संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इस साल जनवरी में जलवायु परिवर्तन के ख़तरे को स्वीकार करते हुये माना कि यह सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता का संकट बढ़ायेगा। इस दशक की शुरुआत से सरकारों के खिलाफ अफ्रीका और मध्य एशिया में विरोध प्रदर्शन बढ़ गये। बात साफ है। जलवायु परिवर्तन की वजह से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। अमीरी – गरीबी के व्यापक अंतर की वजह से हिंसा की संभावना बढ़ रही है। इस साल यूरोप और अमेरिका में हुये प्रदर्शनों ने अमीर देशों का यह भ्रम तोड़ दिया कि वह इस संकट से बचे रहेंगे।
जब सरकारें क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिये ऐसे कदम उठाती हैं जिनका आर्थिक बोझ लोगों पर पड़ता है तो वह सड़कों पर उतरते हैं। फ्रांस में राष्ट्रपति मैक्रॉन ने ईंधन पर सरचार्ज लगाया तो पिछले एक साल से वहां लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इस विरोध प्रदर्शन को यूरोप के दूसरे हिस्सों, उत्तरी अमेरिका और मध्य एशिया के कामकाज़ी और मज़दूर वर्ग का समर्थन मिला है।
कुछ दिन पहले ही चिली में हिंसक प्रदर्शन हुये जब सरकार ने परंपरागत ईंधन पर टैक्स लगाया और वहां मेट्रो को साफ ऊर्जा से चलाने का फैसला किया। ऐसा विरोध और असंतोष भारत में भी दिख रहा है। सवाल है कि क्या बैटरी वाहनों को बढ़ाने की कोशिश से बाज़ार में मंदी आई और लोगों की नौकरियां गईं। सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को बन्द करने के ऐलान से भी लाखों लोगों के रोज़गार जाने का ख़तरा पैदा हुआ और अभी यह मिशन ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।
आंकड़े बताते हैं कि विरोध प्रदर्शनों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन उनकी कामयाबी की दर लगातार कम हो रही है। इस सदी में हुये प्रदर्शनों में से 30% ही अपना लक्ष्य हासिल कर पाये। महत्वपूर्ण है कि जब हम पेरिस डील में तय लक्ष्य हासिल करने के लिये क्लाइमेट एक्शन को बढ़ाने की बात करते हैं तो यह जानना भी जरूरी है कि मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक ढ़ांचे में लोगों के विरोध को समझना और उन्हें साथ लेना क्या आसान होगा?
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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