पिछले बुधवार को न्यूयॉर्क में हुए क्लाइमेट एंबिशन समिट में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले दुनिया के प्रमुख देश अनुपस्थित रहे। इन्हीं देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बेपरवाह दुनिया की बड़ी कंपनियां तेल और गैस के कारोबार को लगातार बढ़ा रहीं हैं। दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक चीन ने कह दिया है कि जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को पूरी तरह समाप्त करने की बात व्यवहारिक नहीं है।
उधर यूके के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक द्वारा नेट ज़ीरो के लिए हरित नीतियों को ढीला करने के बाद क्लाइमेट एक्शन पर बड़े सवाल खड़े हो गए हैं।
न्यूयॉर्क सम्मेलन में जहां बड़े देशों की गैर मौजूदगी से जीवाश्म ईंधन का प्रयोग घटाने या कम करने की मंशा पर सवाल उठे, वहीं दुनिया भर के क्लाइमेट कार्यकर्ता तेल, गैस और कोयले के प्रयोग को बंद करने की मांग लेकर अलग अलग देशों में सड़कों पर उतरे। क्लाइमेट एंबशिन सम्मेलन में अमेरिका, चीन, यूनाइटेड किंडगम, जापान और फ्रांस के अलावा भारत भी मौजूद नहीं था। ये सभी देश बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं।
यूएई सम्मेलन से पहले की तैयारी
दिसंबर में यूएई में हो रहे जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन यानी कॉप-28 से पहले यह सम्मेलन काफी अहम था, क्योंकि तेज़ी से उबल रही धरती को बचाने के लिए जीवाश्म ईंधन को फेजडाउन या फेजआउट करने की बातें तो चल रही हैं, लेकिन वास्तविक अमल नहीं हो रहा। संयुक्त राष्ट्र के इस सम्मेलन में उन्हीं देशों को बोलने का मौका दिया गया जो अपने राष्ट्रीय लक्ष्य बढ़ाने का वादा कर रहे हैं। कुल 41 देशों ने इस सम्मेलन में अपनी बात रखी।
सम्मेलन में भारत की गैर-मौजूदगी से भी स्पष्ट हुआ कि बड़े उत्सर्जकों की सियासत और वार्ता में पेंच कहीं अटक गया है। भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश है और चीन और अमेरिका के बाद उसके वर्तमान एमिशन सबसे अधिक हैं। लेकिन प्रति व्यक्ति (पर कैपिटा) एमिशन के हिसाब से भारत काफी नीचे है। अमेरिका के मुकाबले उसके पर कैपिटा एमिशन 7 गुना कम हैं, जबकि रुस से 5.5 गुना और चीन से करीब 3.5 गुना कम हैं।
‘मानवता ने खोला नर्क का द्वार’
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने दुनिया के सभी देशों को चेतावनी दी कि अगर उनका वर्तमान रवैया (बिजनेस एज यूज़वल) जारी रहा तो धरती को तापमान में 2.8 डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है। महत्वपूर्ण है के 1.5 डिग्री से अधिक तापमान वृद्धि के बाद नतीजे अति विनाशकारी होंगे। गुटेरेस ने इस संकट से लड़ने की अपील करते हुए कहा, “मानवता ने (जलवायु संकट के कारण) नर्क के द्वार खोल दिए हैं।”
अमेरिका, चीन, भारत, रूस, यूनाइटेड किंगडम और जापान मिलकर दुनिया के कुल 60 प्रतिशत से ज़्यादा एमिशन के लिए ज़िम्मेदार हैं। जी-20 समूह के देशों का सम्मिलित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन दुनिया के कुल एमिशन का 80% है। यह ग्लोबल वॉर्मिंग और उस कारण बढ़ते क्लाइमेट प्रभावों से होने वाली क्षति के लिए ज़िम्मेदार होगा।
क्लाइमेट एंबिशन सम्मेलन में कैलिफोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसम (जिन्होंने पिछले राष्ट्रपति चुनावों में जो बाइडेन और कमला हैरिस का समर्थन किया था) ने साफ कहा कि विश्व नेताओं ने धोखा दिया है। उन्होंने कहा कि जलवायु संकट और कुछ नहीं है बल्कि जीवाश्म ईंधन का संकट है। इसके बावजूद बड़ी-बड़ी कंपनियां लगातार इसमें निवेश बढ़ा रही हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक अगर पेरिस संधि में ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए किए गए वादे पूरे भी किए जाते हैं (जो कि एक अपर्याप्त प्रयास है) तो भी 2050 तक वैश्विक जीडीपी को 4% तक क्षति होगी क्योंकि तापमान वृद्धि 2 डिग्री तक पहुंच ही जाएगी।
लेकिन 2.6 डिग्री की तापमान वृद्धि के हालात में ग्लोबल जीडीपी को 14% की क्षति होगी जबकि गुटेरेस ने तो अपने भाषण में कहा 2.8 डिग्री तापमान वृद्धि की चेतावनी दी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि 3 डिग्री से अधिक की तापमान वृद्धि में कई शहरों और लघुद्वीपीय देशों का अस्तित्व ही मिट जाएगा और दुनिया को कुल जीडीपी के 18% की क्षति होगी।
लॉस एंड डैमेज पर विवाद जारी
ज़ाहिर तौर पर दुबई वार्ता से पहले लॉस एंड डैमेज एक बड़ा मुद्दा है। पिछले साल मिस्र में हुए क्लाइमेट वार्ता सम्मेलन में भले ही लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना की गई लेकिन न्यूयॉर्क सम्मेलन में स्पेन और ऑस्ट्रिया के अलावा किसी देश ने इस फंड में धन जमा करने का ज़िक्र नहीं किया।
थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की प्रोग्राम प्रमुख मीना रमन कहती हैं, “पिछले कई दशकों से स्पेस में लगातार कार्बन छोड़ते रहे विकसित देश जब विकासशील देशों पर (जलवायु परिवर्तन) के प्रभावों की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करते हैं तो यह उन देशों के साथ घोर अन्याय है जिनका कार्बन इमीशन में नहीं के बराबर योगदान है।”
पाकिस्तान और लीबिया जैसे देशों को लॉस एंड डैमेज फंड के लाभार्थियों की सूची से बाहर रखने को विकासशील देशों में फूट डालने की रणनीति माना जा रहा है। इसी तरह विकसित देशों द्वारा फंड को विश्व बैंक के तहत रखे जाने पर भी चिन्ताएं व्यक्त की गईं क्योंकि क्लाइमेट फाइनेंस की रिपोर्टिंग पर विश्व बैंक का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है।
इस फंड के क्रियान्वयन के बारे में अक्टूबर में होने वाली अहम बैठक में होगा लेकिन विकसित देशों के रवैये को लेकर पर्यावरण कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों में निराशा है। रमन कहती हैं, “इस फंड को विश्व बैंक के तहत रखने का मकसद अधिक एक अधिक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अस्वीकार करना है जहां विकासशील देशों को अपनी बात कहने का अधिकार हो।”
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