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VIDEO : कोयला आधारित अर्थव्यवस्था की विकल्पहीनता के संकट और प्रदूषण की मार झेलते ग्रामीण

खनन क्षेत्र के विस्थापितों व कोयला श्रमिकों के बीच सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता अरुण कुमार महतो यह स्वीकार करते हैं कि कोयला व्यापक विस्थापन और प्रदूषण का कारण है, लेकिन उनकी चिंता इससे कहीं अधिक अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले इसके अच्छे-बुरे असर को लेकर है।

झारखंड के देवघर जिले के चितरा कोयला खनन क्षेत्र में सक्रिय अरुण कुमार महतो कहते हैं : अगर इस खदान में दो-चार दिन काम ठप पड़ जाए तो जामताड़ा, सारठ और पालोजोरी का बाजार धीमा पड़ जाएगा। महतो कहते हैं, “कोयला ही हमारे इलाके की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है”। जामताड़ा चितरा से सटा जिला मुख्यालय व करीब एक लाख की आबादी का एक शहर है, जबकि सारठ व पालोजोरी देवघर जिले में आने वाले कस्बाई बाजार व प्रखंड मुख्यालय हैं।

चितरा खदान से कोयला चुन कर ले जाती महिलाएं। ऐसा करने के दौरान वे कई चुनौतियों का सामना करती हैं। फोटो : राहुल सिंह

कोयला आधारित स्थानीय अर्थव्यवस्था

अरुण कुमार महतो अपने इलाके की कोयला आधारित अर्थव्यवस्था को समझाते हुए कहते हैं : यहां 950 कर्मचारी हैं, जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय लोग हैं। इनमें विस्थापितों की हिस्सेदारी करीब 20 प्रतिशत है। 250 गैंग लीडर और 10 हजार ट्रक लोड करने वाले केजुअल मजदूर हैं। 200 डीओ धारक और 400 ट्रक-डंफर हैं, जिन पर तीन से चार स्टाफ तक हो सकते हैं। इनके अलावा 1000 साइकिल कोयला मजदूर हैं जो साइकिल पर कोयला ढो कर गुजारा करते हैं और इनसे भी कई गुणा अधिक संख्या में कोयला चुन कर गुजारा करने वाले लोग हैं, जिनमें महिलाओं की भी अच्छी हिस्सेदारी है। यानी इन सब के जीवन का आधार कोयला ही है। और, फिलहाल इस कोयला आधारित अर्थव्यवस्था का यहां कोई विकल्प भी नहीं है।

एसपी माइंस पुनर्वास व विस्थापन समिति के सदस्य अरुण कुमार महतो।

अरुण कुमार महतो से कोयला पर यह विमर्श ऐसे समय में हुआ जब देश के बिजली घरों के पास कोयला का स्टॉक खत्म होने से जुड़ी कई तरह की खबरें आ रही हैं। मीडिया में अभी जिस तरह से रिपोर्टिंग हो रही है, उसके जरिए यह आभाष कराया जाता है कि कोयला ही भारत की अर्थव्यवस्था की धुरी है। हालांकि बेतरतीब विस्थापन व प्रदूषण इसके ऐसे दंश है जिस पर स्थानीय व वैश्विक स्तर पर चिंता कायम है और इसके विकल्प ढूंढने
और उसे अपनाने पर लगातार जोर दिया जा रहा है।

इस संवाददाता ने खदान के आसपास से कोयला चुन कर कुछ महिलाओं से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इसमें रुचि नहीं दिखायी, जिसकी वजह हैं। दरअसल, इस तरह कोयला चुनना अवैध माना जाता है और ऐसे में उन पर कार्रवाई हो सकती है। महिलाओं ने पूछने पर अपना नाम भी नहीं बताया और कहा कि वे घर में उपयोग के लिए इन्हें चुन रही हैं। हालांकि स्थानीय ग्रामीणों ने कहा कि वे डर से ऐसा कह रही हैं,
वास्तव में इससे इनकी आजीविका चलती है। एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि सुरक्षा कर्मियों से उलझने की वजह से कोयला चुनने वाले कुछ लोगों पर एफआइआर हो गयी थी, तब से ये और डर गयीं हैं।

चितरा के विस्तार से विस्थापन

चितरा कोयला खनन क्षेत्र के विस्तार की जरूरत है और अगर ऐसा नहीं होता है तो ढाई लाख मिट्रिक टन क्षमता वाले इस खनन क्षेत्र की उत्पादकता पर इसका असर पड़ सकता है। यह भी बहुत स्पष्ट है कि विस्तार अगर ऐसे ही होता रहा तो कुछ गांवों का अस्तित्व खत्म हो सकता है और वहां के सभी ग्रामीणों को नयी जगह बसाया जाएगा, जिसकी प्रक्रिया अब भी जारी है। आक्रोशित लोग समय-समय पर इस प्रक्रिया का विरोध भी करते रहे हैं और काम भी ठप कराया जाता रहा है। आधिकारिक रूप से एसपी माइंस के नाम से जाना जाने वाला चितरा कोलियरी में इस समय चार खदान हैं : चितरा ए व चितरा बी एवं खून खदान आठ नंबर और खून खदान 10 नंबर।

चितरा खदान। फोटो : राहुल सिंह।

अरुण कुमार महतो एसपी माइंस विस्थापन एवं पुनर्वास कमेटी के सदस्य हैं। जिलाधिकारी की अध्यक्षता वाली इस कमेटी में प्रशासनिक अधिकारी, माइनिंग क्षेत्र के अधिकारी के साथ ग्रामीणों के बीच से प्रतिनिधि सदस्य होते हैं, जिसकी दो-तीन महीने में एक बैठक होती है। अरुण कहते हैं कि खदान के विस्तार के लिए अधिग्रहण को लेकर लोगों को मुआवजा दिया जाता है। वे कहते हैं कि खून गांव में 25 से 30 घर खाली कराए गए हैं। ताराबाद मौजा में खनन के लिए 100 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हुआ है और तुलसीडाबर मौजा के भवानीपुर गांव में 20 घर खाली कराए गए हैं।

इस कोयला खदान के विस्तार के लिए तीन से चार गांवों में कई घरों को खाली करवाने की प्रक्रिया चल रही है, जिसमें खून, भवानीपुर, जमुआ आदि गांव हैं। अरुण कुमार महतो घरों को खाली करवाने में आने वाली दिक्कत पर चर्चा करते हैं, जिससे यह स्पष्ट है कि लोग राजी-खुशी अपने घर छोड़ कर नहीं जाते हैं। वर्तमान में घरों को खाली कराने के लिए 25 हजार रुपये शिफ्टिंग अलाउंस दिया जाता है, जिसे अरुण काफी कम बताते हुए कहते हैं कि इससे हमलोग प्रबंधन से बढवा कर 95 हजार रुपये कम से कम करवाना चाहते हैं।

कोयला खनन से कितना प्रदूषण?

इसीएल की इकाई एसपी माइंस के आसपास के ग्रामीण जहां गर्मियों में कोयला के डस्ट के गुबार की बात कहते हैं, वहीं माइंस प्रबंधन इससे निबटने के लिए पानी के छिड़काव तक ही अपनी भूमिका को सीमित मानता है। चितरा कोल माइंस में असिस्टेंट मैनेजर (इनवायरमेंट) के रूप में तैनात इंद्राणी मुखर्जी कहते हैं हम प्रदूषण नियंत्रण के लिए पर्यावरण मंत्रालय के गाइडलाइन को फॉलो करते हैं। अलग-अलग कोल माइंस के लिए डस्ट पार्टिकल के लिए अलग-अलग मानक हैं और चितरा में यह 300 से कम होना चाहिए।

कोयला खदान से निकला अपशिष्ट जिसे ओबी कहते हैं।

मुखर्जी कहते हैं कि हमारे यहां हवा में डस्ट पार्टिकल 160 से – 175 के बीच रहता है और गर्मियों में वह 170 से 175 के बीच पहुंचता है।

इंद्राणी मुखर्जी के अनुसार, कोयला का खनन थर्मल पॉवर प्लांट या स्टील प्लांट से अलग होता है। यह एक कुआं की तरह के आधार में नीचे की ओर किया जाता है, ऐसे में डस्ट पार्टिकल हवा में बहुत ऊपर नहीं उठता है। इस सवाल पर कि क्या प्रबंधन की ओर से आसपास के लोगों के स्वास्थ्य के आकलन के लिए कोई कदम उठाया जाता है, मुखर्जी ने कहा  – “इसकी जरूरत नहीं है कि क्योंकि इसके डस्ट पार्टिकल बहुत ऊपर नहीं जाते हैं”।

खनन व ढुलाई की वजह से आसपास की सड़कें काली पड़ गयी हैं। ऐसा हाल बारिश के दिनों में है। फोटो : राहुल सिंह।

वहीं, अध्ययन यह बताता है कि खनन कार्य प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से वायु प्रदूषण की समस्या में इजाफा करता है। कायेला खनन की वजह से पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड और भारी धातुओं की मात्रा की हवा में वृद्धि होती है जो कोयला खनन क्षेत्रों में और उसके आसपास मानव स्वास्थ्य, वनस्पतियों और जीवों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

कोयला खनन के कारण क्षेत्र में भू धंसान की समस्या भी उत्पन्न होती है। इससे घर व जान माल पर सकट उत्पन्न होने के साथ कृषि कार्य भी प्रभावित होता है। लोग भूमिगत खदान को खाली कराने की भी मांग करते रहे हैं। नियमतः इनका भराव किया जाना चाहिए, लेकिन सामान्यतः ऐसा किया नहीं जाता है।

ये स्टोरी समृद्ध झारखण्ड से साभार ली गई है।

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