिशत की वृद्धि: मेरकॉम

मेरकॉम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 2023 की पहली छमाही में देश में रूफटॉप सोलर स्थापना 3.2 प्रतिशत बढ़कर 872 मेगावाट हो गई। 2022 की पहली छमाही में भारत में 845 मेगावाट रूफटॉप सोलर क्षमता स्थापित की गई थी।

‘मेरकॉम इंडिया रूफटॉप सोलर मार्केट रिपोर्ट’ में कहा गया है कि जून 2023 के अंत में भारत की कुल रूफटॉप सोलर क्षमता 9.6 गीगावाट तक पहुंच गई। इस साल की दूसरी तिमाही में 387 मेगावाट रूफटॉप सोलर क्षमता जोड़ी गई, जो जनवरी-मार्च 2023 की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक है। लेकिन पिछले साल की दूसरी तिमाही की तुलना में यह 0.5 प्रतिशत कम है।

रूफटॉप सोलर क्षमता में हुई इस वृद्धि में आवासीय उपभोक्ताओं ने 54 प्रतिशत, औद्योगिक उपभोक्ताओं ने 25 प्रतिशत और वाणिज्यिक उपभोक्ताओं ने 21 प्रतिशत का योगदान दिया।

केरल में पिछले वित्त वर्ष में नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन 26.6% बढ़ा

केरल राज्य बिजली बोर्ड (केएसईबी) द्वारा प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 2022-23 में नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 26.6% बढ़ गया। इन स्रोतों में छोटे पनबिजली, पवन और सौर ऊर्जा शामिल हैं।

2022-23 की पावर सिस्टम स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट के अनुसार, तीनों नवीकरणीय (आरई) स्रोतों से कुल उत्पादन 2021-22 में 1,713.30 मिलियन यूनिट (एमयू) से बढ़कर 2022-23 में 2,169.06 एमयू हो गया।

गैर-सोलर स्रोतों (छोटे पनबिजली और पवन) से नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन 1,208.60 एमयू से बढ़कर 1,312.43 एमयू हो गया। इसमें केएसईबी द्वारा संचालित 26 छोटे पनबिजली स्टेशनों, दो कैप्टिव पावर प्लांट (सीपीपी), छोटे हाइड्रो क्षेत्र में नौ स्वतंत्र बिजली संयंत्र (आईपीपी) और केएसईबी और आईपीपी द्वारा पवन उत्पादन शामिल है।

वायाबिलिटी गैप फंडिंग के बावजूद चुनौतीपूर्ण है बैटरी स्टोरेज की लागत

केंद्र सरकार ने बैटरी एनर्जी स्टोरेज सिस्टम्स के लिए वायाबिलिटी गैप फंडिंग के तौर पर 3,760 करोड़ रुपए का आवंटन किया था, जिसके ज़रिए पावर ग्रिड से नवीकरणीय ऊर्जा के इंटीग्रेशन को बढ़ावा दिया जाना है। इस प्रक्रिया में नवीकरणीय स्रोतों से उत्पन्न ऊर्जा को पावर ग्रिड से जोड़ा जाता है।

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि कच्चे माल की बढ़ती लागत और नई तकनीकें आने वाले सालों में इस क्षेत्र के लिए चुनौतियां उत्पन्न करती रहेंगी

भारत को 2030 तक 500 गीगावाट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हाइब्रिड पवन और सौर परियोजनाओं के साथ बैटरी भंडारण की भी काफी जरूरत है। बैटरी स्टोरेज सिस्टम नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन में रुकावट को दूर करने में मदद करता है।

इस क्षेत्र से जुड़े जानकारों और निर्माताओं का कहना है कि वायाबिलिटी गैप फंडिंग से बैटरी स्टोरेज सिस्टम आर्थिक रूप से व्यवहार्य तो हो जाएगा, लेकिन फिर भी इसकी लागत बहुत अधिक है जिसके कारण डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों के लिए इनको अपने नेटवर्क से जोड़ना संभव नहीं होगा। साथ ही, आयातित कच्चे माल की बढ़ती कीमतों का भी इसपर प्रभाव पड़ेगा।

दिल्ली की ईवी नीति 2.0 कर सकती है रेट्रो-फिटिंग का समर्थन

दिल्ली सरकार की ईवी नीति 2.0 में स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देने के लिए रेट्रो-फिटमेंट पर जोर दिया जा सकता है। नई नीति के  कुछ महीनों में लागू होने की उम्मीद है। रेट्रो-फिटमेंट के द्वारा पेट्रोल या डीजल वाहनों को इलेक्ट्रिक वाहन में परिवर्तित किया जाता है।

इस प्रक्रिया में मूल इंजन और दूसरे घटकों को बदल कर एक वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत लगाया जाता है। इसके द्वारा पुराने वाहनों को कबाड़ में बेचने के बजाय उनका उपयोग जारी रखा जा सकता है।

दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत ने कहा कि इलेक्ट्रिक वाहन रेट्रो-फिटमेंट महंगा है, लेकिन अगर कीमतें कम कर दी जाएं तो इसका भविष्य अच्छा हो सकता है, क्योंकि यह स्वच्छ हवा को बढ़ावा देता है। उन्होंने कहा कि सरकार अगली ईवी नीति में इस कांसेप्ट को बढ़ावा देने पर विचार कर रही है।

2030 तक दुनिया भर में बिकने वाली कारों में दो तिहाई होंगी ईवी

एक नए शोध ने दावा किया है कि बैटरी की गिरती लागत के कारण यूरोप में 2024 और अमेरिकी बाजार में 2026 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमतें जीवाश्म-ईंधन मॉडलों के बराबर हो जाएंगी, और 2030 तक वैश्विक कार बिक्री का दो-तिहाई हिस्सा ईवी का होने की उम्मीद है।

रॉकी माउंटेन इंस्टीट्यूट (आरएमआई) की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि इस दशक में बैटरी की लागत आधी हो जानी चाहिए, जो 2022 में 151 डॉलर प्रति किलोवाट ऑवर (केडब्ल्यूएच) से घटकर 60 से 90 डॉलर प्रति किलोवाट ऑवर के बीच हो जाएगी। इससे 2030 तक ‘पहली बार ईवी की कीमतें पेट्रोल कारों जितनी होगी और साथ ही संचालन भी सस्ता होगा’।

ईवी के मूल्य का लगभग 40% हिस्सा बैटरी का होता है, जिसकी अधिक लागत के कारण इलेक्ट्रिक वाहन अभी भी कई उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर हैं।

चीन द्वारा ईवी निर्माताओं को दी गई सब्सिडी की जांच करेगा यूरोपीय संघ

यूरोपीय संघ (ईयू) चीन द्वारा इलेक्ट्रिक वाहन निर्माताओं को दी जाने वाली सब्सिडी की जांच शुरू करेगा। ईयू में इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि इस सब्सिडी से यूरोपीय कंपनियों को नुकसान पहुंच रहा है।

‘वैश्विक बाजार अब सस्ती चीनी इलेक्ट्रिक कारों से भर गए हैं, और उनकी कीमत भारी सब्सिडी द्वारा कृत्रिम रूप से कम रखी गई है। यह हमारे बाजार को बिगाड़ रहा है,’ यूरोपीय कमीशन की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने यूरोपीय संघ के सांसदों से कहा।

वॉन डेर लेयेन ने कहा की ‘जब हम अपने बाजार में अंदर से होने वाली गड़बड़ी को स्वीकार नहीं करते हैं, तो बाहर से भी स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए, मैं आज घोषणा कर सकती हूं कि आयोग चीन से आने वाले इलेक्ट्रिक वाहनों पर सब्सिडी विरोधी जांच शुरू कर रहा है।’

चीन ने सब्सिडी में अरबों डॉलर का निवेश करके देश को इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सबसे बड़ा बाजार बनाने में मदद की है। वैश्विक वाहन निर्माता अपने घरेलू क्षेत्रों में चीनी ब्रांडों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं, जो बाजार की अधिकांश हिस्सेदारी ले ले रहे हैं।

जी-20 घोषणापत्र में कोयला फेजडाउन के प्रयास तेज करने का ज़िक्र है। Photo: @g20org on X

तेल और गैस का प्रयोग कम करने के वादे से बचे जी-20 देश

इस साल के अंत में यूएई में होने वाले जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (कॉप-28) से पहले दिल्ली में हुए जी-20 सम्मेलन में जहां दुनिया के बड़े विकसित और विकासशील देशों ने अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना बढ़ाने का लक्ष्य रखा है, वहीं प्रदूषणकारी जीवाश्म ईंधन, जैसे तेल और गैस आदि को चरणबद्ध तरीके से समाप्त (फेजआउट) करने पर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई गई है। हालांकि इसमें कोयला फेजडाउन के प्रयास तेज करने का ज़िक्र अवश्य है, लेकिन उसकी भाषा पिछले साल इंडोनेशिया के बाली में हुए समझौते जैसी ही है।

जी-20 देशों ने विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप, सदी के मध्य तक या उसके आसपास नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने की प्रतिबद्धता दोहराई। लेकिन यह नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल करना जीवाश्म ईंधन के प्रयोग में भारी कटौती के बिना संभव नहीं है। 

जानकारों का मानना है कि सभी प्रकार के जीवाश्म-ईंधन फेजआउट पर कोई निर्णय लिए बिना यह घोषणा भारत के लिए निराशाजनक है क्योंकि भारत की 70% बिजली का उत्पादन कोयला बिजलीघरों से होता है। सम्मेलन में कोयले के अंधाधुंध प्रयोग को फेज़डाउन करने की बात कही गई है लेकिन जीवाश्म ईंधन शब्द के प्रयोग से बचा गया है जिसमें ऑइल और गैस भी शामिल होते हैं। माना जा रहा है कि सऊदी अरब के प्रभाव के चलते जीवश्म ईंधन फेजआउट/फेज डाउन को घोषणापत्र में शामिल नहीं किया गया।

हालांकि, पिट्सबर्ग में 2009 में किए गए वादे को दोहराया गया है जिसके अंतर्गत फिजूलखर्ची को बढ़ावा देने वाली अप्रभावी जीवाश्म ईंधन सब्सिडियों को खत्म किया जाएगा।

कोल फेजआउट बना भारत और अमीर देशों के बीच समझौते का रोड़ा

लगभग एक साल जी-7 समूह के विकसित और अमीर देशों ने घोषणा की थी कि वह उभरती हुई अर्थव्ययस्थाओं को जीवाश्म ईंधन का प्रयोग बंद करने में सहायता करने के लिए कुछ समझौते करने जा रहे हैं। इन समझौतों पर इंडोनेशिया, वियतनाम और भारत से बातचीत चल रही थी

तब से, इंडोनेशिया और वियतनाम ने तो ‘जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप’ (जेईटीपी) पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन भारत ने नहीं। मामले की जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि निकट भविष्य में भारत से ऐसी किसी डील की उम्मीद नहीं है।

उनका कहना है कि जेईटीपी में कोयले को फेजआउट करने पर जोर दिया गया है, जबकि भारत के ऊर्जा उत्पादन में कोयले की भूमिका सबसे अधिक है। इस सौदे में जस्ट ट्रांजिशन के लिए मिलने वाला फाइनेंस भी अपेक्षाकृत कम है। जानकारों के अनुसार भारत का यह भी मानना है कि जेईटीपी विकसित देशों द्वारा 100 बिलियन डॉलर के वादे से ध्यान भटकाने का एक तरीका है। 

उनके अनुसार इस सौदे के केंद्र में यदि कोल फेजआउट न होकर नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार हो या कोयले के प्रभावों को ऑफसेट करने के तरीकों पर बात हो तो भारत इसके बारे में सोच सकता है।        

जीवाश्म ईंधन की मांग चरम पर पहुंचने की भविष्यवाणी के लिए आईए पर बरसा ओपेक

 जीवाश्म ईंधन की मांग इस दशक के अंत से पहले चरम पर पहुंचने की भविष्वाणी के लिए तेल उत्पादक समूह ओपेक ने आईईए की तीखी आलोचना की है। ओपेक ने इस तरह के पूर्वानुमान को “बेहद जोखिम भरा, अव्यावहारिक और विचारधारा से प्रेरित” बताया।

आईए. यानि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने कहा था कि दुनिया में अब जीवाश्म ईंधन युग के “अंत की शुरुआत” हो रही है। 

फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में, आईईए के कार्यकारी निदेशक फतिह बिरोल ने कहा कि कोयला, तेल और गैस की मांग 2030 से पहले चरम पर होगी, और जलवायु नीतियों के प्रभावी होने के बाद जीवाश्म ईंधन की खपत में गिरावट होगी।

जवाब में ओपेक के महासचिव हैथम अल-घैस ने कहा कि यदि ऐसा हुआ तो “ऊर्जा की मांग को लेकर अभूतपूर्व पैमाने पर उथल-पुथल हो सकती है, जिसके दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं और अरबों लोगों के लिए गंभीर परिणाम होंगे”।