फीका समझौता: ग्लासगो सम्मेलन एक कमज़ोर संधि के लिये जाना जायेगा हालांकि ये तय हुआ है कि सभी देश अगले साल यूएन को जानकारी देंगे कि पेरिस डील में तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिये क्या किया है | Photo: IISD Earth Bulletin

ग्लोसगो वार्ता: अहम मुद्दों पर फिर आंख चुराई विकसित देशों ने

स्कॉटलैंड में चल रही जलवायु परिवर्तन वार्ता के आखिर दिन अमीर देशों के अड़ियल रवैये के कारण कई महत्वपूर्ण कदम फिर अगले साल होने वाली वार्ता के लिये टाल दिये गये। जहां एक ओर धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के लिये कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिये संकल्प लिया गया वहीं अगले साल सभी देशों को संयुक्त राष्ट्र के इस सम्मेलन में बताना होगा कि उन्होंने पेरिस सन्धि में तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिये अपने देश की आर्थिक नीतियों में क्या बदलाव किये हैं।

जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध प्रयोग से स्पेस में अब तक सबसे अधिक कार्बन छोड़ने वाले विकसित देशों की इस बाते के लिये कड़ी आलोचना हो रही है कि वह न तो क्लाइमेट फाइनेंस दे रहे हैं और न ही इक्विटी के सिद्धांत को मान रहे हैं यानी जिन गरीब और विकासशील देशों को अभी कोयले पर निर्भर रहना पड़ेगा उन्हें भी उसी रफ्तार से कोयला प्रयोग घटाने को कह रहे हैं जो विकसित देशों को करना चाहिये।  

जलवायु परिवर्तन पर पिछले दो हफ्ते से चल रही वार्ता (कॉप-26)  शनिवार को यूके के ग्लासगो में समाप्त हो गई। कुल 198 देशों ने इसमें हिस्सा लिया। कोरोना महामारी के कारण यह बैठक पिछले साल आयोजित नहीं हो सकी। संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी स्पेशल रिपोर्ट में कहा है कि क्लाइमेट चेंज के कारण हो रही बर्बादी को रोकने के लिये 2030 तक दुनिया का कुल कार्बन उत्सर्जन (2010 के स्तर पर) आधार करना होगा। वार्ता में सम्मेलन में इसके लिये संकल्प जताया गया फिर भी विकसित देशों ने जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को ‘फेज़ आउट’ करने के बजाय ‘फेज़ डाउन’ करने की बात कही गई है। जानकार इसकी कड़ी आलोचना की है।

ग्लोसगो वार्ता: लॉस एंड डैमेज को नहीं किया दस्तावेज़ में शामिल

गरीब और विकासशील देशों द्वारा सम्मेलन में लॉस एंड डैमेज यानी क्लाइमेट चेंज प्रभावों की चोट की भरपाई की जो मांग की गई है उसका शोर तो ग्लासगो में खूब हुआ पर  वार्ता के अंतिम दस्तावेज की औपचारिक भाषा में शामिल न करना विकासशील देशों के लिये बड़ी निराशा रही। इसके अलावा 2020 से विकसित देशों द्वारा विकासशील और गरीब देशों को हर साल 100 बिलियन डालर की मदद को भी 2023 तक टाल दिया गया है। महत्वपूर्ण है कि लॉस एंड डैमेज को वार्ता में शामिल करने और अमीर देशों द्वारा क्लाइमेट प्रभावों से क्षति की भरपाई की बात कोपेनहेगेन (2009) से चल रही है। क्लाइमेट प्रभावों के कारण छोटे द्वीप समूह देशों और  अति अल्प विकसित देशों (एडीसी देश) पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ रहा है। क्रिश्चन एड  का अनुमान है कि अफ्रीकी देशों को हर साल जीडीपी का 10 प्रतिशत हिस्सा इन प्रभावों से लड़ने में खर्च करना पड़ता है। 

ग्लोसगो वार्ता: नेट ज़ीर पर सहमत लेकिन जीवाश्म ईंधन सब्सिडी हटाने के प्रस्ताव का भारत ने किया विरोध

ग्लोसगो सम्मेलन में जहां सभी बड़े देशों ने अपने नेट ज़ीरो वर्ष का ऐलान किया वहीं भारत ने भी 2070 तक नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल कर लेने का वादा किया। हालांकि नेट ज़ीरो का पूरा फलसफा ही विवादों में है और जानकार इस वर्तमान ज़िम्मेदारी से भागने का बहाना बता रहे हैं। दूसरी ओर सम्मेलन में यह भी तय हुआ है कि 

दूसरी ओर जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को पूरी तरह बन्द करने के प्रस्ताव का भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और क्यूबा समेत कई देशों ने विरोध किया। विकसित देश चाहते थे कि सभी विकासशील देश कोयला, तेल और गैस पर सब्सिडी पूरी तरह खत्म करें लेकिन  भारत के जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव ने वार्ता में कहा कि कार्बन बजट पर विकासशील देशों का न्यायोचित अधिकार है और वह उनसे नहीं छीना जा सकता। यादव ने कहा कि मौजूदा हालात में गरीबी मिटाने और सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने में इस सब्सिडी का अहम रोल है।  

ग्लोसगो वार्ता: मीथेन की भूमिका को मिला महत्व

जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में पहली बार मीथेन उत्सर्जन को रोकने के लिये गंभीरता दिखी है।  सम्मेलन के दूसरे ही दिन अमेरिका और यूरोपियन यूनियन समेत कुल 105 देशों ने इस समझौते पर दस्तखत किये कि वो अपने मीथेन इमीशन में 2030 तक 30% की कमी करेंगे। मीथेन कम समय तक वातावरण में मौजूद रहने वाली ग्रीन हाउस गैस है लेकिन वह कार्बन डाइ ऑक्साइड के मुकाबले कई गुना अधिक ग्लोबल वॉर्मिंग करती है। इस समझौते पर सही तरीके से अमल किया गया तो मीथेन के उत्सर्जन में 40% तक कमी हो सकती है। भारत ने कृषि और पशुपालन क्षेत्र  देश के हितों को देखते हुये इस संधि पर दस्तखत नहीं किये।  

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