बरसात के रवैये में दिख रहा जलवायु परिवर्तन का प्रमाण

क्लाइमेट साइंस

Newsletter - July 29, 2021

विनाशकारी संकेत: एक ओर बारिश और भूस्खलन से लोगों की मौत हो रही है और दूसरे ओर 200 से अधिक ज़िलों में औसत से कम बारिश हुई है। फोटो - Twitter

बाढ़-भूस्खलन से भारत में सैकड़ों मरे, जानकारों ने दी जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव की चेतावनी

बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से पिछले पखवाड़े भारत में अलग-अलग जगह कुल मिलाकर करीब 200 लोग मारे गये। महाराष्ट्र, हिमाचल और गोवा के साथ जम्मू-कश्मीर में ये घटनायें प्रमुख रहीं। महाराष्ट्र में बरसात बाढ़ से 164 लोग अब तक मारे गये हैं और 2 लाख से अधिक विस्थापित हुये हैं। रत्नागिरी ज़िले में बरसात के मामले में 40 साल पुराना रिकॉर्ड टूट गया। मौसम विभाग का कहना है कि  1 जुलाई से 22 जुलाई के बीच यहां 1,781 मिमी बारिश हुई जबकि उस क्षेत्र में औसतन 972.5 मिमी बारिश होती है। मुंबई में मूसलाधार बारिश रुक-रुक कर हुई। बरसात के एक ऐसे ही मूसलाधार चरण में  17 जुलाई की रात चेम्बूर और विखरोली में भूस्खलन हुआ और  22 लोग मारे गये 

जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में बादल फटने से कम से कम 4 लोग मारे गये और 35 लापता हो गये। हिमाचल में चट्टान गिरने और बड़े पत्थर के एक वाहन से टकरा जाने  से 9 टूरिस्ट मारे गये। उत्तराखंड से भी भूस्खलन और लोगों के जान जानी की ख़बर आई। विशेषज्ञों का कहना है कि अप्रत्याशित बरसात और उसका पैटर्न जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का असर हो सकता है।  

एक-तिहाई ज़िलों में सामान्य से कम बारिश: कृषि मंत्रालय 

देश के कुल 229 ज़िलों में सामान्य से कम बारिश हुई जिसका कृषि पर ख़राब असर पड़ेगा। यह बात कृषि मंत्रालय ने कही है। देश में कुल 700 से अधिक ज़िले हैं और करीब एक तिहाई ज़िलों में कम बरसात की वजह से वहां खरीब की फसल की बुआई प्रभावित हुई है। इससे धान, मोटा अनाज और तिलहन की पैदावार पर चोट पहुंच सकती है। पिछले साल के मुकाबले पूरे देश में इस साल अभी तक धान की बुआई 6.8% कम हो पाई है और दालों की बुआई भी पिछले 5 साल के औसत के मुकाबले इस साल कम है। डाउन टु अर्थ में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक ओडिशा, छत्तीसगढ़, आसाम, बिहार, गुजरात आदि राज्यों में धान की बुआई लक्ष्य से काफी कम हो पाई है। हालांकि मध्यप्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश में अब तक धान की बुआई अधिक हुई है।

ट्रॉपिकल जंगलों की CO2 सोखने की क्षमता घट रही है: शोध 

हमेशा से ही जंगलों और वनस्पतियों को कार्बन का भंडार माना जाता रहा है क्योंकि ये बड़ी मात्रा में CO2 को सोखते हैं। वैज्ञानिकों के लिये यह पता करना हमेशा एक चुनौती रहा है कि जंगल असल में कितना कार्बन सोख रहे हैं और वहां से कितना उत्सर्जित हो रहा है क्योंकि पेड़-पौंधे भी सांस लेते हैं तो कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ते और जब जंगलों में आग लगती है या वनस्पतियां सड़ती हैं तो वह ग्रीन हाउस गैस छोड़ती हैं। 

अमेरिका में नासा की एक प्रयोगशाला में यह पता लगाने की कोशिश की गई कि पिछले दो दशकों में दुनिया अलग-अलग तरह के जंगल कितना कार्बन छोड़ या सोख रहे हैं। यह पता चला है कि जीवित पेड़ दुनिया की 80% CO2 को सोखने के लिये ज़िम्मेदार थे। ट्रापिकल इलाकों में समशीतोष्ण यानी टेम्परेट इलाकों के मुकाबले कार्बन सोखने और छोड़ने की मात्रा अधिक थी लेकिन कार्बन सोखने की उनकी नेट क्षमता हाल के वर्षों में घटी है। बार-बार सूखा पड़ना और आग लगने जैसी घटनायें इसके लिये ज़िम्मेदार हैं। 

पलायन से भी बढ़ रहे क्लाइमेट के ख़तरे

अब तक ये माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन पलायन को बढ़ा रहा है लेकिन नये शोध बताते हैं कि इसके विपरीत प्रभाव भी दिख रहे हैं यानी पलायन से जलवायु के ख़तरों का बढ़ना। भारत में जिन जगहों में कृषि प्रमुख व्यवसाय रहा है अब वहां से लोग तेजी से शहरों की ओर जा रहे हैं। विज्ञान पत्रिका नेचर में छपे एक लेख में कहा गया है कि इस कारण शहरों में जलवायु से जुड़े अधिक खतरे दिखाई दे रहे हैं। शहरों में पहले ही आबादी का काफी दबाव है लेकिन खेती पर बढ़ते संकट के कारण लोग सामाजिक आर्थिक वजहों से शहरों की ओर आ रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि प्रमुख प्रवासी गंतव्य – जैसे मुंबई और दिल्ली पिछले कुछ दशकों से  कई जलवायु-संबंधी खतरों में वृद्धि देख रहे हैं।

इस शोध के अनुसार भविष्य में दक्षिण एशिया में, घातक हीटवेव बढ़ने का अनुमान है। चूंकि शहरी क्षेत्रों में बढ़ती गर्मी यहां की जनसंख्या वृद्धि से जुड़ी हुई है, प्रवासियों का एक बड़ा प्रवाह पहले से ही घनी आबादी वाले मेगासिटी में हीटवेव के प्रभाव को और बढ़ायेगा। लेख के अनुसार हीटवेव का  सबसे ज्यादा  प्रभाव प्रवासी समुदाय द्वारा महसूस किए जाने की संभावना है, क्योंकि वे पहले से ही घनी आबादी वाली झुग्गी झोपड़ियों में रह रहे हैं जहां जीने के लिये सामान्य सुविधायें तक नहीं हैं। 

ऐल्प्स  में बनीं 1,000 से अधिक झीलें, क्लाइमेट चेंज का असर

ऐल्प्स  मध्य यूरोप की सबसे बड़ी पर्वतमाला है। पिछले हफ्ते प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण स्विटज़रलैंड के ऐल्प्स पर्वतों के ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। पिछले साल उनका दो प्रतिशत हिस्सा कम हो गया। साल 1850 के बाद से, स्विस ऐल्प्स  के पूर्व हिमाच्छादित क्षेत्रों में लगभग 1,200 नई झीलें बन  गई हैं । करीब 1,000 झीलें इस क्षेत्र में आज भी हैं।  

स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ एक्वाटिक साइंस एंड टेक्नोलॉजी द्वारा प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि साल 2016 में स्विस ग्लेशियल झीलों ने इन ऊंचे पहाड़ों का लगभग 620 हेक्टेयर क्षेत्र को कवर किया। सबसे बड़ी झील 40 हेक्टेयर मापी गई, लेकिन 90 प्रतिशत से अधिक झीलें एक हेक्टेयर से छोटी थी। वैज्ञानिकों ने 1200 झीलों की अलग-अलग समय पर स्थान, ऊंचाई, आकार, क्षेत्र, बांध की सामग्री के प्रकार और सतह के जल निकासी को रिकॉर्ड किया जो ग्लोबल वॉर्मिंग से खतरों का स्पष्ट संकेत है। 

अध्ययन  के अनुसार  हिमनद झील के निर्माण की रफ्तार 1946 और 1973 के बीच उच्चतम स्तर पर पहुंच गई जब हर साल औसतन आठ नई झीलें बनी। उसके बाद कुछ ज़रूर मिली लेकिन 2006 और 2016 के बीच, नई हिमनद झीलों का निर्माण फिर से काफी बढ़ गया। विश्लेषण  में बताया गया है कि इस दौरान हर साल औसतन 18 नई झीलें दिखाई दीं और पानी की सतह में सालाना 1,50,000 वर्ग मीटर से अधिक की वृद्धि हुई।


क्लाइमेट नीति

छत्तीसगढ़ ने कोयला खदानों की नीलामी को हरी झंडी दी

छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल कैबिनेट ने केंद्र सरकार द्वार तय किये गये 18 में से 17 कोल ब्लॉक्स की नीलामी के लिये सहमति दे दी है। इससे वन्य जीवों पर खनन के प्रभाव को लेकर सवाल खड़े हो गये हैं क्योंकि ये जंगल हाथियों, तेंदुओं और भालुओं का घर हैं।  रायगढ़ ज़िले के बारा कोल ब्लॉक को नीलामी से बाहर रखा गया है क्योंकि इसके आसपास बहुत आबादी है।   जिन कोल ब्लॉकों की नीलामी मंजूर की गई है वह धरमजयगढ़, सरगुजा, सूरजपुर और कोरिया फॉरेस्ट डिविज़न में हैं। अनुमान है कि इन 17 कोल ब्लॉक्स के कुल 80 करोड़ टन कोयला उत्पादन होगा। छत्तीसगढ़ में कुल 5,800 करोड़ टन कोयले का भंडार है और इसका वर्तमान सालाना उत्पादन 15 करोड़ टन है। 

COP26 के 100 दिन बाकी: विकासशील देशों ने अमीर देशों से तेजी से इमीशन कम करने को कहा 

इस साल ग्लासगो में होने वाले जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन COP26 के केवल 100 दिन बचे हैं और दुनिया के 100 से अधिक देशों ने अमीर देशों से अपील की है कि वो अपने ग्रीन हाउस गैस इमीशन तेजी से कम करें। इन देशों ने विकसित देशों से ये भी कहा है कि उन गरीब देशों को आर्थिक मदद दी जाये जिन पर जलवायु परिवर्तन का बुरा असर पर रहा है और जिनके पास इससे लड़ने के लिये संसाधन नहीं हैं। सबसे कम विकसित देशों – जिन्हें एलडीसी कहा जाता है – ने नवंबर में होने वाले ग्लासगो सम्मेलन से पहले पांच मांगें रखी हैं जिनमें विकसित देशों से कार्बन इमीशन कट करने के लक्ष्य को तय समय से पहले हासिल करने और अपने नेशनल प्लान को अपग्रेड करने को कहा है। इसके अलावा इन देशों ने क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में $100 बिलियन ($10,000 करोड़) डालर सालाना मदद भी मांगी है। 

इस बीच इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (IEA) ने चेतावनी दी है कि अगर सरकारों के कोविड-19 ग्रीन रिकवरी प्लान लागू नहीं हुये तो 2023 तक ग्रीन हाउस गैस इमीशन रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच जायेंगे। वैज्ञानिकों ने कहा है कि इसमें असफलता का मतलब है कि पेरिस संधि के तहत तय क्लाइमेट लक्ष्य पहुंच से बाहर होंगे। धरती की तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री के नीचे सीमित रखने के लिये इस दशक के अंत तक सभी देशों को इमीशन आधे करने होंगे। 

EU: क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिये ‘फिट फॉर 55’ पैकेज 

यूरोपियन यूनियन ने इस दशक में हरित लक्ष्य हासिल करने के लिये ‘फिट फॉर 55 पैकेज’ की घोषणा की है। EU ने तय किया है कि वह सम्मिलित रूप से अपने इमीशन में 2030 तक  -1990 की तुलना में-  55% कटौती करेगा। इस योजना के तहत कार्बन बॉर्डर टैक्स लगाना और हवाई जहाजों और जलपोतों की आवाजाही पर कार्बन टैक्स लगाना शामिल है ताकि हीटिंग, ट्रांसपोर्ट और मैन्युफैक्चरिंग जैसे सेक्टरों में ग्रीन एनर्जी को प्रोत्साहित किया जा सके। 

चीन ने कार्बन इमीशन ट्रेडिंग योजना की शुरुआत की 

चीन ने इस महीने अपनी नेशनल इमीशन ट्रेडिंग स्कीम (ETS) की शुरुआत की। रिपोर्ट के मुताबिक पहले चरण में 41 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड की ट्रेडिंग हुई जिसकी कीमत 21 करोड़ युवान या 3.2 करोड़ डॉलर रही। ये दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन मार्केट है और पहले फेज की ट्रेडिंग में 2,000 बिजलीघर शामिल हैं जिनसे 400 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड का इमीशन होता है। ट्रेडिंग के पहले दिन औसत ट्रांजेक्शन 51.23 युवान/ टन यानी 7.92 डॉलर/ टन पर बन्द हुआ जो 6.7% की बढ़ोतरी है। पेट्रोचायना और साइनोपेक जैसी कंपनियों ने पहले दिन की ट्रेडिंग में हिस्सा लिया। 


वायु प्रदूषण

गरीबों पर मार: वायु प्रदूषण से न केवल बीमारियां बढ़ रही हैं बल्कि गरीबों पर इसकी सर्वाधिक मार पड़ रही है। फोटो - Pexels

प्रदूषण की सबसे अधिक मार पड़ती है ग़रीबों पर

भारत में किस व्यक्ति पर वायु प्रदूषण की कितनी मार पड़ेगी यह बात आर्थिक स्थिति से भी जुड़ी हुई है। देश के सबसे गरीब 10 प्रतिशत को सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के मुकाबले वायु प्रदूषण से मरने का ख़तरा नौ गुना अधिक होता है। यह बात सोमवार को नेचर सस्टेनिबिलिटी नाम के जर्नल में प्रकाशित हुए शोध में कही गई है। स्टडी में पाया गया कि ऊंची आय वर्ग के लोग आउटडोर प्रदूषण के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं जो पीएम 2.5 के रूप में मापा जाता है और जिसका स्रोत वाहन और मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री है। इकट्ठा किये गये आंकड़ों और फिर सॉफ्टरवेयर के ज़रिये उनके विश्लेषण से पता चला कि जहां सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों में प्रति यूनिट प्रदूषण से 6.3 लोगों की मौत होती है वहीं सबसे ग़रीब में प्रदूषण से जुड़ी इन मौतों का आंकड़ा 54.7 है। 

वायु प्रदूषण से बढ़ रही हैं अ-संक्रामक बीमारियां 

एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स ऑफ इंडिया (एसोचैम) के एक सर्वे में पता चला है कि भारत में असंक्रामक बीमारियां बढ़ने का प्राथमिक कारण वायु प्रदूषण है। व्यायाम न करना और असंतुलित भोजन इसके बाद दो सबसे बड़े कारण हैं। सर्वे में कहा गया कि पूरे देश में असंक्रामक बीमारियों( जैसे उच्च रक्तचाप , दिल की  बीमारियाँ , डायबिटीज आदि)  की दर 116 व्यक्ति प्रति हज़ार है।  उड़ीसा में यह आंकड़ा सबसे अधिक 272 व्यक्ति प्रति हज़ार है जबकि गुजरात में यह सबसे कम 60 व्यक्ति प्रति हज़ार है। सांस संबंधी रोगों के अलावा कैंसर, दिल की बीमारी, रक्तचाप, किडनी संबंधी रोग और  पाचन संबंधी बीमारियां वायु प्रदूषण से जुड़ी हैं। 

थॉट आर्बिट्राज रिसर्च इंस्टिट्यूट (TARI) द्वारा किये गये इस सर्वे में कहा गया है कि 18 साल की उम्र के बाद ये बीमारियां शुरू होती हैं और 35 साल की उम्र के बाद तेजी से बढ़ती हैं। सर्वे बताता है कि 26-59 साल की सबसे अधिक कार्य-सक्रिय उम्र में ये बीमारियां घेरती हैं। 

अमेरिका के पश्चिमी हिस्से में जंगलों की आग से पूर्वी तट के शहरों में प्रदूषण बढ़ा 

पश्चिमी अमेरिका के जंगलों में 80 आग की घटनाओं से जो धुंआं उठा उस वजह से पूर्वी अमेरिका और कनाडा के कई शहरों, जिनमें फिलेडेल्फिया, वॉशिंगटन डीसी, पिट्सबर्ग, टोरन्टो और न्यूयॉर्क शामिल हैं, वायु प्रदूषण हानिकारक स्तर तक बढ़ गया है। न्यूयॉर्क में वायु प्रदूषण के स्तर दुनिया के सबसे ख़राब शहरों जितने बिगड़ गये और प्रशासन ने अस्थमा और सांस की बीमारी वाले लोगों को कोई अधिक परिश्रम वाला काम न करने की सलाह दी। 

विशेषज्ञों ने उपग्रह की तस्वीरों का अध्ययन कर बताया कि पहले धुंआं कनाडा में घुसा और उसके बाद पूर्वी अमेरिका में प्रविष्ट हो गया और मिनिसोटा जैसे राज्य की हवा बहुत प्रदूषित हो गई। अमेरिका में लगातार दूसरे साल पश्चिम में जंगलों की आग से उठा धुंआं करीब 2000 मील की दूरी तय करके पूर्वी इलाके में पहुंच गया। पश्चिमी हिस्से में सूखे और मानव जनित क्लाइमेट चेंज के कारण ये हालात पैदा हो रहे हैं। 


साफ ऊर्जा 

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लगातार कम हो रही है अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में सब्सिडी

साल 2017 में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में सब्सिडी अपने सबसे ऊंचे स्तर पर थी। उसके बाद से यह लगातार गिर रही है और अब तक इनमें 45% गिरावट हुई है। दो संस्थाओं इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (IISD) और काउंसिल ऑन एनर्जी, इन्वायरोंमेंट एंड वॉटर (CEEW) ने “मैपिंग इंडियाज़ एनर्जी सब्सिडीज़ 2021: टाइम फॉर रिन्यूड सपोर्ट टु क्लीन एनर्जी”   नाम से प्रकाशित अध्ययन में यह बात कही है और कहा है कि सरकार को सब्सिडी तुरंत बढ़ाने की ज़रूरत है। मोंगाबे में इस स्टडी पर प्रकाशित रिपोर्ट कहती है कि साल 2017 में क्लीन एनर्जी क्षेत्र को  कुल 15,470 करोड़ रुपये की सब्सिडी मिली थी  जो 2020 में घटकर 8,577 करोड़ रुपये रह गई। 

शोधकर्ताओं ने पाया है कि तेल और गैस क्षेत्र (जो कार्बन उत्सर्जन करते हैं) में सब्सिडी बढ़ी है। जानकार कहते हैं कि सौर और पवन ऊर्जा की दरों तेज़ी से गिरावट और कोविड-19 के कारण बिजली की मांग में कमी से कोल एनर्जी सेक्टर बहुत घाटे में है और ये हालात क्लीन एनर्जी में सब्सिडी गिरावट की वजह हो सकते हैं। 

इस बीच सरकारी कंपनी गुजरात ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड ने छोटे सोलर प्रोजेक्ट्स को मिलने वाली सब्सिडी खत्म कर दी है जिसका असर कुल 2,500 मेगावॉट क्षमता के 4,000 प्रोजेक्ट्स पर पड़ेगा। 

सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन लगायेगा 2,000 मेगावॉट स्टोरेज प्रोजेक्ट 

सरकारी कंपनी सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (SECI) की 2,000 मेगावॉट का एक अलग एनर्जी स्टोरेड सिस्टम बनाने की योजना है। इसे निजी कंपनी द्वारा खड़ा किया जायेगा। इसे बिल्ड ऑन ऑपरेट (BOO) आधार पर बनाया जायेगा जिसमें निजी कंपनी के साथ अनुबंध का नवीनीकरण होता रहता है। पहली बार में प्राइवेट कंपनी के साथ 25 साल का अनुबंध होगा। भारत ने साल 2022 तक 1,75,000 मेगावॉट साफ ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य रखा है जिसे 2027 तक 2,75,000 मेगावॉट और 2030 तक 4,50,000 मेगावॉट करने का लक्ष्य है। विशेषज्ञों का मानना है कि स्टोरेड की जो कीमत साल 2020 में $ 203 प्रति किलोवॉट-घंटा आंकी गई थी वह 2025 तक $ 134  प्रति किलोवॉट-घंटा पर आ सकती है। 

सरकार का दावा: कुल बिजली उत्पादन क्षमता का 39% है क्लीन एनर्जी 

सरकार ने दावा किया है कि साफ ऊर्जा उत्पादन की कुछ क्षमता भारत में कुल स्थापित बिजली संयंत्रों की क्षमता के 39% के बराबर हो गई है।  केंद्रीय बिजली और अक्षय ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में कहा है कि – सौर, पवन, बायोमास और छोटे हाइड्रो मिलाकर –  30 जून 2021 को भारत की साफ ऊर्जा क्षमता 96950 मेगावॉट रही। इसमें बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट शामिल नहीं हैं। सरकार बड़े हाइड्रो को भी क्लीन एनर्जी में शामिल मानती है। सरकार के मुताबिक इसे मिलाकर साफ ऊर्जा की क्षमता 1,50,060 मेगावॉट हो जाती है जो कि कुल स्थापित पावर जनरेशन क्षमता का 39% है। सरकार का कहना है कि पेरिस समझौते के तहत 2030 तक साफ ऊर्जा का हिस्सा 40% करने का जो वादा किया था उस लिहाज से देश की गाड़ी पटरी पर है। महत्वपूर्ण है कि सरकार ने 2022 तक 1,75,000 मेगावॉट साफ ऊर्जा के संयंत्र लगाने का लक्ष्य रखा है जिसमें 1,00,000 मेगावॉट सोलर पावर और 60,000 मेगावॉट पवन ऊर्जा शामिल है। 

उत्तराखंड में घरों पर सोलर पैनल लगाना होगा अनिवार्य 

उत्तराखंड में अब घर का नक्शा पास कराने से पहले सोलर पैनल लगाने और वर्षा जल संचयन की योजना बताना अनिवार्य होगा। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर और गिरते भू-जल स्तर के कारण सरकार ने ये नियम बनाये हैं। उत्तराखंड में हाइड्रो, सोलर और थर्मल पावर प्लांट हैं लेकिन फिर भी राज्य को बाहर से बिजली लेनी पड़ती है। अभी राज्य में 295 मेगावॉट क्षमता के सौर ऊर्जा  प्लांट लगे हैं। राज्य सरकार कहती है कि नई नीति से वह बाहर से बिजली लेने की समस्या को खत्म कर देना चाहती है। 


बैटरी वाहन 

दुपहिया को तरजीह: राजस्थान सरकार ने अपनी नई ईवी नीति में दुपहिया और तिपहिया वाहनों पर छूट दी है लेकिन कारों को इससे बाहर रखा है। फोटो - Unsplash

राजस्थान ने ईवी पॉलिसी की घोषणा की, बैटरी कारों के लिये सब्सिडी नहीं

राजस्थान सरकार ने विद्युत वाहन नीति की घोषणा कर दी है जिसके तहत दुपहिया या तिपहिया खरीदने वालों को ₹ 5,000 से ₹ 20,000 की छूट मिलेगी। यह छूट बैटरी के साइज पर निर्भर करेगी। सब्सडी के तहत ग्राहक द्वारा बतौर जीएसटी टैक्स भुगतान को वापस लौटाया जायेगा और फेम-2 योजना के तहत छूट दी जायेंगी। हालांकि राज्य सरकार ने विद्युत कारों और बसों को छूट नहीं दी है जबकि इन दोनों माध्यमों से काफी लोग चलते हैं।

यामाहा: भारत में निवेश सरकार की नीतियों और रोडमैप पर निर्भर है

जापानी टू-व्हीलर कंपनी यामाहा ने कहा है कि वह भारत में ई-मोबिलिटी प्लेटफॉर्म तैयार कर रही है लेकिन उसका निवेश सरकार की नीतियों और रोडमैप पर निर्भर करेगा। हालांकि सरकार ने फेम- 2 योजना के तहत पिछले महीने इलैक्ट्रिक दुपहिया वाहनों के लिये इन्सेन्टिव बढ़ाये हैं लेकिन यामाहा का कहना है कि बड़ा मुद्दा इलैक्ट्रिक मोबिलिटी के लिये मूलभूत ढांचा खड़ा करना है जिसके तहत चार्जिंग स्टेशन, बैटरी उत्पादक कारखाने और बैटरी की अदला-बदली की सुविधा शामिल है। यामाहा मोटर्स इंडिया ग्रुप के चेयरमैन मोतोफुमी शितारा ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा कि उनकी कंपनी पिछले 2 साल से ताइवान में बैटरी दुपहिया बना रही है इसलिये उसके पास टेक्नोलॉजी और ईवी मॉडल बनाने की विशेषज्ञता है।  कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि वह भारत के बाज़ार को वाहनों की कीमत,  पर्फोरेमेंस और मूलभूत सुविधाओं के लिहाज से परख रही है। 

टेस्ला ने भारत से आयात शुल्क घटाने को कहा

अमेरिकी इलैक्ट्रिक कार कंपनी टेस्ला ने भारत सरकार से कहा है कि वह $ 40,000 से अधिक कीमत वाली कारों के लिये आयात शुल्क 60% से घटाकर 40% करे। टेस्ला भारत में अपना कारखाना लगाने से पहले कुछ कारों को यहां लाकर टेस्ट करना चाहता है। इससे पहले उसने सरकार से इम्पोर्ट ड्यूटी में कमी करने की मांग की है। टेस्ला मानती है कि अगर आयात शुल्क 40% हो गया तो अमीर ग्राहक इन कारों – बेस मॉडल 3 – को खरीद पायेंगे और निचले सेगमेंट में घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिये प्रतिस्पर्धा होगी।   

टेस्ला दूसरे इलैक्ट्रिक वाहनों के लिये अपना सुपर चार्जिंग  नेटवर्क खोलने की भी सोच रहा है। इससे चार्जिंग स्टेशनों का अधिक इस्तेमाल होगा और अधिक ग्राहक इसका फायदा उठा पायेंगे। दूसरी कंपनियों की गाड़ी चला रहे ग्राहकों से टेस्ला चार्जिंग का शुल्क वसूल सकता है।   


जीवाश्म ईंधन

नई खोज: भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर का दावा है कि उसने आइल स्पिल को नियंत्रित करने के लिये कपास आधारित सुपर एब्सोर्बेंट बना लिया है। फोटो - GreenPeace

भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर ने तेल को सोखने की तकनीक विकसित की

भारत के परमाणु रिसर्च संस्थान भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर (BARC) ने कहा है कि उसने बिखरे तेल (आयल स्पिल) को नियंत्रित करने के लिये कपास आधारित सुपर एब्सोर्बेंट इजाद कर लिया है जिसका 1 ग्राम मिलाने से वह पानी में घुले कम से कम 1.5 किलो तेल को सोख सकता है। यह शोषक (एब्सोर्बेंट) 50-100 बार इस्तेमाल किया जा सकता है और उसके बाद मिट्टी में मिल कर नष्ट हो सकता है यानी बायोडिग्रडेबल है। इसकी मदद से नगरपालिकाओं के प्रदूषित पानी और सड़कों पर बिखरे तेल को साफ किया जा सकता है और आयल स्टेशन में होने वाले स्पिल को भी नियंत्रित किया जा सकता है। दिसंबर 2020 में इसका पेटेंट दिया गया। 

पावर सेक्टर के 73% इमीशन के लिये केवल 5% कोल प्लांट ज़िम्मेदार 

यूनिवर्सिटी ऑफ कोलेरेडो के ताज़ा अध्ययन में पाया गया है कि 73% ग्लोबल पावर इमीशन केवल 5% कोयला बिजलीघरों से हो रहे हैं। सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले हर 10 बिजलीघरों में से 6 पूर्वी एशिया में हैं।  बाकी चार में से 2-2 भारत और यूरोप में हैं और उनमें से हर कोई उत्तरी गोलार्ध में है। पोलैंड का 27 साल पुराना बेल्चाटोव प्लांट विश्व का सबसे अधिक कार्बन छोड़ने वाला बिजलीघर है। यह कम प्रदूषण करने वाले बिजलीघरों की तुलना में प्रति यूनिट 28-76% अधिक कार्बन  छोड़ता है। 

पावर सेक्टर के 73% इमीशन के लिये केवल 5% कोल प्लांट ज़िम्मेदार 

इस अध्ययन में यह पाया गया है कि सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजलीघरों का इमीशन रोक कर एनर्जी सेक्टर के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 49% की कमी की जा सकती है। बाकी बिजलीघरों के इमीशन पर काबू कर अमेरिका, साउथ कोरिया, जापान और ऑस्ट्रेलिया अपने बिजली क्षेत्र के इमीशन 80% कम कर सकते हैं। 

ग्रीनलैंड ने तेल और गैस का प्रयोग बन्द करने का फैसला किया 

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए ग्रीनलैंड की सरकार ने तय किया है कि वह अपनी तटरेखा पर तेल या गैस निकालने की मंज़ूरी नहीं देगी। ग्रीनलैंड ने इसे एक “स्वाभाविक कदम” कहा है। जियोलॉजिकल सर्वे ने कहा है कि यहां 1750 करोड़ बैरल तेल और 148 लाख करोड़ घन फीट प्राकृतिक गैस है लेकिन ग्रीनलैंड फिर भी अक्षय ऊर्जा को इस्तेमाल करेगा।