कठिन डगर: तेल की औंधे मुंह गिरी कीमतों और महामारी के असर ने इस सेक्टर में ज़बरदस्त खलबली मचा दी है | Photo: FT

कोरोना से बर्बाद तेल बाज़ार पर साफ ऊर्जा का क्या होगा असर

वैश्विक तेल बाज़ार पर ऐसा संकट 200 साल के इतिहास में शायद पहले कभी नहीं आया। आज दुनिया की 90% जीडीपी पर क़ब्ज़ा रखने वाले देशों में कोरोना वायरस के कारण किसी न किसी स्तर पर लॉकडाउन की स्थिति है। आईईए ऑयल मार्केट की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस साल तेल की मांग 9.3 मिलियन बैरल प्रतिदिन  कम रहेगी चाहे साल के उत्तरार्ध में मांग बढ़ ही क्यों न जाये। यह कमी 2019 की कुल रोज़ाना खपत का 10% है। अप्रैल महीने में मांग 2019 के मुकाबले 30% कम रहने की संभावना है।

तेल की खपत में गिरावट ऐसी है कि उसके भंडारण के लिये जगह कम पड़ गई है। हाल ये हो गया कि अमरीका में पिछली 20 अप्रैल को तेल कंपनियों के शेयर निगेटिव(घाटे) में चले गये क्योंकि उत्पादकों को पैसा देकर खरीदारों से तेल उठवाना पड़ा। उसके बाद तेल की कीमतें 15 डॉलर प्रति बैरल पर आई जबकि अमरीकी तेल कंपनियां कहती हैं कि उनके लिये उत्पादन की कीमत ही 50 डालर प्रति बैरल है। ओपेक+ द्वारा तेल के उत्पादन को कम करने से भी अस्थाई राहत मिली और अभी अरब देशों में तेल की कीमत 20 डॉलर प्रति बैरल पर टिकी है।

तेल बाज़ार में इस खलबली का सीधा असर क्लाइमेट एक्शन यानी ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ जंग में होने वाला है। यह बहुत कुछ इस पर निर्भर है कि कोराना महामारी से निकलने के बाद अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये क्या रोडमैप अपनाया जाता है। तेल कभी भी ऊर्जा कंपनियों के लिये भरोसेमंद ईंधन नहीं रहा यह बात साबित हो चुकी है। तो क्या दुनिया भर की सरकारें अब क्लीन एनर्जी के लिये स्थाई रास्ता तैयार करेंगीं?

ख़तरा यह भी है कि तेल की ज़मीन पर पहुंच चुकी कीमतें कंपनियों के लिये पैसे बचाने का लालच भी होगा इसलिए वह अपनी क्लीन एनर्जी प्रोग्राम को सुस्त करने का बहाना भी ढूंढ सकती हैं। इससे पहले 2014-15 में जब तेल की कीमतें लुढ़की तो उससे पूरी तरह साफ ऊर्जा में शिफ्ट तो नहीं हुआ पर फिर भी पेरिस डील जैसे समझौते के लिये माहौल तैयार करने में मदद मिली। कई पहलू और भी हैं। क्या तेल की कीमतों में कमी का इस्तेमाल साफ ऊर्जा को और सब्सिडी देने में किया जा सकता है। सच यह है 2016-19 के बीच क्लीन एनर्जी सब्सिडी घटी हैं। भारत ने खुद तेल और गैस के क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों को सेल्फ सर्टिफिकेशन के नाम पर जो ढील दी हैं वह बताती है कि सरकार जीवाश्म ईंधन का मोह नहीं छोड़ पायी है। दुनिया भर में तेल और गैस कंपनियों की लॉबी काफी मज़बूत है। क्या तेल वापस अपनी शाही शान को पा सकता है इस पर बहुत कुछ निर्भर है।  अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प इन तेल कंपनियों के बड़े समर्थक हैं। अमरीका में अगले राष्ट्रपति चुनावों में क्या होगा यह भी बड़ा सवाल है लेकिन भारत को अपना रास्ता खुद चुनना है क्योंकि ग्लोबल वॉर्मिंग का सबसे अधिक असर भारत जैसी भौगोलिक स्थित में रह रहे लोगों पर ही होगा।

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