एक नए अध्ययन में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग यदि पेरिस समझौते में मौजूद 2 डिग्री सेल्सियस की सीमा से ऊपर हुई तो पृथ्वी की दूसरी सबसे बड़ी बर्फ की चादर — अंटार्कटिका में मौजूद फ़िल्च्नर-रोन हिमचट्टान — बड़े पैमाने पर पिघल सकती है, जिसके कारण दुनियाभर में समुद्रों का जलस्तर बहुत अधिक बढ़ जाएगा।
बर्फ की यह चादर अंटार्कटिका की सीमा से लगे वेडेल सागर के दक्षिणी भाग को कवर करती है। इस आइस शेल्फ के पूर्वी भाग के नीचे एक गर्त है जिसे फिल्चनर ट्रफ कहा जाता है। गर्त के भीतर पानी का तापमान अंटार्कटिक तटीय धारा द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसके कारण मौसम के अनुसार अलग-अलग मात्रा में गर्म गहरा पानी फिल्चनर ट्रफ में प्रवाहित होता है। जर्मनी में अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर एंड मरीन रिसर्च के शोधकर्ताओं ने यह पाया है की गर्म गहरे पानी के इस प्रवाह से गर्त के ऊपर मौजूद आइस शेल्फ का निचला भाग लगतार पिघल रहा है।
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि गर्त में पानी के लगातार गर्म होने से बर्फ के पिघलने में वृद्धि हो सकती है और इससे दुनिया भर में समुद्र के स्तर में वृद्धि हो सकती है।
ग़रीब और हाशिए पर रह रहे लोगों पर जलवायु संकट का सबसे अधिक प्रभाव
शहरी लोगों पर होने वाले सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को ध्यान में रख बनाए गए एक मॉडल में पाया गया है गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदाय पर जलवायु जनित ख़तरों और संकट की सर्वाधिक चोट पड़ती है। इस रिपोर्ट का शीर्षक है: ‘क्लाइमेट रेजिलिएंट सिटीज़: असेसिंग डिफरेंसियल वल्नेरेबिलिटी टु क्लाइमेट हैजार्ड इन अर्बन इंडिया’। रिपोर्ट की प्रमुख लेखक लुबाइना रंगवाला कहती हैं, ‘हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि ख़तरों का आकलन समुदाय विशेष को लेकर कैसे किया जाए।’ रंगवाला इसे समझाते हुए कहती हैं कि मुंबई के तटीय क्षेत्र पर संकट है लेकिन यह कोली समुदाय और वहां के बड़े रियल एस्टेट के लोगों के लिए एक सा नहीं हो सकता। इस तरह भूस्खलन के संकट का आकलन करते हुए पता चला कि मुंबई के 70% लैंडस्लाइड संभावित इलाके झोपड़-झुग्गी वाले क्षेत्रों में पड़ते हैं।
ऊष्णदेशीय क्षेत्र में अत्यधिक बारिश की बढ़ती गंभीरता के पीछे बादलों का खेल
गर्म होती जलवायु में क्लाउड क्लस्टरिंग यानी बादलों के जमाव का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों ने पाया है कि तापमान बढ़ने के साथ एक्सट्रीम रेन फॉल (चरम वर्षा) की घटनाएं अधिक विनाशक हो जाती हैं। ऑस्ट्रिया के इस्टिट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी और जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट और मेटिरोलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक क्लाइमेट मॉडल के प्रयोग से यह जानने की कोशिश की कि बादलों और तूफान की क्लस्टरिंग (जमाव) होने पर चरम वर्षा की घटनायें किस तरह प्रभावित होती हैं।
उन्होंने पाया कि गर्म होती जलवायु के साथ ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में एक्सट्रीम रेनफॉल की घटनाओं की मार बढ़ जाती है। अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों ने कहा कि जिन क्षेत्रों में बादलों की क्लस्टरिंग होती है वहां लंबे समय तक बरसात होती है और इसलिये कुल बारिश बढ़ जाती है।
कृत्रिम प्रकाश की बढ़ती संस्कृति क्या कीट-पतंगों के लिए ख़तरा है?
माना जाता है कि कीड़े प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं लेकिन हाल ही में नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में प्रकाशित एक शोध ने कीड़ों के प्रकाश के प्रति अस्थिर व्यवहार का रहस्य उजागर किया है। यह अध्ययन बताता है कि सभी कीड़े समान रूप से प्रकाश की ओर आकर्षित नहीं होते हैं। वे सीधे प्रकाश की ओर नहीं जाते हैं, बल्कि प्रकाश स्रोत से उन्हें जोड़ने वाली रेखा से समकोण पर उड़ने का प्रयास करते हैं।
दरअसल, कीड़े प्राकृतिक रूप से प्रकाश की ओर पीठ करके उड़ते हैं। इसे आप उनकी जीन प्रोग्रामिंग कह सकते हैं। यही तंत्र उन्हें दिन के समय – जब सूर्य ऊपर होता है – सीधे उड़ने में मदद करता है। रात में, जब सूर्य नहीं होता, तो वे अपनी उड़ान की दिशा बनाए रखने के लिए उपलब्ध प्रकाश स्रोतों का उपयोग करते हैं। रात में जब कीड़े कृत्रिम प्रकाश देखते हैं, तो वे अपनी उड़ान की दिशा निर्धारित करने के लिए इसका उपयोग करते हैं। वे प्रकाश के सबसे चमकीले क्षेत्रों की ओर अपनी पीठ रखने का प्रयास करते हैं। यह प्रक्रिया, जिसे ‘डोर्सल लाइट रिस्पांस’ कहा जाता है, के प्रभाव से वे प्रकाश के चारों ओर मंडराने लगते हैं।
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के बीच कीट पतंगों के व्यवहार का अध्ययन अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। मक्खियों की तरह ही परागण में कीट-पतंगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इस कारण वे जैव विवधता संरक्षण में अहम हैं। बहुत सारे कीट पक्षियों का आहार बनते हैं और खाद्य श्रंखला का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाते हैं। उनकी उपस्थिति बताती है कि किसी क्षेत्र में जलीय जीवन और जैव विविधता कितनी स्वस्थ या कमज़ोर है। इसलिए उनकी आबादी में गिरावट पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है, जिसका एक प्रमुख कारण कृत्रिम प्रकाश के प्रति कीड़ों का व्यवहार भी है। आधुनिक युग में प्रकाश प्रदूषण में वृद्धि के बीच यह समझना महत्वपूर्ण है कि कृत्रिम प्रकाश कीड़ों को कैसे प्रभावित करता है। यह समझ हमें ऐसे कृत्रिम प्रकाश स्रोत विकसित करने में मदद कर सकती है जो कीड़ों के लिए कम आकर्षक हों और उनकी घटती आबादी को रोकने में मदद करें।
बदलती जलवायु से क्यों बढ़ेंगे टिड्डियों के हमले
जलवायु परिवर्तन और उससे उपजे मौसम बदलाव के कारण भारत में पश्चिमी सीमा से होने वाले टिड्डियों के हमले बढ़ सकते हैं। अनियमित मौसम, अचानक तेज़ हवा और बेमौसमी बारिश से रेगिस्तानी टिड्डी – जो कि उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया के कुछ शुष्क क्षेत्रों में पाई जाने वाली एक छोटी सींग वाली प्रजाति,एक प्रवासी कीट है – का संकट बढ़ रहा है।
ये टिड्डियां लाखों के झुंड में लंबी दूरी तक यात्रा करती हैं और फसलों को भारी नुकसान पहुंचाती है, जिससे अकाल और खाद्य असुरक्षा होती है। साइंस एडवांसेज़ नाम की पत्रिका में कहा गया है कि गर्म होती जलवायु में ऐसी टिड्डियों के ख़तरे बढ़ेंगे और इनसे होने वाली क्षति को रोकना नामुमकिन होगा।
करीब एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 8 करोड़ टिड्डियों का झुंड समा जाता है कि और इनके बढ़ते हमले खाद्य सुरक्षा के लिये बड़ा संकट पैदा कर सकते हैं।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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