विनाशकारी संकेत: एक ओर बारिश और भूस्खलन से लोगों की मौत हो रही है और दूसरे ओर 200 से अधिक ज़िलों में औसत से कम बारिश हुई है। फोटो - Twitter

बाढ़-भूस्खलन से भारत में सैकड़ों मरे, जानकारों ने दी जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव की चेतावनी

बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से पिछले पखवाड़े भारत में अलग-अलग जगह कुल मिलाकर करीब 200 लोग मारे गये। महाराष्ट्र, हिमाचल और गोवा के साथ जम्मू-कश्मीर में ये घटनायें प्रमुख रहीं। महाराष्ट्र में बरसात बाढ़ से 164 लोग अब तक मारे गये हैं और 2 लाख से अधिक विस्थापित हुये हैं। रत्नागिरी ज़िले में बरसात के मामले में 40 साल पुराना रिकॉर्ड टूट गया। मौसम विभाग का कहना है कि  1 जुलाई से 22 जुलाई के बीच यहां 1,781 मिमी बारिश हुई जबकि उस क्षेत्र में औसतन 972.5 मिमी बारिश होती है। मुंबई में मूसलाधार बारिश रुक-रुक कर हुई। बरसात के एक ऐसे ही मूसलाधार चरण में  17 जुलाई की रात चेम्बूर और विखरोली में भूस्खलन हुआ और  22 लोग मारे गये 

जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में बादल फटने से कम से कम 4 लोग मारे गये और 35 लापता हो गये। हिमाचल में चट्टान गिरने और बड़े पत्थर के एक वाहन से टकरा जाने  से 9 टूरिस्ट मारे गये। उत्तराखंड से भी भूस्खलन और लोगों के जान जानी की ख़बर आई। विशेषज्ञों का कहना है कि अप्रत्याशित बरसात और उसका पैटर्न जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का असर हो सकता है।  

एक-तिहाई ज़िलों में सामान्य से कम बारिश: कृषि मंत्रालय 

देश के कुल 229 ज़िलों में सामान्य से कम बारिश हुई जिसका कृषि पर ख़राब असर पड़ेगा। यह बात कृषि मंत्रालय ने कही है। देश में कुल 700 से अधिक ज़िले हैं और करीब एक तिहाई ज़िलों में कम बरसात की वजह से वहां खरीब की फसल की बुआई प्रभावित हुई है। इससे धान, मोटा अनाज और तिलहन की पैदावार पर चोट पहुंच सकती है। पिछले साल के मुकाबले पूरे देश में इस साल अभी तक धान की बुआई 6.8% कम हो पाई है और दालों की बुआई भी पिछले 5 साल के औसत के मुकाबले इस साल कम है। डाउन टु अर्थ में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक ओडिशा, छत्तीसगढ़, आसाम, बिहार, गुजरात आदि राज्यों में धान की बुआई लक्ष्य से काफी कम हो पाई है। हालांकि मध्यप्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश में अब तक धान की बुआई अधिक हुई है।

ट्रॉपिकल जंगलों की CO2 सोखने की क्षमता घट रही है: शोध 

हमेशा से ही जंगलों और वनस्पतियों को कार्बन का भंडार माना जाता रहा है क्योंकि ये बड़ी मात्रा में CO2 को सोखते हैं। वैज्ञानिकों के लिये यह पता करना हमेशा एक चुनौती रहा है कि जंगल असल में कितना कार्बन सोख रहे हैं और वहां से कितना उत्सर्जित हो रहा है क्योंकि पेड़-पौंधे भी सांस लेते हैं तो कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ते और जब जंगलों में आग लगती है या वनस्पतियां सड़ती हैं तो वह ग्रीन हाउस गैस छोड़ती हैं। 

अमेरिका में नासा की एक प्रयोगशाला में यह पता लगाने की कोशिश की गई कि पिछले दो दशकों में दुनिया अलग-अलग तरह के जंगल कितना कार्बन छोड़ या सोख रहे हैं। यह पता चला है कि जीवित पेड़ दुनिया की 80% CO2 को सोखने के लिये ज़िम्मेदार थे। ट्रापिकल इलाकों में समशीतोष्ण यानी टेम्परेट इलाकों के मुकाबले कार्बन सोखने और छोड़ने की मात्रा अधिक थी लेकिन कार्बन सोखने की उनकी नेट क्षमता हाल के वर्षों में घटी है। बार-बार सूखा पड़ना और आग लगने जैसी घटनायें इसके लिये ज़िम्मेदार हैं। 

पलायन से भी बढ़ रहे क्लाइमेट के ख़तरे

अब तक ये माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन पलायन को बढ़ा रहा है लेकिन नये शोध बताते हैं कि इसके विपरीत प्रभाव भी दिख रहे हैं यानी पलायन से जलवायु के ख़तरों का बढ़ना। भारत में जिन जगहों में कृषि प्रमुख व्यवसाय रहा है अब वहां से लोग तेजी से शहरों की ओर जा रहे हैं। विज्ञान पत्रिका नेचर में छपे एक लेख में कहा गया है कि इस कारण शहरों में जलवायु से जुड़े अधिक खतरे दिखाई दे रहे हैं। शहरों में पहले ही आबादी का काफी दबाव है लेकिन खेती पर बढ़ते संकट के कारण लोग सामाजिक आर्थिक वजहों से शहरों की ओर आ रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि प्रमुख प्रवासी गंतव्य – जैसे मुंबई और दिल्ली पिछले कुछ दशकों से  कई जलवायु-संबंधी खतरों में वृद्धि देख रहे हैं।

इस शोध के अनुसार भविष्य में दक्षिण एशिया में, घातक हीटवेव बढ़ने का अनुमान है। चूंकि शहरी क्षेत्रों में बढ़ती गर्मी यहां की जनसंख्या वृद्धि से जुड़ी हुई है, प्रवासियों का एक बड़ा प्रवाह पहले से ही घनी आबादी वाले मेगासिटी में हीटवेव के प्रभाव को और बढ़ायेगा। लेख के अनुसार हीटवेव का  सबसे ज्यादा  प्रभाव प्रवासी समुदाय द्वारा महसूस किए जाने की संभावना है, क्योंकि वे पहले से ही घनी आबादी वाली झुग्गी झोपड़ियों में रह रहे हैं जहां जीने के लिये सामान्य सुविधायें तक नहीं हैं। 

ऐल्प्स  में बनीं 1,000 से अधिक झीलें, क्लाइमेट चेंज का असर

ऐल्प्स  मध्य यूरोप की सबसे बड़ी पर्वतमाला है। पिछले हफ्ते प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण स्विटज़रलैंड के ऐल्प्स पर्वतों के ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। पिछले साल उनका दो प्रतिशत हिस्सा कम हो गया। साल 1850 के बाद से, स्विस ऐल्प्स  के पूर्व हिमाच्छादित क्षेत्रों में लगभग 1,200 नई झीलें बन  गई हैं । करीब 1,000 झीलें इस क्षेत्र में आज भी हैं।  

स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ एक्वाटिक साइंस एंड टेक्नोलॉजी द्वारा प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि साल 2016 में स्विस ग्लेशियल झीलों ने इन ऊंचे पहाड़ों का लगभग 620 हेक्टेयर क्षेत्र को कवर किया। सबसे बड़ी झील 40 हेक्टेयर मापी गई, लेकिन 90 प्रतिशत से अधिक झीलें एक हेक्टेयर से छोटी थी। वैज्ञानिकों ने 1200 झीलों की अलग-अलग समय पर स्थान, ऊंचाई, आकार, क्षेत्र, बांध की सामग्री के प्रकार और सतह के जल निकासी को रिकॉर्ड किया जो ग्लोबल वॉर्मिंग से खतरों का स्पष्ट संकेत है। 

अध्ययन  के अनुसार  हिमनद झील के निर्माण की रफ्तार 1946 और 1973 के बीच उच्चतम स्तर पर पहुंच गई जब हर साल औसतन आठ नई झीलें बनी। उसके बाद कुछ ज़रूर मिली लेकिन 2006 और 2016 के बीच, नई हिमनद झीलों का निर्माण फिर से काफी बढ़ गया। विश्लेषण  में बताया गया है कि इस दौरान हर साल औसतन 18 नई झीलें दिखाई दीं और पानी की सतह में सालाना 1,50,000 वर्ग मीटर से अधिक की वृद्धि हुई।

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