हाइलाइट
– विश्व के 5 बड़े कोयला खनिकों में से 4 ने कोयले से दूरी बनाने के अपनी योजना की घोषणा की है
– ग्यारह ट्रिलियन डॉलर से अधिक की पूँजी का प्रबंधन करने वाले लगभग 1,110 संस्थानों ने जीवाश्म ईंधन से व्यापारिक दूरी की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है
– भारत की इस्पात माँग का 14% से 17%.के बीच सिकुड़ जाने की सम्भावना है। भवन निर्माण एवं अन्य निर्माण गतिविधियों में आयी मंदी और साथ में सरकार के घटते सार्वजनिक व्यय के चलती स्थिति में सुधार जल्दी होता नहीं दिखता
कोई तो वजह होगी जो ऊपरवाले ने कोयले को हमारी नज़रों और पहुँच से दूर, धरती की गहराईयों में दबा कर रखा है।
शायद इसलिए क्योंकि कोयला हमारे लिए ज़रूरी नहीं। क्योंकि ज़रूरी होता, तो ऊपरवाला हमसे इतनी जद्दोजेहद नहीं कराता। कोयला भी फिर हमें हवा और पानी की तरह ही मुहैय्या करा दिया जाता। दरअसल, कोयला हमारी ज़रूरत नहीं, चाहत है। ज़रूरत तो बस ऊर्जा है।
अब यहाँ सोचने बैठो तो एहसास होता है कि इस ज़िन्दगी को चाहतों ने ही तो बर्बाद कर रखा है। खैर, बात कोयले की करें तो माजरा असल में ये है कि हमें इसकी ऐसी आदत पड़ गयी है, या यूँ कहें कि हमें हमारी सरकारों ने इसकी ऐसी आदत डलवा दी है, कि हमें अब ये चाहत अपनी ज़रूरत लगने लगी है।
और ये तब है जब आज़ादी के बाद से अब तक अपनी ऊर्जा जरूरतों को थर्मल पावर उत्पादन के सहारे पूरा करने की कोशिशों में हमें नाकामयाबी ही हाथ लगी है। लगभग हर साल ही ग्रिड फेल होने की घटनाएँ संकेत देती आयी हैं कि जीवाश्म ईंधन और कोयले पर आधारित बिजली बहुत भरोसे लायक नहीं और यह कभी भी धोखा दे सकती है।
ज़ाहिर है कि बिजली संकट का समाधान दिन-ब-दिन महंगी होती जा रही कोयला दहन वाली प्रौद्योगिकियों पर निर्भरता बढ़ाकर संभव नहीं है। बिजली संकट के टिकाऊ और दीर्घकालिक हल के लिए हमें अक्षय ऊर्जा के स्रोतों जैसे सौर, माइक्रो हाइड्रो, पवन ऊर्जा में निवेश बढ़ाकर वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का एक ठोस बुनियादी ढांचा बनाने की दिशा में तत्पर होना होगा।
कोयला विद्युत संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन से करोड़ों भारतीयों के जीवन की गुणवत्ता और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। एक अध्ययन से पता चलता है कि कोयला आधारित बिजली स्टेशनों से उत्सर्जन के कारण दमा, श्वसन समस्या और हृदय रोग के लाखों मामले सामने आए हैं। दिल्ली-हरियाणा और पश्चिम बंगाल-झारखंड क्षेत्र में समस्या सबसे गंभीर है। मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़-झारखंड-ओडिशा क्षेत्र (कोरबा, सिंगरौली और तालचेर का इलाका) भी खतरनाक जोन में आता है। इसके अलावा मुंबई और पश्चिमी महाराष्ट्र, पूर्वी आंध्र प्रदेश और चंद्रपुर-नागपुर विदर्भ क्षेत्र भी कोयला विद्युत संयंत्रों से होने वाले उत्सर्जन से जूझ रहे है।
हाल ही में जारी एक अंतर्राष्ट्रीय जलवायु थिंक-टैंक, कार्बन ट्रैकर, की रिपोर्ट से पता चला है कि 60% से अधिक वैश्विक कोयला बिजली संयंत्र, रिन्यूबिल की तुलना में, उच्च लागत पर बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। 2030 तक सभी बाजारों में परिचालन कोयले की तुलना में नई पवन या सौर क्षमता संयंत्रो का निर्माण करना सस्ता होगा। दुनिया भर में, $ 638 बिलियन की लागत पर, 499GW की नई कोयला बिजली की योजना है या पहले से ही निर्माणाधीन है, लेकिन कार्बन ट्रैकर ने चेतावनी दी कि सरकारें और निवेशक अपने निवेश को कभी वापस नहीं पा सकते क्योंकि कोयले के संयंत्र आम तौर पर अपनी लागत को कवर करने में 15 से 20 साल लगते हैं। कोयला बिजली उत्पादक 600 अरब डॉलर से अधिक खोने के जोखिम में हैं। चीन में तो 158 बिलियन डॉलर जोखिम में है, जहाँ 100GW कोयले की शक्ति निर्माण में है और 106GW की योजना है। इसमें मौजूदा कोयला बिजली का 982GW है और इस लागत का 71% नए रिन्यूएबल्स के निर्माण की तुलना में अधिक है।
भारत में $ 80 बिलियन का जोखिम है क्योंकि 37GW कोयला बिजली निर्माण में और 29GW की योजना है। इसमें मौजूदा कोयला क्षमता का 222GW और आधे की लागत – 51% की – नए रिन्यूएबल्स से अधिक है।
अब आप ही बताइए, इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि एक तरफ़ तो सरकार, जलवायु परिवर्तन का भारतीय उपमहाद्वीप पर होने वाले असर की एक ज़बरदस्त शोध रिपोर्ट जारी कर, देश को हिदायत देती है कि अगर हमने पर्यावरण के हित में सही फ़ैसले नहीं लिए तो सदी के अंत तक हमारी धरती का तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा; और दूसरी ओर वही सरकार उस रिपोर्ट के जारी होने के अगले ही दिन कोयले के वाणिज्यिक उपयोग के लिए 41 कोल ब्लॉक्स की नीलामी प्रक्रिया की औपचारिक शुरुआत कर देती है।
सरकार अपने पक्ष में दलील देते हुए कहती है कि नीलामी की यह घोषणा ऐतिहासिक है और देश को ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की ओर एक कदम है। पीआईबी की विज्ञप्ति पर नज़र डालें तो पता चलता है कि यह नीलामी इसलिए ऐतिहासिक कही जा रही है क्योंकि इसके माध्यम से ‘देश का कोयला क्षेत्र बाधाओं की बेड़ियों से मुक्त होगा और प्रगति के नए अध्याय रचेगा’।
विज्ञप्ति में नीलामी को आत्मनिर्भरता से जोड़ते हुए कहा गया है कि ‘जब से स्वनदर्शी और निर्णायक छवि के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का उद्घोष किया है तब से देश के कोयला क्षेत्र ने भी संरचनात्मक सुधारों के माध्यम से बड़े अभियान के लिए अपनी कमर कस ली है’।
आगे, इस नीलामी प्रक्रिया को आत्मनिर्भर भारत की ओर देश का एक मज़बूत कदम सिद्ध करते हुए विज्ञप्ति में लिखा गया है कि ‘कोयला खदानों की इस नीलामी प्रक्रिया से देश में ऊर्जा सुरक्षा की मजबूत नींव रखी जाएगी। अतिरिक्त कोयला उत्पादन से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होंगे और कोयला क्षेत्र में व्यापक निवेश होगा। इन प्रयासों से 1 बिलियन टन का कोयला उत्पादन होगा जिससे 2023-24 में अनुमानित घरेलू थर्मल कोल की आवश्यकता को पूरा किया जाएगा।’
अब यहाँ एक सवाल मन में कौंधता है कि अपने देश की प्राकृतिक संपदा और धरोहर को बेच कर कोई देश कैसे आत्मनिर्भर बन सकता है? अब तक तो इन खदानों पर हक़ देश की ऊर्जा क्षेत्र की कम्पनियां थीं। लेकिन अब तो ये सबके लिए खोल दी गयी हैं। इस सेक्टर में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को मंजूरी देने से किसका राजस्व बढ़ेगा? और विदेशी निवेश से भारत की आत्म-निर्भरता के लक्ष्य कैसे पूरे हो रहे हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब नहीं मिलते पीआईबी की इस विज्ञप्ति में।
कोयला खादानों और रोज़गार की बात हो तो ज़हन में नाम आता है छतीसगढ़ के कोरबा ज़िले का जिसका लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा कोयला खनन के काम आता है। इसी वजह से कोरबा को कोयले का हब भी कहते हैं और साथ ही उसे बिजली उत्पादन के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। छतीसगढ़ एक जनजातीय प्रधान राज्य है। अब अगर इतने सालों में कोयला खनन से वहां के मूल जनजातीय निवासियों को फ़ायदा मिलता तो अब तक तो वहां सबके वारे न्यारे हो जाने चाहिए थे। बिल्कुल वैसे, जैसे गुडगाँव और नोयडा के किसानों के हुए ज़मीन बेच कर। लेकिन वहां हुआ तो दरअसल उसका पूरा उलट।
डाउन टू अर्थ मैगज़ीन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, “कोरबा के ज़िला रोजगार कार्यालय के अनुसार वर्ष 2017 में कोयला खदानों मे कार्यरत श्रमिकों की संख्या लगभग 14 हजार थी, जबकि इसी दौरान पंजीकृत बेरोज़गारों की संख्या इससे कई गुनी अधिक थी। यह आंकड़े बताते हैं कि खदानों के खुलने का अर्थ, स्थानीय लोगों के लिए न तो बढ़े हुये रोजगार के अवसर हैं और न ही यह ग़रीबी से मुक्ति का मार्ग है। आज कोरबा जिले के लगभग 40 फ़ीसदी लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं जिनमें से बहुसंख्यक आदिवासी ही हैं।”
कुल मिलाकर, तथाकथित, देशहित में कोरबा के बहुसंख्यक आदिवासी समाज ने न सिर्फ़ खोया अपना जल, जंगल, और ज़मीन, बल्कि उस के एवज़ अगर कुछ पाया तो वो है आभाव, उपेक्षा, और अन्याय।
कोयला खदानों और उनसे जुड़ी ऐसी विसंगतियों की कहानी लम्बी है। वो कहानी फिर कभी। फ़िलहाल विचारों को जलवायु परिवर्तन के बीच कोयला खादानों की इस नीलामी के तर्क समझने की दिशा में आगे बढ़ाते हैं।
ये तो आप भी समझते हैं कि कोयला विशुद्ध रूप से कार्बन है और उसके जलने से हमारे पर्यावरण को होने वाले नुकसानों के बारे में हमें स्कूल से पढ़ाया जा रहा है। तो अब ज़रा सोचिये कि इस फ़ैसले से आख़िर पर्यावरण को क्या फ़ायदा हो सकता है।
यह सोचना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जहाँ एक ओर इस नीलामी का उद्देश्य कोयला क्षेत्र को व्यावसायिक व वाणिज्यिक उपयोग के लिए खोल कर निर्यात बढ़ाना है, वहीँ दूसरी ओर तामाम आंकड़ें बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर कोयले की मांग बढ़ने की जगह घट रही है। जर्मनी ने तो कोयले से हटते हुए अपनी राष्ट्रीय हाइड्रोजन नीति तक घोषित कर दी है। कोयले का यह मोह समझ से और भी परे हो जाता है जब याद आता है कि भारत ने तो दुनिया के और देशों की तरह कोयले से पीछे हटते हुए गैस आधारित अर्थवव्यवस्था और रिन्युबल एनेर्जी के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए 2022 तक उत्पादन को 1.75 लाख मेगावाट तक ले जाने और फिर 2030 तक इसे 4.5 लाख मेगावाट तक ले जाने का टारगेट रखा है।
एक पल को सरकारी नज़रिए से भी देखें तो भी यही समझ आता है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस फ़ैसले पर एक मत नहीं हैं। जहाँ झारखण्ड सरकार नीलामी के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट पहुँच गयी, वहीँ छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्र को इस फ़ैसले में संशोधन करने की चिट्ठी लिख डाली है। कसम से बड़ी मुसीबत है। कुछ समझ नहीं आ रहा।
दिमाग़ घूम गया लेकिन दिल तक को तसल्ली नहीं दे पा रहे कि आख़िर कैसे कोयला हमारे देश और हमारे पर्यावरण के लिए फायदेमंद है।
आख़िर कोयले की खोदाई तो एक लिहाज़ से ऐसी है कि आप किसी की कब्र खोद उसकी लाश निकालें और कहें कि कहाँ छिपे हो, चलो बाहर आओ। बहुत हुआ आराम। अब करो कुछ काम। तो जनाब अब लाश से काम कराएँगे तो मंज़र तो खौफ़नाक ही होगा। क्या पता आने वाले वक़्त में कोयला बिजली घरों से निकलते धुंए के गुबार के पीछे हमारे-आपके भूत गुनगुनाते हुए सुनायी दें, “हम’पे ये किसने…काला रंग डाला….चाहत ने हमारी हमें…मार डाला…अल्लाह…मार डाला…” ओह, अब समझ आया इस नीलामी की शक्ल में हो क्या रहा है। बात दरअसल कोविड की इस आपदा को अवसर बनाने की हो रही थी। लेकिन अफराह-तफरीह में किसी ने शायद गलत सुन लिया। और अब तमाम सबूतों और गवाहों के बयानों के मद्देनज़र यह समझ आ रहा है कि आपदा को अवसर बनाया नहीं आपदा को अवसर दिया जा रहा है।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
कार्बनकॉपी हिंदी में आपका स्वागत है।
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