भारत में झुलसा देने वाली हीटवेव का असर आम चुनाव पर पड़ रहा है। देश में अबतक पांच चरणों के चुनाव हो चुके हैं। सोमवार को पांचवें चरण के मतदान के दौरान कई शहरों में पारा 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा। इस चरण में लगभग 60 प्रतिशत वोटिंग हुई जो पिछले चार चरणों के मुकाबले कम है। मुंबई जैसे शहरों में हुए कम मतदान का कारण भी भीषण गर्मी को बताया जा रहा है।
छठा चरण 25 मई को है जब राजधानी दिल्ली समेत आठ राज्यों में मतदान होगा। इसी दौरान मौसम विभाग ने दिल्ली में गंभीर हीटवेव की भविष्यवाणी के साथ रेड अलर्ट जारी किया है। आईएमडी का कहना है कि मतदान के दिन दिल्ली में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक जा सकता है। इसको देखते हुए चुनाव आयोग ने कहा है कि वोटरों की सहूलियत के लिए मतदान केंद्रों पर गर्मी से निपटने के उपाय किए जाएंगे।
पिछले महीने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी महाराष्ट्र में एक चुनावी रैली के दौरान बेहोश हो गए थे। गर्मी की मार के बीच हो रहे मतदान ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोरीं हैं। देश में चल रही भीषण हीटवेव 2023 से भी ज्यादा खतरनाक है। 2023 इसिहास में अबतक का सबसे गर्म साल रहा है।
भारत के चुनावी इतिहास में पहली बार केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस स्थिति से निपटने के लिए एक ‘टास्क फोर्स’ का गठन किया है। वहीं हीटवेव की बढ़ती तीव्रता के कारण इस बात पर बहस शुरू हो गई है कि क्या आम चुनावों का समय बदलकर इसे बेहतर जलवायु परिस्थितियों के दौरान कराया जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि चुनाव प्रक्रिया के सुचारु आयोजन के लिए कार्यक्रम का समय बदलना कोई असाधारण बात नहीं है और राजनीतिक सहमति से या संसद में कानून लाकर ऐसा किया जा सकता है।
इस साल अप्रैल के महीने में गंगा के मैदानी इलाकों और मध्य भारत के राज्यों में अधिकतम तापमान 42 से 45 डिग्री के बीच रहा। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने भविष्यवाणी की है कि अप्रैल से जून तक हीटवेव के दिनों की संख्या सामान्य की तुलना में दोगुने से अधिक हो सकती है। दरअसल, अप्रैल की शुरुआत में ही हीटवेव का पहला दौर शुरू हो चुका है। गौरतलब है कि उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को छोड़कर, भारत में किसी भी अन्य प्राकृतिक घटना की तुलना में हीटवेव ने अधिक लोगों की जान ली है। ताजा अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में 1992 के बाद से हीटवेव के कारण 24,000 से अधिक मौतें हुई हैं और वैश्विक तापमान वृद्धि की भविष्यवाणी के साथ आने वाले साल भारत के लिए और अधिक विनाशकारी हो सकते हैं।
ऑस्ट्रेलिया के मोनाश विश्वविद्यालय के एक नए शोध के अनुसार, पिछले 30 सालों में दुनिया भर में हर साल हीटवेव के कारण1.53 लाख से अधिक मौतें हुईं। इनमें से 20 प्रतिशत मौतें भारत में हुईं, जो दुनिया में सबसे अधिक हैं।
लू का प्रकोप और लोकतंत्र का उत्सव
भारत चरम मौसम की यह घटना ऐसे महत्वपूर्ण समय में झेल रहा है जब 95 करोड़ से अधिक मतदाता सात-चरणीय चुनावों में नई सरकार का चुनाव करने के लिए अपने मताधिकार का उपयोग कर रहे हैं। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सबसे लंबी चुनावी प्रक्रिया है। मतदान 19 अप्रैल को शुरू हुआ और 1 जून को समाप्त होगा, इसी दौरान गर्मी अपने चरम पर होगी। पहले चरण में मतदान का प्रतिशत कम रहने के बाद, चुनाव आयोग ने हीटवेव के “जोखिम को कम करने” के लिए एक बैठक की, जिसमें आईएमडी के अधिकारी भी शामिल हुए।
पिछले साल 16 अप्रैल को नवी मुंबई में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान हीटवेव से 13 लोगों की मौत हो गई थी और 600 से अधिक लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। देश में अलग-अलग हिस्सों में 10 से 20 दिनों तक लू चलने की संभावना है, जबकि सामान्य तौर पर यह 4 से 8 दिन होती है। गर्मी बढ़ने की सबसे अधिक आशंका गुजरात, मध्य महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक में है, इसके बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तरी छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश हीटवेव की चपेट में सबसे अधिक होंगे।
2004 के बाद से भारत में आम चुनाव गर्मी के मौसम में होते रहे हैं। लेकिन यह चुनाव कर्मचारियों, सुरक्षा कर्मियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और मतदाताओं सबके लिए सबसे कठिन साबित हो सकता है। चुनाव के आगामी पांच चरण 7, 13, 20, 25 मई और 1 जून को पड़ेंगें। आईएमडी का पूर्वानुमान बताता है कि जिन क्षेत्रों में चुनाव होने हैं, वे इस दौरान भीषण गर्मी की चपेट में रहेंगे।
हालांकि मतदान प्रतिशत में हो रही गिरावट को पूरी तरह से हीटवेव का ही असर नहीं कहा जा सकता लेकिन यह एक कारक ज़रूर है। पहली बार चुनाव आयोग (ईसीआई) ने गर्मी की स्थिति पर नजर रखने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया है। इस टास्क फोर्स में ईसीआई, आईएमडी, एनडीएमए (राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण) और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी हैं। टास्क फोर्स प्रत्येक मतदान दिवस से पहले हीटवेव और नमी के प्रभाव की समीक्षा करेगी और एक “विशेष पूर्वानुमान” जारी करेगी।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, गांधीनगर के निदेशक प्रोफेसर दिलीप मावलंकर ने कहा कि हीटवेव के इस मौसम में रोजमर्रा की मृत्यु दर पर कड़ी नजर रखना बहुत जरूरी है।
“उन्हें (ईसीआई को) इस टास्क फोर्स में हर उस जगह (जहां विभिन्न चरणों में चुनाव होने वाले हैं) के जन्म और मृत्यु के रजिस्ट्रार को भी शामिल करना चाहिए। क्योंकि जब तक आप यह नहीं जानते कि किसी जिले में कितने लोगों की मौत हुई है, और किसी विशिष्ट क्षेत्र में असामान्य मृत्यु दर की जानकारी नहीं मिलती, तब तक आप जमीनी स्थिति का आकलन नहीं कर सकते। इसलिए भारत के रजिस्ट्रार जनरल (आरजीआई) को भी (टास्क फोर्स में) शामिल किया जाना चाहिए,” प्रो मावलंकर ने कार्बनकॉपी को बताया।
हीटवेव से होने वाली मौतों का वर्गीकरण आसान नहीं है और भारत में हीटवेव से होने वाली मौतों का कोई विश्लेषण या रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है। हीटवेव के प्रभाव का पता लगाने का एकमात्र तरीका है कि इस मौसम के दौरान हर रोज़ के मृत्यु दर के आंकड़ों को देखा जाए।
प्रो मावलंकर ने कहा, “जैसे मौसम विभाग आपको रोजमर्रा का तापमान बताता है, आरजीआई को हर रोज होने वाली मौतों का डेटा देना चाहिए और इससे (हीटवेव की) स्थिति को समझने में मदद मिलेगी। अस्पतालों में भर्ती मरीजों की संख्या के बारे में दैनिक बुलेटिन जारी किया जाए तो मरीजों के लक्षणों के आधार पर यह जानने में भी मदद मिल सकती है कि कितने मरीज हीटवेव से प्रभावित हैं।”
क्या चुनावों का समय बदला जा सकता है?
ऐसा क्या किया जा सकता है कि चुनावी प्रक्रिया पर बढ़ती गर्मी का प्रभाव न्यूनतम हो? शोध बताते हैं कि भविष्य में “बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण सभी जिलों में हीटवेव का खतरा काफी बढ़ जाएगा”। इसलिए, भविष्य में गर्मियों में हमें और भी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। भले ही राजनैतिक दल और मतदाता प्रचार और मतदान के दौरान सुरक्षा बरतें, लेकिन इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गर्मी के प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता है।
भारत एक संघीय लोकतंत्र है। हर पांच साल में होने वाले आम चुनावों के अलावा भी अलग-अलग राज्यों में चुनाव होते रहते हैं। भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत का सुझाव है कि सभी राजनैतिक दलों की एक बैठक बुलाकर राज्य और केंद्र के चुनावों के समय पर आम सहमति बनाई जानी चाहिए।
”संसदीय चुनाव कराने के लिए छह महीने का समय होता है,” उन्होंने कहा, और याद दिलाया कि कुछ राज्यों के चुनाव हमेशा आम चुनावों से कुछ महीने पहले होते हैं।
“भविष्य में ऐसी स्थिति से बचने के लिए, चुनाव आयोग को एक सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए जहां इस बात पर सहमति बन सके कि राज्यों के चुनाव दो महीने की देरी से कराए जाएं और संसदीय चुनाव 6 महीने की विंडो के दौरान कराए जाएं। अब 2029 में जो अगले आम चुनाव होंगे, उनके लिए समय 1 जनवरी से 30 जून के बीच है। चुनाव कराने के लिए वसंत सबसे अच्छा समय है। या फिर, कानून में एक संशोधन होना चाहिए जो चुनाव आयोग को राज्य विधानसभा चुनावों को थोड़ा पहले करने का अधिकार दे।”
भारत में हीटवेव के प्रभाव पर चर्चा ऐसे समय में हो रही है जब पूरी दुनिया में क्लाइमेट पॉलिटिक्स चर्चा के केंद्र में है। हालांकि अभी एक लंबा रास्ता तय करना है, लेकिन ग्रीन पार्टियों और उनके उम्मीदवारों ने यूरोप में जीत दर्ज की है और जलवायु संबंधी मुद्दों पर ध्यान आकर्षित किया है। ऐसे में चुनावी प्रक्रिया पर गर्मी का असर भारत में भी इस बहस की एक दिलचस्प संभावना उत्पन्न करता है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर भी समय में बदलाव और छोटे चुनाव कार्यक्रम की वकालत करते हैं।
“संविधान में इसके लिए प्रावधान है और मौजूदा संसद का कार्यकाल समाप्त होने से छह महीने पहले चुनाव कराए जा सकते हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भारत के चुनाव आयोग को न केवल विभिन्न राजनैतिक दलों और सरकारों, बल्कि बड़े पैमाने पर लोगों की सुविधा, आराम और पसंद पर भी ध्यान देना होगा। इस प्रतिकूल जलवायु स्थिति के मद्देनजर, चुनाव आयोग तीन महीने पहले चुनाव करा सकता था,” छोकर ने कहा।
हीटवेव क्या है
यदि किसी स्टेशन का अधिकतम तापमान मैदानी इलाकों के लिए कम से कम 40 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक तक पहुंच जाता है और सामान्य से 4 डिग्री अधिक होता है तो हीटवेव घोषित की जाती है। तटीय स्टेशनों के लिए यह सीमा 37 डिग्री सेल्सियस या अधिक है और पहाड़ी क्षेत्र के लिए कम से कम 30 डिग्री सेल्सियस या अधिक है। यदि दिन के अधिकतम तापमान सामान्य औसत से 5 डिग्री अधिक हैं, तो वह गंभीर हीटवेव की श्रेणी में आ सकते हैं। हमेशा जब अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक हो जाता है तो गंभीर हीटवेव की घोषणा की जाती है।
गुणात्मक रूप से देखा जाए तो हीटवेव गर्म हवा की एक स्थिति है जिसके संपर्क में आना मानव शरीर के लिए घातक हो सकती है। मात्रात्मक रूप से इसकी परिभाषा किसी क्षेत्र विशेष के वास्तविक तापमान या सामान्य तापमान से विचलन के आधार पर दी जाती है। कुछ देशों में इसे तापमान और आर्द्रता के आधार पर या तापमान के चरम प्रतिशत के आधार पर ताप सूचकांक के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है।
हालांकि, हीटवेव को दो प्रकारों में बांटा जा सकता है: शुष्क हीटवेव और आर्द्र हीटवेव। अधिक नमी वाली आर्द्र हीटवेव शुष्क हीटवेव की तुलना में कहीं अधिक हानिकारक होती हैं, जो मानव जीवन को काफी खतरे में डाल सकती हैं।
आमतौर पर, पसीने के द्वारा मानव शरीर खुद को ठंडा कर लेता है। पसीने में मौजूद पानी वाष्पित हो जाता है और गर्मी को शरीर से दूर ले जाता है। हालांकि, जब नमी अपेक्षाकृत अधिक होती है, तो पसीने की वाष्पीकरण दर कम हो जाती है। यानि शरीर से गर्मी धीरे-धीरे निकलती है, और शुष्क हवा की तुलना में अधिक देर तक शरीर में बरकरार रहती है।
आर्द्रता की भूमिका को हीट इंडेक्स (एचआई) द्वारा मापा जाता है। यह वो तापमान है जो महसूस होता है। इसमें हवा के तापमान और सापेक्ष आर्द्रता को मिलाकर निर्धारित किया जाता है। इससे यह पता चलता है कि वास्तव में कितना गर्म महसूस हो रहा है। वायुमंडलीय नमी में कोई भी वृद्धि एचआई में कुल वृद्धि के एक बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार होती है। इसे वेट बल्ब तापमान भी कहा जाता है और 35° सेल्सियस को मानव के जीवित रहने की ऊपरी सीमा माना जा सकता है।
उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को छोड़कर, अन्य प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में भारत में हीटवेव ने अधिक जानें ली हैं। गर्मी के कारण मौत और बीमारी का खतरा ग्रामीण और शहरी दोनों तरह की आबादी पर है। हालांकि, कम शिक्षित और गरीब तबके के लोग, वृद्ध और कम हरे-भरे स्थान वाले समुदायों में रहने वाले लोग इन खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। इसके अलावा, बढ़ी हुई नमी और तापमान के कारण होने वाला तनाव (हीट स्ट्रेस) मानव जीवन को बड़े खतरे में डाल सकता है।
असामान्य गर्मी अब हो गई है आम
दुनिया भर के वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग में अभूतपूर्व वृद्धि के प्रति चेतावनी दे रहे हैं। पिछले 50 वर्षों में धरती का तापमान पिछले 2,000 वर्षों की तुलना में कहीं अधिक तेजी से बढ़ा है। 1850 के बाद से पृथ्वी का तापमान प्रति दशक औसतन 0.11 डिग्री फ़ारेनहाइट (0.06 डिग्री सेल्सियस) या कुल मिलाकर लगभग 2 डिग्री फ़ारेनहाइट बढ़ गया है। 1982 के बाद से वार्मिंग की दर तीन गुना से अधिक तेज हुई है: यानि प्रति दशक 0.36 डिग्री फ़ारेनहाइट (0.20 डिग्री सेल्सियस)।
असामान्य गर्मी अब आम बात हो गई है। इतिहास के 10 सबसे गर्म साल पिछले दशक (2014-2023) में हुए हैं। 2016 को पीछे छोड़ते हुए 2023 सबसे गर्म साल रहा है।
एनओएए (नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन) और नासा (नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) के संयुक्त आंकड़ों के अनुसार, 2023 में ग्लोबल सर्फेस तापमान 1.4 डिग्री सेल्सियस (2.52 डिग्री फारेनहाइट) दर्ज किया गया, जो 144 साल में सबसे अधिक था और प्रारंभिक औद्योगिक (1881-1910) बेसलाइन औसत से ऊपर था।
लोगों, चुनावों और अर्थव्यवस्था पर गर्मी का प्रभाव
लोगों के स्वास्थ्य के अलावा, हीटवेव का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव भी पड़ता है, क्योंकि इससे ऊर्जा की खपत बढ़ती है, फसल की पैदावार कम होती है, जल की हानि और सूखा या जंगल की आग बढ़ जाती है। पारा चढ़ने से महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर नेटवर्क में बाधा आ सकती है और श्रम उत्पादकता कम हो सकती है।
एक अध्ययन के अनुसार, भारत में उमस भरी गर्मी के प्रभाव के कारण वर्तमान में सालाना लगभग 259 बिलियन मैन ऑवर का नुकसान होता है। पिछला अनुमान 110 बिलियन मैन ऑवर था। इस सदी के पहले 20 सालों में भारत ने इसके पिछले 20 सालों की तुलना में सालाना 25 बिलियन अधिक मैन ऑवर खो दिए। इसके अलावा, यदि वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक बनी रहती है तो भारत में खेत मजदूरी की क्षमता 17% तक कम हो जाएगी और यदि देश भर में उत्सर्जन में कटौती तेज हो जाती है तो यह 11% तक कम हो जाएगी।
हीट एक्शन प्लान पर काम अभी भी जारी है
आने वाले वर्षों में हीटवेव की संभावना बढ़ने के साथ, हीटवेव एक्शन प्लान (एचएपी) की जरूरत भी बढ़ गई है। हीटवेव की पूर्व चेतावनी प्रणाली और उससे निपटने की तैयारी के लिए बनाई गई योजनाओं को हीटवेव एक्शन प्लान कहा जाता है। इन योजनाओं को आर्थिक रूप से हानिकारक और जानलेवा हीटवेव के प्रति देश की प्राथमिक प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा जा सकता है।
पहला हीट एक्शन प्लान 2013 में अहमदाबाद नगर निगम ने लॉन्च किया था, जो न केवल पूरे भारत के लिए एक आदर्श बन गया, बल्कि इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता भी मिली। भारत सरकार देश भर में एचएपी विकसित करने और लागू करने के लिए 23 राज्यों और 130 से अधिक शहरों और जिलों के साथ काम कर रही है।
हालांकि, एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, लगभग सभी हीट एक्शन प्लान संवेदनशील समुदायों की पहचान करने और उनतक सहायता पहुंचाने के लिए अपर्याप्त हैं। इन योजनाओं में फंड की कमी है, पारदर्शिता का अभाव है और इनका कानूनी आधार भी कमजोर है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अधिकांश एचएपी स्थानीय जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं और हीटवेव के खतरे के बारे में उनका दृष्टिकोण अत्यधिक सरल है।
एनआरडीसी इंडिया के क्लाइमेट रेजिलिएंस और स्वास्थ्य के प्रमुख अभियंत तिवारी कहते हैं, “हमने देखा है कि इन योजनाओं की फंडिंग और संस्थागत कार्यान्वन में कमियां हैं, लेकिन अच्छी बात यह है कि उन कमियों की पहचान की जा रही है और उनका समाधान किया जा रहा है। साथ ही, इस तरह की तैयारियों और प्रतिक्रियाओं से आगे देश बड़ी दीर्घकालिक योजनाओं की ओर बढ़ रहा है।”
हीटवेव से निपटने की प्रक्रिया भूकंप और बाढ़ जैसी अन्य आपदाओं के प्रबंधन से अलग हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह योजनाएं अधिक सूक्ष्मस्तरीय होनी चाहिए, जिससे संवेदनशील समुदायों की समस्याओं को पर्याप्त रूप से संबोधित किया जाए। इसके लिए हीटवेव के हॉटस्पॉट्स की पहचान की जानी चाहिए।
“एचएपी स्थानीय जरूरतों के अनुरूप और विकेंद्रीकृत होना चाहिए। अगर मैं प्रारंभिक चेतावनी की बात करूं तो आप देखेंगे कि जिस तापमान पर श्रीनगर में रहने वाले लोग प्रभावित होते हैं, वह उस तापमान से बिल्कुल अलग है जिसपर चंदरपुर और जलगांव के लोग प्रभावित होंगे। महाराष्ट्र के विदर्भ में 40 डिग्री शायद सामान्य हो, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसा नहीं है,” तिवारी ने कार्बनकॉपी से कहा।
2013 में भारत के पहली एचएपी का नेतृत्व करने वाले मावलंकर का कहना है कि केंद्रित दृष्टिकोण, पर्याप्त फंडिंग और सार्वजनिक जागरूकता के बिना एक्शन प्लान सिर्फ कागज पर ही रह जाएंगे।
“वास्तविक कार्रवाई की तुलना में कागजों पर अधिक प्रगति हुई है। इसका एक कारण यह है कि इसके लिए कोई बजट आवंटित नहीं किया गया है। कार्रवाई का आधा हिस्सा जन जागरूकता है और लोगों को जागरूक करने के लिए आपको बड़े पैमाने पर विज्ञापनों की जरूरत है। लेकिन क्या आपने हीटवेव से बचाव के बारे में कोई विज्ञापन देखा है? ऐसा इसलिए क्योंकि उसके लिए कोई बजट नहीं है। विशेष रूप से जब इस पैमाने पर चुनाव चल रहे हों, तो आपको अधिक जागरूकता अभियानों की आवश्यकता होती है ताकि लोग जान सकें कि गर्मी से खुद को कैसे बचाया जाए,” मावलंकर ने कहा।
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