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कितना मुश्किल है कोयला समृद्ध राज्यों में जस्ट ट्रांजीशन की चुनौतियों से निपटना ?

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर जस्ट ट्रांजीशन मौजूदा व्यवस्था के अन्याय को दोहराता है, तो जमीन पर कुछ भी नहीं बदलेगा

साल २०२१ के शुरुआत में  इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफोरेस्ट) की रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग 120 जिले (718 जिलों में से) हैं, जहाँ पर जीवाश्म ईंधन या जीवाश्म ईंधन पर निर्भर उद्योग हैं। रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि कोयला क्षेत्र से साफ ऊर्जा में जाना है तो नीति और योजना को जस्ट ट्रांजीशन के नजरिए से प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए राज्य अब कोयले से चलने वाली नई परियोजनाओं में निवेश करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ जैसे कोयला समृद्ध राज्यों के लिए कोयले से अक्षय ऊर्जा में परिवर्तन कई सवाल खड़े करता है- कोयला बिजलीघरों में काम करने वाले करोड़ों दिहाड़ी मजदूरों का भविष्य क्या होगा? श्रमिकों को उनके रोजगार में इस परिवर्तन के लिए कैसे प्रशिक्षित किया जा सकता है? जस्ट ट्रांजीशन आर्थिक रूप से लाभकारी समाधान में कैसे परिवर्तित हो सकता है? क्या अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन श्रमिकों को रोजगार देने के लिए पर्याप्त रोजगार क्षमता है?

असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं जस्ट ट्रांजीशन में एक प्रमुख चिंता का कारण 

स्रोत: वार्षिक रिपोर्ट, उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण और एनएसएसओ के सर्वेक्षण के 68वें दौर के आधार पर आईफोरेस्ट का  अनुमान

कोयला समृद्ध राज्यों में खदानें अक्सर  स्थानिक गरीबी के स्तर और खराब सामाजिक बुनियादी ढांचे वाले स्थानों पर स्थित होती हैं। यह एक मुख्य बाधा है कम कार्बन ऊर्जा ट्रांजीशन के लिए क्यूंकि इन क्षेत्रों में लोग अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से कोयले पर निर्भर होते  हैं।

ऐसे  क्षेत्रों  में से एक है झारखंड, जहां 100 साल से अधिक पुरानी कई कोयला खदानें हैं। यहाँ बड़ी संख्या में अनौपचारिक श्रमिकों सहित कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा कोयले के काम में लगा हुआ है।

आईफोरेस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में 7.2% कार्यबल औपचारिक रूप से कोयला-खनन और थर्मल पावर संयंत्रों (कोयले से चलने वाले बिजलीधर) में काम कर रहे हैं। हालांकि, जब अनौपचारिक श्रमिकों को कार्यबल में जोड़ा जाता है, तो कोयला क्षेत्र का कुल रोजगार लगभग तीन गुना होता है। यह पैटर्न झारखंड (धनबाद और चतरा) और ओडिशा ( अंगुल और झारसुगुडा) जैसे अन्य प्रमुख कोयला क्षेत्रों में भी देखा जाता है।

आईफोरेस्ट में जस्ट ट्रांजिशन के निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी ने कार्बनकॉपी को बताया कि झारखंड में काफी  असंगठित या अनौपचारिक श्रमिक मौजूद हैं जो कि संगठित श्रमिकों की तुलना में लगभग तीन गुना हैं । उन्होंने कहा कि चूंकि इन अनौपचारिक श्रमिकों की कोई सूची नहीं है, इसलिए इन श्रमिकों को जस्ट ट्रांजीशन के लिए प्रशिक्षित करने की योजना बनाना एक कठिन काम होगा।

बनर्जी ने बताया कि, “भारत जैसे बड़े देश में साफ ऊर्जा में जाने में सबसे बड़ी समस्या है नौकरी खोने के बाद अनौपचारिक श्रमिकों को मुआवजा देना जो कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं।” 

उन्होंने कहा कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के कम से कम पांच सदस्यों वाले परिवार की औसत मासिक आय ₹10,000 से अधिक नहीं है। “मल्टी -डायमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स  के अनुसार, कोयला-अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में 50% से अधिक आबादी गरीब है। उनके पास शिक्षा या स्वास्थ्य के लिए बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। जब हम कोयला से ट्रांजीशन की बात करते हैं, तो हमें पहले दिहाड़ी मजदूरो की समस्याओं से निपटना होगा।”

क्या रिन्यूएबल एनर्जी क्षेत्र की नौकरियां कोयला खदान कार्यबल की जगह ले सकती हैं?

यह माना जाता है कि अक्षय ऊर्जा किसी भी देश के एनर्जी ट्रांजीशन में एक अहम भूमिका निभाएगी। कीमतों में भारी कमी को कारण  अक्षय ऊर्जा की मांग बढ़ गई है। यह उपयोगकर्ताओं की सभी श्रेणियों के लिए एक विकल्प भी प्रदान कर सकता है जैसे व्यक्तियों के लिए किलोवाट में , समुदायों  के लिए किलोवाट से मेगावाट में और उद्योगों के लिए मेगावाट में।

ग्रीन एनर्जी नौकरियों को कोयला क्षेत्र नौकरी के नुकसान के समाधान के रूप में दिखाया गया है, लेकिन क्या वे कोयला मज़दूरों के लिए उपयुक्त या पर्याप्त भी होंगे?

एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग सभी कोयला-खनन क्षेत्र सौर ऊर्जा के लिए उपयुक्त हैं, लेकिन पवन ऊर्जा के लिए नहीं। रिपोर्ट से पता चलता है कि 1% से भी कम कोयला खनन क्षेत्र हैं जो सौर और पवन दोनों के लिए उपयुक्त हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि सौर ऊर्जा में 5 लाख  कोयला खनिकों को रोजगार देने के लिए, भारत को अपनी वर्तमान क्षमता को 37 गुना (27 GW से 960 GW तक) बढ़ाना होगा। 

कॉउन्सिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर  (सीईईडब्ल्यू) के विश्लेषण से पता चलता है कि रिन्यूएबिल क्षेत्र वर्तमान में लगभग 1.5 लाख लोगों को रोजगार देता है वहीं दूसरी ओर कोयला खनन और थर्मल उत्पादन में लगभग 6 लाख लोग कार्यरत हैं।

सीईईडब्ल्यू के सेंटर फॉर एनर्जी फाइनेंस (सीईएफ) के साथ काम करने वाले ऋषभ जैन ने कार्बनकॉपी को बताया कि भारत ने स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता के लिए केवल 100 गीगावॉट का आंकड़ा पार किया है, जो अभी भी भारत में कुल थर्मल उत्पादन क्षमता के आधे से भी कम है। 

सीईईडब्ल्यू-आईआईएसडी के हालिया अध्ययन के विश्लेषण में पाया गया कि वित्त वर्ष 2020 में, अक्षय ऊर्जा के लिए सब्सिडी में वित्त वर्ष 2019 से थोड़ा बदलाव देखा गया। लेकिन यह वित्त वर्ष 2017 में ₹15,470 करोड़ के उच्च स्तर से 45% गिरकर ₹8,577 करोड़ हो गया है। 

जैन ने कहा कि अक्षय ऊर्जा कीमतों में और कमी से बिजली के वैकल्पिक स्रोतों के साथ प्रौद्योगिकी और अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाएगी, जिससे बिजली की हर इकाई के लिए सब्सिडी में और कमी आएगी।

उन्होंने कहा कि रिन्यूएबल क्षेत्र अत्यधिक कुशल, अर्ध-कुशल और कम/अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर प्रदान करता है। कोयला-खनन गतिविधियों में शामिल लोग सौर और पवन निर्माण और स्थापना कार्य कर सकते हैं। अत्यधिक कुशल तकनीकी कर्मचारी संयंत्र डिजाइन, और संचालन और रखरखाव सहित इंजीनियरिंग भूमिकाएं ले सकते हैं, और प्रबंधकीय कर्मचारी परियोजना विकास, व्यवसाय विकास और संपर्क से संबंधित गतिविधियों जैसी भूमिकाएं ले सकते हैं।

अक्षय क्षेत्र में काम करने के लिए आवश्यक स्किल सेट के बारे में बोलते हुए, जैन ने बताया कि रिन्यूएबल  में लगभग 50% नौकरियां वास्तव में संयंत्र निर्माण से संबंधित हैं। कोयला खनिकों को न्यूनतम पुन: कौशल के साथ निर्माण गतिविधियों के लिए तैनात किया जा सकता है, जबकि तकनीकी कर्मचारियों और प्रबंधकीय कर्मचारियों को कुछ पुन: कौशल की आवश्यकता होगी। रिन्यूएबल कंपनियां भी इस जरूरत को पहचानती हैं और ट्रांजीशन को सुविधाजनक बनाने के लिए पहले से ही नौकरी पर प्रशिक्षण प्रदान कर रही हैं, उन्होंने कहा।

हालांकि, सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस (सीएसईपी) के सीनियर फेलो राहुल टोंगिया ने कहा कि भारत अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में बहुत अधिक उत्पादन नहीं करता है और ज्यादातर काम इंस्टॉलेशन पर केंद्रित है। इसके अलावा, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे कोयला समृद्ध राज्यों में कुछ भी बड़ा नहीं हो रहा है। वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करते हुए, उन्होंने कहा कि वर्तमान में रिन्यूएबल नौकरियां अनौपचारिक कार्यबल का विकल्प नहीं हो सकती हैं।

ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा इस वर्ष प्रकाशित शोध में भी कहा गया है कि साफ़ ऊर्जा क्षेत्र कि नौकरियां जीवाश्म ईंधन नौकरियों के लिए उपयुक्त प्रतिस्थापन हो भी सकती हैं और नहीं भी। 

डीएमएफ, सीएसआर और अन्य फंडों को क्लब करना क्या अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर होगा ?

भारत के अधिकांश कोयला उत्पादक राज्य कोयले पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर हैं। नौकरी , पेंशन, डिस्ट्रिक्ट मिनरल फण्ड  (डीएमएफ), कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) इसके कुछ उदहारण हैं। 

कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखंड, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और असम जैसे प्रमुख कोयला-खनन राज्यों को ₹43005.32 crore बिलियन का संयुक्त हस्तांतरण किया। इसलिए कोयले को बंद करने से कोयला उत्पादक राज्यों के राजस्व पर असर पड़ेगा।

आईफोरेस्ट की बनर्जी ने कार्बनकॉपी को बताया कि डीएमएफ काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जनता  का फंड है न कि सरकारी फंड। उन्होंने कहा कि कोयला समृद्ध क्षेत्रों में खनन कम होने पर भी इसमें भविष्य की सुरक्षा पैदा करने की क्षमता है। 

द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (टेरी) ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है कि यदि डीएमएफ का उचित उपयोग किया जाए तो यह अप्रत्यक्ष रूप से जस्ट ट्रांजीशन  प्रक्रिया को सुगम बना सकता है। वर्तमान में, यह या तो कम उपयोग में है या कम वितरित लाभ के साथ बड़े  इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को निधि देने के लिए उपयोग किया जाता है।

फंड के उचित उपयोग के बारे में बोलते हुए, बनर्जी ने सुझाव दिया कि यदि डीएमएफ, सीएसआर और अन्य फंडों को एक साथ जोड़ा जाता है और क्षेत्र में आजीविका, इंफ्रास्ट्रक्चर और आर्थिक विविधीकरण पर निवेश किया जाता है, तो लोगों को हमेशा के लिए उद्योग से आने वाले कल्याणकारी धन पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।

स्वास्थ्य और पर्यावरण पर अधिक ध्यान देना होगा 

जस्ट ट्रांजीशन  पर अधिकांश चर्चा सामाजिक-आर्थिक प्रभाव को संतुलित करने के इर्द-गिर्द घूमती है। कई अध्ययनों ने स्वास्थ्य और पर्यावरण पर कोयले के प्रतिकूल प्रभाव का पता लगाया है, लेकिन प्रमाण के बावजूद ये दोनों विषय अभी तक कम कार्बन संक्रमण के संदर्भ से पर्याप्त रूप से जुड़े नहीं हैं।

साल 2019 के एक अध्ययन में झारखंड के चरही और कुजू में खुले कोयला क्षेत्रों के आसपास सतही जल में    लोहा, मैंगनीज, आर्सेनिक और सेलेनियम उच्च मात्रा में पाए गए। छत्तीसगढ़ में रायगढ़ के तमनार ब्लॉक के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए किए गए एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि खनन गतिविधियों ने आदिवासी आबादी को तीव्र श्वसन संक्रमण और ट्यूबरक्लोसिस जैसी बीमारियों के खतरे में डाल दिया है।

ट्रांजीशन के बारे में बहुत कुछ कहा गया है लेकिन अधिक ध्यान पर्यावरणीय प्रभाव पर होना चाहिए जो ऐतिहासिक रूप से कोयला खदानों के साथ आया है, श्वेता नारायण, ग्लोबल क्लाइमेट एंड हेल्थ कैंपेनर, हेल्थ केयर विदाउट हार्म ने कहा। उनका कहना है कि कोयला खदानों से विषाक्त पदार्थ आसपास के गांवों में पहुंच गए हैं और कोई भी इन सभी चुनौतियों को दूर करने की बात नहीं कर रहा है जो ऐतिहासिक रूप से कोयला खदानों के साथ आई हैं।

उन्होंने कार्बनकॉपी को बताया कि कोयला क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए सभी स्वास्थ्य अध्ययनों में यह पाया गया है कि खनन से संबंधित सभी क्षेत्रों में कुपोषण सबसे अधिक है। 

भारत में जस्ट ट्रांजीशन कैसे हासिल किया जा सकता है? 

जस्ट ट्रांजीशन की अवधारणा भारत के लिए बहुत नई है और जनता को लाभ पहुंचाने वाले कार्यान्वयन के लिए इसे विभिन्न स्तरों पर मान्यता देने की आवश्यकता है। जानकारों के मुताबिक, सरकार को व्यापक योजनाएं बनानी चाहिए ताकि इस ट्रांजीशन में शामिल सभी लोग समझ सकें कि वे किस पर काम कर रहे हैं.

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) में फेलो डॉ अश्विनी के स्वैन के अनुसार,  जस्ट ट्रांजीशन ऊर्जा क्षेत्र में अन्याय को ठीक करने का एक अवसर है। उन्होंने कार्बनकॉपी को बताया कि सभी क्षेत्रों को अलग-अलग मानते हुए विविध समाधानों के साथ एक व्यापक ढांचे की आवश्यकता है और सभी क्षेत्रों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता है। भारत को जस्ट ट्रांजीशन  के लिए राष्ट्रीय स्तर के ढांचे और स्थानीय रणनीतियों की आवश्यकता है।

“हमें विभिन्न स्तरों पर जस्ट ट्रांजीशन को पहचानने की जरूरत है। सरकार इसे एक आवश्यकता के रूप में नहीं मानती है, इसलिए पहला कदम यह सुनिश्चित करना है कि वह जस्ट ट्रांजीशन  सुनिश्चित करने की तात्कालिकता को समझे,” उन्होंने कहा, “यह शासन के निचले स्तर तक पहुंचना चाहिए ताकि यह सरकारी योजनाओं और रणनीतियों का एक हिस्सा बन जाए। ”

ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ओडीआई) में अनुसंधान और नीति के प्रबंध निदेशक रथिन रॉय के अनुसार, ट्रांजीशन  विवादास्पद हैं और जस्ट ट्रांजीशन  होने के लिए, देश को राजनीतिक मोबिलाइजेशन और उन लोगों के साथ एकजुटता दिखाने की जरूरत है जो कि इस से प्रभावित होंगे । यह ‘डेवलपमेंट ट्रांजीशन ‘ को न्यायसंगत बनाने के लिए किसी भी प्रयास की एक एहम आवश्यकता होगी।

उनके अनुसार, ‘जस्ट डेवलपमेंट ट्रांजीशन ‘ विफल हो रहा है क्योंकि जितने निम्न दर्जे के काम होते हैं उनको करने वाले लोग अधिकांश रूप से अनुसूचित जाती और जनजाति के ही होते हैं उन्होंने कहा कि यह सिर्फ आर्थिक असमानता नहीं है, बल्कि सामाजिक असमानता भी है जो भारतीय अन्याय की जड़ है।

उनके मुताबिक, “अगर ‘डेवलपमेंट ट्रांजीशन’ न्यायसंगत है, तो  ग्रीन ट्रांजीशन भी न्यायसंगत होगा। अगर ग्रीन ट्रांजीशन सिर्फ ‘डेवलपमेंट ट्रांजीशन ‘ के अन्याय को दोहराता है, तो कुछ भी नहीं बदलेगा।”

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