Photo: bakgwei1/Flickr

ग्राउंड रिपोर्ट : खदान के लिए हमने दिखायी दरियादिली पर हमें मिला क्या?

झारखंड के देवघर जिला में स्थित चितरा कोयला खदान एक बहुत ही पुरानी कोयला खदान है। 1974 में इसका अधिग्रहण सरकार ने कर लिया था। यहां पर होने वाले कोयला खनन से यूं तो कई गांव प्रभावित हुए हैं, लेकिन सबसे अधिक प्रभाव खून गांव पर पड़ा है। पढिए यह ग्राउंड रिपोर्ट कि खून गांव की क्या स्थिति है, वहां के लोग क्या चाहते हैं और उनके मुद्दे क्या हैं…

पैरा मुर्मू बुजुर्ग हो चुके हैं। झारखंड के देवघर जिले के चितरा कोयलरी क्षेत्र के खून गांव में उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा कोयला खनन की जद्दोजहद के बीच गुजरी है। चितरा कोलयरी को एसपी माइंस यानी संताल परगना माइंस के नाम से जाना जाता है। आदिवासी समुदाय से आने वाले करीब 60 साल से अधिक के पैरा मुर्मू तीन एकड़ जमीन के संयुक्त स्वामी हैं। इस जमीन पर उनका व उनके भाई के अलावा एक और व्यक्ति का स्वामित्व है। यह स्थिति पुरानी खतियानी वजहों से है। अब कोल इंडिया की सहायक कंपनी इसीएल – इस्टर्न कोलफिल्ड्स लिमिटेड उनकी जमीन का अधिग्रहण करना चाहती है और इसके लिए उनके परिवार को लगातार नोटिस मिल रहा है, लेकिन पैरा इसके लिए राजी नहीं हैं। इसकी वजह पूछने पर वे कहते हैं कि इसमें हमारा फायदा नहीं है, हमारी जमीन भी चली जाएगी और कुछ हासिल भी नहीं होगा।

कोयला खनन के लिए जमीन अधिग्रहण के इसीएल द्वारा तय फार्मूले के अनुसार, दो एकड़ भूमि पर एक व्यक्ति को नौकरी मिलती है। ऐसे में जब पैरा मुर्मू के हिस्से की जमीन ले ली जाएगी तो उनके बेटों में किसी को नौकरी भी नहीं मिल सकेगी। पैरा मुर्मू एवं उनके बेटे मानिक मुर्मू का कहना है कि अगर जमीन ली जाए तो हम चाहते हैं कि एक एकड़ जमीन पर नौकरी दी जाए। मानिक ऐसी व्यवस्था इसलिए चाहते हैं ताकि परिवार में एक नौकरी पक्की हो जाए, ताकि आजीविका से जुड़ी दिक्कतें नहीं हो।

पैरा मुर्मू व उनके परिवार की दूसरी चिंता जमीन अधिग्रहण के बाद पुनर्वास नीति के तहत दी जाने वाली आवसीय जमीन को लेकर है। मौजूदा व्यवस्था के अंतर्गत 2.5 डिसमिल जमीन दी जाती है, जो उनके परिवार के लिए पर्याप्त नहीं है। ग्रामीण इलाकों में रहने वाले जनजातीय परिवारों की जरूरतें ऐसी होती हैं, जिसके लिए उन्हें पर्याप्त जमीन की जरूरत होती है, क्योंकि वे प्राकृतिक ढंग से जीवन यापन करते हैं, जिसमें पशु रखने से लेकर हरियाली व बाड़ी तक के लिए जमीन उन्हें चाहिए।

चितरा कोलयरी क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला खून कोयला खदान। फोटो: राहुल सिंह।

पैरा मुर्मू कहते हैं कि घर के ठीक सामने खनन होने व उसके लिए भारी विस्फोट होने की वजह से कंपन होते रहता है, जिससे कई बार घर का खपड़ा भी गिर जाता है। ध्वनि प्रदूषण व वायु प्रदूषण की परेशानियां आम समस्या है। वे कहते हैं कि इसका असर हमारे स्वास्थ्य पर भी पड़ता है और घर के ठीक सामने खनन होने के कारण बच्चों व अन्य लोगों की सुरक्षा की चिंता भी रहती है।

गांव के करण महतो बताते हैं कि अभी बारिश का मौसम है और हाल में अच्छी बारिश हुई है तो कोयले की धूल जमी हुई दिख रही है, गरमी व अन्य मौसम में धूल का गुबार यहां उड़ता है।

अधिग्रहण के लिए चिह्नित गांव, इसलिए कल्याणकारी योजनाओं से वंचित

गांव के निवासी बिरबल मिर्धा व वासुदेव मिर्धा कहते हैं कि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हमारे गांव में नहीं मिलता है। इसकी वजह पूछने पर बिरबल मिर्धा कहते हैं: हमारा गांव खनन के लिए अधिग्रहण किए जाने के रूप में चिह्नित हो चुका है, ऐसे में योजनाओं का लाभ नहीं मिलता है। यानी अगर यह इलाका अधिग्रहण के रूप में चिह्नित हो चुका है तो वहां योजनाओं का लाभ पहुंचाने को अपव्यय माने जाने की वजह से ऐसा नहीं होता।

थोड़े संकोच व पूरे गुस्से में गांव की मालती देवी कहती हैं, हमें कोई फायदा नहीं है, न राशन कार्ड है और न किसी और योजना का लाभ। हम महिलाओं को गांव के दोनों ओर खनन होने के कारण वहां लोगों के होने के कारण कहीं जाने में परेशानी होती है।

खून गांव की महिलाएं जो संकोच करते हुए भी अपना आक्रोश व्यक्त करती हैं।

मानिक मुर्मू व बिरबल मिर्धा कहते हैं : हमारा गांव अधिग्रहण के लिए चिह्नित कर लिया गया है, ऐसे में गांव के घरों में सरकारी योजना का शौचालय भी नहीं बना है जिसके कारण महिलाओं को काफी दिक्कत होती है। क्योंकि गांव के दोनों ओर खनन हो रहा है और बीच में हमलोग हैं।

हमने बार-बार कोयला खदान को बंद होने से बचाया

खून गांव के विस्थापितों की समिति के अध्यक्ष अरुण महतो कोयला खनन और उसके नफे-नुकसान पर लंबी बातचीत के दौरान एक सीधा सवाल करते हैं कि हमने खदान चले इसके लिए दरियादिली दिखायी लेकिन हमें क्या मिला?

अरुण महतो से हमारी मुलाकात खून गांव के विस्थापितों के लिए बनायी गयी कॉलोनी में होती है, गांव के बगल में बनवारी डंगाल नामक जगह पर है।

28 साल के युवा अरुण महतो बताते हैं : हमें कहा गया कि रोड, पानी, बिजली सब विस्थापित कॉलोनी में दिया जाएगा, लेकिन सिर्फ बिजली मिली है। चार डिप बोरिंग हुई, सब सूखा है, एक बूंद पानी नहीं निकला। कॉलोनी के आसपास ऐसी जमीन नहीं है या अबतक ली नहीं गयी है जिससे रोड निकाली जा सके।

चितरा गांव के संतोष कुमार महतो व अरुण महतो दाएं दाढी वाले। यह घर संतोष का है, जिसका अधिग्रहण किया जाना है। फोटो : राहुल सिंह।

अरुण महतो के अनुसार, उनके परिवार की 22 एकड़ जमीन का कोयला खनन के लिए 2016-17 में अधिग्रहण किया गया। उनके संयुक्त परिवार की काफी अधिक जमीन का अधिग्रहण हुआ, इसलिए कई लोगों को नौकरी मिल गयी, लेकिन कम जमीन वालों या छोटे व सीमांत किसानों के लिए ऐसा संभव नहीं है।

विस्थापित कॉलोनी में नौ परिवारों ने घर बना लिया है। अरुण कहते हैं : एक आदमी को ढाई डिसमिल जमीन दी जाती है, अगर वह जमीन नहीं लेता है तो तीन लाख रुपये इसीएल उसके ऐवज में अपने हिसाब से रहने-बसने के लिए देता है जिसे ओटीएल कहते हैं।

खून गांव में दो कुर्मी टोला एवं एक आदिवासी टोला है। करीब 500 की आबादी है। गांव में कुर्मी, आदिवासी के अलावा मिर्धा जाति के लोग हैं, जो अनुसूचित वर्ग से आते हैं। विस्थापितों से बातचीत के क्रम में एक तथ्य यह भी उभर कर आता है कि आदिवासी, दलित व पिछड़ा वर्ग खनन व विकास परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन के अधिक आसान शिकार होते हैं।

अरुण महतो की अगुवाई वाली विस्थापन समिति में गांव के 60 युवा सदस्य हैं जबकि वे अखिल झारखंड कोयला श्रमिक संघ नामक एक और संगठन चलाते हैं जिसके वे सचिव हैं। इन संगठनों के माध्यम से वे गांव के लोगों व श्रमिक हितों के मुद्दे पर संघर्ष करते हैं।

कोयला खदान से निकला अपशिष्ट जिसे ओबी कहते हैं, जिसके गांव के आसपास कई ओर पहाड़ नुमा आकृति बन गए हैं। फोटो : राहुल सिंह।

वे बताते हैं कि हमारी बस्ती के दोनों ओर माइंस है, बीच में पीडब्ल्यूडी की रोड है, जिसके किनारे घर हैं। उनका आरोप है कि अब इसीएल खनन के लिए रोड को तोड़ना चाहती है और दोनों खदानों को मिलाना चाहती है और अगर ऐसा होता है तो गांव वालों की दिक्कत और बढ जाएगी। इसके कारण महिलाओं व अन्य लोगों को आने जाने में दिक्कत होगी।

गांव के एक अन्य युवा 30 वर्षीय संतोष कुमार महतो कहते हैं कि हमारे घर के ठीक सामने खनन होने के कारण पानी का स्तर नीचे चला गया, जिससे पानी की दिक्कत हो गयी। वे अपने घर के सामने की जमीन को दिखाते हुए कहते हैं कि यहीं पर कुआं था, जिससे हमलोगों को पानी मिलता था लेकिन वह खनन क्षेत्र में चला गया और खत्म हो गया। वे कहते हैं कि खनन के कारण हमारी खेती भी प्रभावित हुई। या तो वे खत्म हो गए या प्रदूषित हो गए। पहले हम अपनी जमीन में उपजा कर खाते थे, अब खरीद कर खाते हैं। संतोष के परिवार में एक व्यक्ति उनके चाचा को नौकरी मिली है।

खून गांव के बगल में रोड के दूसरी ओर बनायी गयी विस्थापित कॉलोनी। फोटो: राहुल सिंह।

गांव के लोग साइकिल व मोटरसाइकिल पर एक से डेढ किलोमीटर दूर से पीने के लिए पानी लाते हैं।

अरुण महतो कहते हैं 2015-16 में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी कि यह खदान बंद होने के करीब पहुंच गयी थी, तब खून के ग्रामीणो ने बड़ा दिल दिखाया और आठ नंबर गोचर जमीन खनन के लिए दी। दो साल पहले भी खदान बंद होने की स्थिति में पहुंच गयी थी तब फिर हमलोगों ने दरियादिली दिखायी और खनन को आगे बढाने में मदद की, लेकिन हमें मिला क्या?

ये स्टोरी समृद्ध झारखण्ड से साभार ली गई है।

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