मोदी सरकार ने कमर्शियल माइनिंग के लिये कोल ब्लॉक नीलामी का फैसला किया और झारखंड सरकार 24 घंटे में इसे चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन नीलामी शुरू होने से पहले ही सरकार के इस फैसले विरोध कर रहे थे। सरकार ने कुल 41 खदानों की नीलामी का फैसला किया है लेकिन राजनीतिक विरोधी इसे केंद्र सरकार का एकतरफा फैसला बता रहे हैं। छत्तीगढ़ के वन मंत्री ने भी राज्य के कम से कम 4 कोल ब्लाकों को इस नीलामी से बाहर रखने के लिये केंद्र को चिट्ठी लिखी है।
आखिर सरकार को कोयला इतना क्यों लुभा रहा है। पिछले कुछ वक्त से सरकार बार-बार कह रही है कि 2030 तक भारत में सबसे अधिक बिजली की खपत होगी। बहुत से लोगों को लगता है इस भविष्यवाणी में भारत की विकास कथा निहित है लेकिन इसी में ऊर्जा क्षेत्र के विरोधाभास भी छुपे हुये हैं। कोयला भारत के ऊर्जा क्षेत्र में अभी अहम बना रहेगा लेकिन दुनिया भर में इसका साम्राज्य हिल रहा है। बीएचपी और रियो टिंटो जैसी अंतरराष्ट्रीय माइनिंग कंपनियां कोयला खनन से अपना हाथ खींच रहीं हैं लेकिन भारत ने कोयला खनन क्षेत्र में नियम ढीले कर और 100% विदेशी पूंजी की अनुमति देकर निवेशकों और कंपनियों को लुभाने की कोशिश की है।
भारत में अब तक निजी कंपनियों को केवल स्टील, सीमेंट और पावर के लिये कोयला निकालने हेतु खनन की अनुमति दी जाती थी। लेकिन अब कमर्शियल माइनिंग की अनुमति से खेल बदल गया है। महत्वपूर्ण है कि कोयला बिजलीघर अपने काले गंदे धूंए से लगातार हवा में ज़हर घोल रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब तक प्रदूषक नियंत्रक टेक्नोलॉजी नहीं लगा रहे।
पूरी दुनिया में अब कोयला छोड़कर गैस का इस्तेमाल बढ़ रहा है। अमरीकी सरकार इसे आज़ादी का प्रतीक मानती है और कहती है कि यह प्रति यूनिट कोयले के मुकाबले 50% कम CO2 छोड़ती है। साल 2018 के आंकड़े बताते हैं भारत में कुल बिजली का 6.2% प्राकृतिक गैस से बनता है जबकि दुनिया का औसत 24% है। माना जा रहा है कि साल 2030 तक 15% बिजली गैस से बनेगी। पेट्रोलियम और गैस मंत्रालय का “द विज़न 2030” दस्तावेज़ कहता है गैस की घरेलू मांग 2013 और 2030 के बीच 6.8% की दर से बढ़ेगी लेकिन रसोई गैस की खपत 2014 से 8.86% बढ़ी है। अनुमान है कि गैस की खपत 2012-13 में 86.5 यूनिट प्रति दिन के मुकाबले 2030 में 354 यूनिट प्रति दिन हो जायेगी। बहुत से आंकड़े हैं जो कोयले की विफलता और गैस के बढ़ते दबदबे के विरोधाभास को दिखाते हैं लेकिन सरकार का मौजूदा फैसला चौंकाने वाला है। सच ये है कि साल 2010 से 2018 के बीच 573 गीगावॉट के कोल पावर प्लांट कैंसिल हुए। कर्नाटक, तमिलनाडु और राजस्थान जैसे बड़े राज्य समझ रहे हैं कि कोयला हाथी पालने जैसा है। निवेशकों को कोयले के लिये लुभाया जा रहा है पर उनका झुकाव गैस की तरफ है। सवाल है कि क्या ये दोनों ही ईंधन एक साथ अपनी जगह बना सकते हैं। जो तथ्य उपलब्ध हैं वह बताते हैं कि इस करीबी लड़ाई में गैस को प्राथमिकता मिलेगी और कोयले को बढ़ावा देना महंगा पड़ सकता है।
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