इस्पात उत्पादन की क्षमता में भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर है, और 2030 तक यह क्षमता और बढ़ने की उम्मीद है।

भारत के नेट जीरो लक्ष्य पर कोयला आधारित स्टील निर्माण का खतरा: रिपोर्ट

विशेषज्ञों का कहना है कि यदि भारत इस्पात उद्योग को डीकार्बनाइज़ करने में देरी करके निर्माण जारी रखेगा तो इसका उल्टा असर हो सकता है।

ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर की एक नई रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि कोयला-आधारित इस्पात निर्माण में भारत के निवेश और भारी उत्सर्जन करने वाली भट्टियों (ब्लास्ट फर्नेस) का जीवनकाल बढ़ाने की सरकार की योजना से देश का 2070 तक नेट जीरो प्राप्त करने का लक्ष्य खटाई में पड़ सकता है। रिपोर्ट में यह भी चेतावनी दी गई है कि अगर साफ ऊर्जा और सख्त पर्यावरण नीतियों के कारण यह कोयला-आधारित इस्पात संयंत्र और भट्टियां अनुपयोगी हो जाते हैं तो भारत को 187 अरब डॉलर तक का नुकसान हो सकता है।

वर्तमान में चीन के बाद इस्पात उत्पादन की क्षमता में भारत दूसरे स्थान पर है। और 2030 तक इसकी योजना इस क्षमता को और बढ़ाने की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चूंकि भारत की अर्थव्यवस्था 2032 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकती है, देश के इस्पात क्षेत्र पर उत्पादन बढ़ाने का जबरदस्त दबाव होगा।

उत्पादन में वृद्धि से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इस्पात उत्पादक अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की स्थिति और मजबूत होगी। निकट भविष्य में स्टील का उत्पादन मुख्य रूप से  ब्लास्ट फर्नेस-बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस प्रक्रिया से ही होता रहेगा, जिसमें बहुत अधिक उत्सर्जन होता है। परिणामस्वरूप, रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि देश के भीतर स्टील की वार्षिक मांग 2024 में 136 मिलियन टन से बढ़कर 2034 तक 221-275 मिलियन टन हो सकती है, 2025 में वैश्विक स्टील की मांग में 1.2% की वृद्धि होगी।

भारत में हरित इस्पात उत्पादन की चुनौतियां

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत इस्पात उद्योग पहले से ही दुनिया में सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले उद्योगों में से एक है। वर्तमान में भारत की 87% से अधिक लौह उत्पादन क्षमता कोयले पर निर्भर है, और विकसित की जा रही नई क्षमता में से भी 90% कोयले पर निर्भर होगी। भारत में इस्पात उद्योग वर्तमान में सालाना 240 मिलियन टन से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है, जो देश के कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग 12% है। और 2030 तक यह आंकड़ा  दोगुना हो सकता है। कच्चे इस्पात के उत्पादन में भी भारत में सबसे अधिक उत्सर्जन होता है। भारत में प्रति टन कच्चे इस्पात के उत्पादन में 2.55 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन (tCO2/tcs) होता है, जो 1.85 tCO2/tcs के वैश्विक औसत से 38% अधिक है। यह अधिकता साफ तौर पर कोयला-आधारित इस्पात उत्पादन के कारण है।

सितंबर 2024 में भारत के इस्पात मंत्रालय ने उद्योग को पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए एक योजना जारी की। यह रोडमैप राष्ट्रीय उत्सर्जन को 2030 तक 2005 के स्तर से 45% तक कम करने के लक्ष्य के अनुरूप बनाया गया है। निकट भविष्य में उत्सर्जन में कटौती के लिए वर्तमान उत्पादन विधियों में थोड़े बहुत बदलाव किए जा रहे हैं, जिनसे उत्सर्जन की तीव्रता कम हो सकती है। लेकिन इस्पात उद्योग को पूरी तरह से डीकार्बनाइज़ करने और समय के साथ उत्पादन बनाए रखने के लिए भारत को अंततः कोयले से दूर जाना होगा।

ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर की भारी उद्योग शोधकर्ता खदीजा हीना ने कहा, “इस्पात उद्योग में नेट-जीरो हासिल करने के लिए भारत का ‘बिल्ड नाउ, डीकार्बनाइज लेटर’ का दृष्टिकोण लंबे समय में उलटा असर करेगा। हालांकि इस्पात क्षेत्र को हरित बनाने के लिए 2024 का रोडमैप और एक्शन प्लान एक सकारात्मक कदम है, कोयला आधारित उत्पादन से दूर जाना अधिक जरूरी है। एक मजबूत हरित इस्पात इकोसिस्टम बनाने के लिए पर्याप्त निवेश की जरूरत है, न कि डीकार्बनाइजेशन की उभरती तकनीकों पर दांव लगाने की, जिन्होंने अभी तक अपनी क्षमता साबित नहीं की है।”

रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की अधिकांश मौजूदा ब्लास्ट फर्नेस क्षमता अपेक्षाकृत नई है। इस क्षमता का लगभग 72% (या 75 मिलियन टन प्रति वर्ष) पिछले 20 वर्षों में बनाया गया था। इसके अतिरिक्त, इस क्षमता के 43 मिलियन टन प्रति वर्ष को 2030 से पहले बड़ी मरम्मत या अपग्रेड की आवश्यकता होगी, जिसे रिलाइनिंग कहा जाता है। 

इस कारण से, इनमें से कई भट्टियां अभी भी अपनी प्रारंभिक निवेश लागत का भुगतान कर रही हैं। यानि की संभावना है कि वह लंबे समय तक जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहेंगीं, जिसे “फॉसिल लॉक-इन” कहते हैं। परिणामस्वरूप, कोयला आधारित भट्टियों से दूर जाना अधिक कठिन हो जाएगा, जिससे इस्पात उद्योग में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास धीमे हो सकते हैं और भारत के जलवायु लक्ष्य खटाई में पड़ सकते हैं।

हरित इस्पात निर्माण तकनीक पर स्विच करने की जरूरत

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस्पात क्षेत्र के डीप डीकार्बनाइजेशन के लिए थर्मल पावर संयंत्रों पर निर्भरता कम करके नवीकरणीय स्रोतों पर स्विच करना महत्वपूर्ण है। इस्पात मंत्रालय का लक्ष्य 2030 तक इस्पात उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग मौजूदा 7.2% से बढ़ाकर 43% करना है। इस बदलाव से भारत में इस्पात उत्पादन से होनेवाले औसत उत्सर्जन में 8% की कमी आने की उम्मीद है।

इस्पात निर्माण की लागत में ऊर्जा पर होनेवाला खर्च 20-40% होने के कारण, इस क्षेत्र के लिए जरूरी है कि ऊर्जा दक्षता के प्रभावी उपायों का कार्यान्वयन किया जाए। इस्पात उत्पादकों को अपनी ऊर्जा खपत को कम करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए 2012 में शुरू की गई परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना उद्योग में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने में सहायक रही है। 

हालांकि ऊर्जा दक्षता के उपायों से उत्सर्जन में मामूली कटौती ही होगी। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत के लौह और इस्पात क्षेत्र को डीकार्बनाइज़ करने के लिए अंततः हरित इस्पात निर्माण प्रौद्योगिकियों में पूरी तरह परिवर्तन की जरूरत होगी।

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