Vol 2, September 2023 | जलवायु संकट: 32 देशों पर किया 6 युवाओं ने मुकदमा

Newsletter - September 29, 2023

दुनिया भर के क्लाइमेट कार्यकर्ताओं ने तेल, गैस और कोयले के प्रयोग को बंद करने की मांग लेकर सड़कों पर प्रदर्शन किया। Photo: Harjeet Singh

क्लाइमेट एंबिशन और एक्शन पर बड़े देशों का रवैया निराशाजनक

पिछले बुधवार को न्यूयॉर्क में हुए क्लाइमेट एंबिशन समिट में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले दुनिया के प्रमुख देश अनुपस्थित रहे। इन्हीं देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बेपरवाह दुनिया की बड़ी कंपनियां तेल और गैस के कारोबार को लगातार बढ़ा रहीं हैं। दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक चीन ने कह दिया है कि जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को पूरी तरह समाप्त करने की बात व्यवहारिक नहीं है।

उधर यूके के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक द्वारा नेट ज़ीरो के लिए हरित नीतियों को ढीला करने के बाद क्लाइमेट एक्शन पर बड़े सवाल खड़े हो गए हैं। 

Photo: @RishiSunak on X

न्यूयॉर्क सम्मेलन में जहां बड़े देशों की गैर मौजूदगी से जीवाश्म ईंधन का प्रयोग घटाने या कम करने की मंशा पर सवाल उठे, वहीं दुनिया भर के  क्लाइमेट कार्यकर्ता तेल, गैस और कोयले के प्रयोग को बंद करने की मांग लेकर अलग अलग देशों में सड़कों पर उतरे।  क्लाइमेट एंबशिन सम्मेलन में अमेरिका, चीन, यूनाइटेड किंडगम, जापान और फ्रांस के अलावा भारत भी मौजूद नहीं था। ये सभी देश बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं।  

यूएई सम्मेलन से पहले की तैयारी 

दिसंबर में यूएई में हो रहे जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन यानी  कॉप-28 से पहले यह सम्मेलन काफी अहम था, क्योंकि तेज़ी से उबल रही धरती को बचाने के लिए जीवाश्म ईंधन को फेजडाउन या फेजआउट करने की बातें तो चल रही हैं, लेकिन वास्तविक अमल नहीं हो रहा। संयुक्त राष्ट्र के इस सम्मेलन में उन्हीं देशों को बोलने का मौका दिया गया जो अपने राष्ट्रीय लक्ष्य बढ़ाने का वादा कर रहे हैं। कुल 41 देशों ने इस सम्मेलन में अपनी बात रखी। 

सम्मेलन में भारत की गैर-मौजूदगी से भी स्पष्ट हुआ कि बड़े उत्सर्जकों की सियासत और वार्ता में पेंच कहीं अटक गया है। भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश है और चीन और अमेरिका के बाद उसके वर्तमान एमिशन सबसे अधिक हैं। लेकिन प्रति व्यक्ति (पर कैपिटा) एमिशन के हिसाब से भारत काफी नीचे है। अमेरिका के मुकाबले उसके पर कैपिटा एमिशन 7 गुना कम हैं, जबकि रुस से 5.5 गुना और चीन से  करीब 3.5 गुना कम हैं।  

‘मानवता ने खोला नर्क का द्वार’ 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने दुनिया के सभी देशों को चेतावनी दी कि अगर उनका वर्तमान रवैया (बिजनेस एज यूज़वल) जारी रहा तो धरती को तापमान में 2.8 डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है। महत्वपूर्ण है के 1.5 डिग्री से अधिक तापमान वृद्धि के बाद नतीजे अति विनाशकारी होंगे। गुटेरेस ने इस संकट से लड़ने की अपील करते हुए कहा, “मानवता ने (जलवायु संकट के कारण) नर्क के द्वार खोल दिए हैं।”

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस। Photo: @antonioguterres on X

अमेरिका, चीन, भारत, रूस, यूनाइटेड किंगडम और जापान मिलकर दुनिया के कुल 60 प्रतिशत से ज़्यादा एमिशन के लिए ज़िम्मेदार हैं। जी-20 समूह के देशों का सम्मिलित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन दुनिया के कुल एमिशन का 80% है। यह ग्लोबल वॉर्मिंग और उस कारण बढ़ते क्लाइमेट प्रभावों से होने वाली क्षति के लिए ज़िम्मेदार होगा।

क्लाइमेट एंबिशन सम्मेलन में कैलिफोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसम (जिन्होंने पिछले राष्ट्रपति चुनावों में जो बाइडेन और कमला हैरिस का समर्थन किया था) ने साफ कहा कि विश्व नेताओं ने धोखा दिया है। उन्होंने कहा कि जलवायु संकट और कुछ नहीं है बल्कि जीवाश्म ईंधन का संकट है। इसके बावजूद बड़ी-बड़ी कंपनियां लगातार इसमें निवेश बढ़ा रही हैं। 

शोधकर्ताओं के मुताबिक अगर पेरिस संधि में ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए किए गए वादे पूरे भी किए जाते हैं (जो कि एक अपर्याप्त प्रयास है) तो भी 2050 तक वैश्विक जीडीपी को 4% तक क्षति होगी क्योंकि तापमान वृद्धि 2 डिग्री तक पहुंच ही जाएगी। 

लेकिन 2.6 डिग्री की तापमान वृद्धि के हालात में ग्लोबल जीडीपी को 14% की क्षति होगी जबकि गुटेरेस ने तो अपने भाषण में कहा 2.8 डिग्री तापमान वृद्धि की चेतावनी दी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि 3 डिग्री से अधिक की तापमान वृद्धि में कई शहरों और लघुद्वीपीय देशों का अस्तित्व ही मिट जाएगा और दुनिया को कुल  जीडीपी के 18% की क्षति होगी।

लॉस एंड डैमेज पर विवाद जारी  

ज़ाहिर तौर पर दुबई वार्ता से पहले लॉस एंड डैमेज एक बड़ा मुद्दा है। पिछले साल मिस्र में हुए क्लाइमेट वार्ता सम्मेलन में भले ही लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना की गई लेकिन न्यूयॉर्क सम्मेलन में स्पेन और ऑस्ट्रिया के अलावा किसी देश ने इस फंड में धन जमा करने का ज़िक्र नहीं किया। 

Photo: Harjeet Singh

थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क की प्रोग्राम प्रमुख मीना रमन कहती हैं, “पिछले कई दशकों से स्पेस में लगातार कार्बन छोड़ते रहे विकसित देश जब विकासशील देशों पर (जलवायु परिवर्तन) के प्रभावों की ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करते हैं तो यह उन देशों के साथ घोर अन्याय है जिनका कार्बन इमीशन में नहीं के बराबर योगदान है।”

पाकिस्तान और लीबिया जैसे देशों को लॉस एंड डैमेज फंड के लाभार्थियों की सूची से बाहर रखने को विकासशील देशों में फूट डालने की रणनीति माना जा रहा है। इसी तरह विकसित देशों द्वारा फंड को विश्व बैंक के तहत रखे जाने पर भी चिन्ताएं व्यक्त की गईं क्योंकि क्लाइमेट फाइनेंस की रिपोर्टिंग पर विश्व बैंक का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। 

इस फंड के क्रियान्वयन के बारे में अक्टूबर में होने वाली अहम बैठक में होगा लेकिन विकसित देशों के रवैये को लेकर पर्यावरण कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों में निराशा है। रमन कहती हैं, “इस फंड को विश्व बैंक के तहत रखने का मकसद अधिक एक अधिक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अस्वीकार करना है जहां विकासशील देशों को अपनी बात कहने का अधिकार हो।”

अति ग्लोबल वॉर्मिंग मिटा देगी सभी स्तनधारियों का वजूद।

अति ग्लोबल वॉर्मिंग मिटा देगी इंसान का नामोनिशान

अब तक के पहले सुपर कम्प्यूटर क्लाइमेट मॉडल ने चेतावनी दी है कि एक्सट्रीम ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण धरती से इंसान का वजूद पूरी तरह मिट जायेगा। इंग्लैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के शोधकर्ताओं ने पाया है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते प्रभाव के कारण धरती का तापमान 70 डिग्री तक जा सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अपनी तरह का पहला सुपर कम्प्यूटर मॉडल है जो बताता है कि अगले 25 करोड़ सालों में धरती में पानी और भोजन पूरी तरह से नष्ट हो जायेगा और मानव समेत सभी स्तनधारियों का अस्तित्व खत्म हो जायेगा। 

इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक लेखक डॉ अलेक्जेंडर फॉन्सवर्थ के मुताबिक इस हालाता में महाद्वीपीय प्रभाव, सूरज की बेतहाशा गर्मी और वातावरण में अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड के कारण एक तिहरा प्रभाव (ट्रिपल इफेक्ट) पैदा होगा। वैज्ञानिकों ने निकट भविष्य में मानवता के लिये बेहद कठिन हालात पैदा होने की बात कही है और कहा है कि सभी देशों को कोशिश करनी चाहिये कि जल्द से जल्द नेट ज़ीरो इमीशन का दर्जा हासिल हो सके।  

जाने माने कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन का निधन 

भारत में हरित क्रांति के जनक डॉ एम एस स्वामीनाथन का गुरुवार को निधन हो गया। डॉ स्वामीनाथन 1960 और 70 के दशक में भारत में खाद्य सुरक्षा के लिये हरित क्रांति के सूत्रधार रहे। वह भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निदेशक और फिलीपीन्स स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट के प्रमुख भी रहे। भारत में उपज बढ़ाने के लिये उन्होंने मैक्सिको में अमेरिकी वैज्ञानिक नॉमोन बोरलॉग द्वारा विकसित गेहूं के बीजों को घरेलू किस्मों के साथ मिलाकर संकर प्रजाति विकसित की। पंजाब जैसे राज्य में उनके प्रयोगों से उपज में पांच साल में पांच गुना बढ़ोतरी हो गई। स्वामीनाथन को उनके योगदान के लिये देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाज़ा गया था।

सितंबर में दुनिया के 10 देशों में बाढ़ का कहर, जलवायु परिवर्तन का असर  

भूमध्य सागर में उठे चक्रवाती तूफान डेनियल ने लीबिया को तबाह किया ही लेकिन दुनिया के कई देशों में इस साल बाढ़ ने भारी क्षति पहुंचाई। सितंबर में ही विश्व के कम से कम 10 देशों को बाढ़ से भारी नुकसान हुआ। इस महीने की शुरुआत हांग-कांग में तूफान से तबाही के साथ हुई फिर लीबिया में 11,000 लोगों की मौत और 30,000 लोग बेघर हुये जब यहां का डेर्ना शहर बर्बाद गया। डेनियल के प्रभाव से ग्रीस और टर्की में काफी क्षति हुई। उधर तूफान साओला ने हांगकांग में जीवन ठप्प कर दिया और चीन के शेनजेन और मकाऊ समेत कुल जगहों में मिलाकर करीब 10 लाख लोगों को सुरक्षित जगहों में भेजना पड़ा। ब्राज़ील में महीने की शुरुआत में बाढ़ से 30 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई। 

इन सारी  घटनाओं के एक साथ घटित होने को वैज्ञानिक क्लाइमेट चेंज के प्रभाव के रूप में देख रहे हैं। चक्रवाती तूफानों की बढ़ती संख्या और मारक क्षमता समुद्र के गर्म होने के लक्षण हैं।  अमेरिका के नेशनल ओशिनिक एंड एटमॉस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के मुताबिक पिछले 50 साल में पूरी धरती में जो भी वॉर्मिंग हुई है उसमें से 90% का प्रभाव समुद्र पर पड़ा है। 

धू-धू जलते कनाडा के जंगलों से हुआ भारी इमीशन 

धरती पर विशाल कार्बन सिंक समझे जाने वाले कनाडा के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं और हर रोज़ ढेर सारा धुंआं छोड़ रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि ये जंगल न केवल सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों का बसेरा हैं – जिनमें बहुत सारी विलुप्त होने की कगार पर हैं – बल्कि ये वन जितना इमीशन करते हैं उससे ज़्यादा ग्रीन हाउस गैसों को सोखते हैं जिस कारण इन्हें दुनिया के बेहतरीन कार्बन सिंक में गिना जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक इन जंगलों से अभी हो रहा कार्बन इमीशन कनाडा के वार्षिक उत्सर्जन के तीन गुने के बराबर है और धरती पर पहले ही ग्लोबल वॉर्मिंग के गंभीर संकट के कारण इस आग ने  चिन्ता बढ़ा दी है।

कनाडा के जंगल हर साल आग का शिकार हो रहे हैं और यहां अलग-अलग हिस्सों में आग के पीछे अलग-अलग कारण बताये जाते हैं। करीब आधे मामलों के पीछे बिजली गिरना आग की वजगह है लेकिन इसके लिये शुष्क मौसम और इंसानी लापरवाही भी ज़िम्मेदार है। कनाडा के अलवर्टा प्रान्त में साल 2020 में 88% जंगल की आग मानवजनित थी जबकि 2017 से 2022 के बीच इस प्रान्त में हर साल औसतन 68% आग के मामले इंसानी लापरवाही के कारण रहे। उधर नेशनल फॉरेस्ट डाटाबेस के मुताबिक 1990 से 2022 के बीच क्यूबेक में 33% आग के मामले बिजली गिरने का कारण हुये जबकि ओंटारियो में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत था।

पुर्तगाल के 6 युवाओं ने कहा है कि जलवायु आपदाओं से उनके मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। Photo: Simon/Pixabay.com

जलवायु संकट न रोक पाने के लिए 6 युवाओं ने किया 32 देशों पर मुकदमा

छह पुर्तगाली युवाओं ने मानव जनित जलवायु संकट न रोक पाने लिए 32 यूरोपीय देशों के खिलाफ यूरोपियन कोर्ट में मुकदमा किया है। बुधवार, 27 सितंबर को इस मामले की पहली सुनवाई हुई, जिसमें 11 से 24 वर्ष की आयु वाले इन दावेदारों ने अदालत को बताया कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए त्वरित कदम उठाने में सरकारों की विफलता के कारण उनके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।     

ब्रिटेन-स्थित ग्लोबल लीगल एक्शन नेटवर्क (जीएलएएन) इस मुकदमे में इन युवाओं का समर्थन कर रहा है। यह मामला स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय (ईसीएचआर) द्वारा सुना जाने वाला जलवायु से जुड़ा अब तक का सबसे बड़ा मामला है, और इसके परिणाम भी दूरगामी होंगे। यदि वादी यह  मुकदमा जीत जाते हैं, तो यह देशों को उनके क्लाइमेट एम्बिशन तेजी से बढ़ाने के लिए मजबूर करेगा और दुनिया भर में अन्य जलवायु से जुड़े मुकदमों के लिए नई संभावनाएं पैदा करेगा। और अगर फैसला इन युवाओं के खिलाफ होता है तो यह अन्य जलवायु से जुड़े दूसरे संघर्षों के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।

मुक़दमे के जवाब में इन देशों की सरकारों ने कहा कि इन युवाओं में से कोई भी यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से इन्हें कोई गहरी क्षति पहुंची है। हालांकि मुकदमा करने वाले युवाओं में से एक, 23 वर्षीय कटरीना मोटा ने कहा कि 2017 में पुर्तगाल के जंगलों में लगी आग, जिसमें 5 लाख हेक्टेयर भूमि जल के रख होगई थी, उनके घर के पास तक आगई थी और उसके धुएं ने उनके और उनके अन्य साथियों के जीवन पर जो प्रभाव डाला उसीके बाद उन्होंने यह मुकदमा करने की सोची।

इस मुकदमे में कहा गया है कि इन 32 देशों ने जलवायु आपदाओं में योगदान दिया है और युवाओं के भविष्य को खतरे में डाला है, इसलिए इन्हें तत्काल उत्सर्जन में कटौती तेज करनी चाहिए। इसके लिए जीवाश्म ईंधन उत्पादन पर अंकुश लगाना और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को सस्टेनेबल बनाने जैसे सुझाव दिए गए हैं।

इसमें यह भी कहा गया है कि इन देशों ने अपने कार्बन बजट बढ़ा-चढ़ा कर बताए हैं और यह अधिक कटौती कर सकते हैं। जलवायु परिवर्तन पर यूरोपीय वैज्ञानिक सलाहकार बोर्ड (ईएसएबीसीसी) ने सुझाव दिया है कि देशों को 1990 के स्तर के मुकाबले उत्सर्जन में 75% कटौती का लक्ष्य रखना चाहिए, जो कि यूरोपीय संघ के वर्तमान 55% से कहीं अधिक महत्वकांक्षी है।

इन छह युवाओं का यह भी कहना है कि यह यूरोपीय देश पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा कर पाने में विफल रहे हैं और यदि मौजूदा गति से उत्सर्जन होता रहा तो वादियों के जीवनकाल में ही धरती का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। इससे होने वाले बदलाव उनके मूल अधिकार, विषेशकर जीवन जीने के अधिकार का हनन हैं, जिसके लिए इन देशों की सरकारें जिम्मेदार हैं।

रिवर इंटरलिंकिंग परियोजनाओं से और बढ़ सकता है जल संकट: शोध

भारत की महत्वाकांक्षी रिवर लिंकिंग  परियोजनाएं अनजाने में देश के जल संकट को बढ़ा सकती हैं और मानसून के पैटर्न को बाधित कर सकती हैं, नेचर जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन का कहना है। आईआईटी मुंबई और भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे के शोधार्थियों समेत इस अध्ययन के रिसर्चर्स ने पाया कि देश में बढ़ते सूखे और बाढ़ से निपटने के लिए बनाई की गई इस योजना का प्रभाव विपरीत हो सकता है।

अध्ययन के अनुसार एक नदी घाटी में जो धरती की सतह और वायुमंडल के बीच पारस्परिक क्रिया होती है (जिसे लैंड-एटमॉस्फीयर फीडबैक कहा जाता है), वह दूसरी नदी घाटी में होनेवाली ऐसी ही क्रिया से प्रभावित हो सकती है। मिसाल के तौर पर, किसी एक बेसिन में मृदा की नमी दूसरे बेसिन में मृदा की नमी बढ़ा या घटा सकती है।

यदि इन घाटियों के बीच पानी का आदान-प्रदान होता है, जैसा की रिवर लिंकिंग परियोजनाओं के अंतर्गत होना है, तो इससे इनका लैंड-एटमॉस्फीयर इंटरैक्शन प्रभावित हो सकता है, जिसके फलस्वरूप वहां हवा और पवन में नमी की मात्रा में फर्क पड़ेगा और पूरे देश में बारिश का पैटर्न प्रभावित होगा।             

शोधकर्ताओं ने कहा कि इससे देश भर में जल संकट बढ़ सकता है, और इंटरलिंकिंग परियोजनाएं अप्रभावी हो जाएंगीं या उनका प्रभाव प्रतिकूल होगा।

गूगल ने भारत में शुरू की भूकंप चेतावनी सेवा

गूगल भारत में एक भूकंप चेतावनी सेवा शुरू की है जिसमे एंड्रॉइड स्मार्टफोन के सेंसर का उपयोग करके भूकंप का अनुमान लगाया जाता है और उसकी तीव्रता भी पता चलती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) और राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (एनएससी) से परामर्श करके गूगल ने भारत में “एंड्रॉइड अर्थक्वेक अलर्ट सिस्टम” लॉन्च किया है।

यह चेतावनी सेवा एंड्रॉइड 5 के ऑपरेटिंग सिस्टम और इसके बाद के संस्करणों में उपलब्ध होगी। यह सिस्टम एंड्रॉइड फोन में मौजूद छोटे एक्सेलेरोमीटर की मदद लेता है जो एक मिनी सीस्मोमीटर के रूप में कार्य कर सकता है। ‘जब किसी फोन को प्लग इन करके चार्ज किया जाता है, तो यह शुरुआती भूकंप के झटकों का पता लगा सकता है। यदि कई फोन एक ही समय में भूकंप जैसे झटकों का पता लगाते हैं, तो हमारा सर्वर इस जानकारी का उपयोग करके यह अनुमान लगा सकता है कि भूकंप आ रहा है, और इसके केंद्र आदि का पता लगाकर आस-पास के फ़ोन्स पर अलर्ट भेज सकता है,’ गूगल ने एक ब्लॉग में कहा।

दिल्ली सरकार बनी यूएन-समर्थित रेसिलिएंस अभियान का हिस्सा

दिल्ली सरकार वैश्विक क्लाइमेट एम्बिशन में रेसिलिएंस (जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को झेलने, उनके साथ अनुकूलन करने और उनसे उबरने की क्षमता) को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित अभियान ‘रेस टू रेसिलिएंस’ में शामिल हो गई है। इसके तहत दिल्ली सरकार ने जो प्रतिबद्धताएं जताई हैं उनमें अगले पांच वर्षों के भीतर 25 प्रतिशत ग्रीन कवर हासिल करना भी शामिल है। इन प्रतिबद्धताओं का उद्देश्य सतत विकास को बढ़ावा देते हुए क्लाइमेट रेसिलिएंस बढ़ाना है।

इनमें शामिल है कचरे को पुन: उपयोग करने और कम करने के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था तथा स्वच्छ और टिकाऊ ऊर्जा तक पहुंच बढ़ाने के लिए विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश आदि। इस अभियान के तहत, दिल्ली सरकार ने हरित क्षेत्र को बढ़ाने और वृक्षारोपण के लिए भी प्रतिबद्धता जताई है, जिसका लक्ष्य अगले पांच वर्षों में 25 प्रतिशत हरित आवरण हासिल करना है।

दिल्ली सरकार की निर्माण एजेंसियो को चेतावनी लेकिन क्या होगा कुछ असर?

धूल प्रदूषण को रोकने के लिए बिल्डरों को मानदंडों का पालन करना होगा: दिल्ली सरकार

दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने निर्माण एजेंसियों को चेतावनी दी कि अगर वे शहर में धूल प्रदूषण को रोकने के लिए शहर सरकार के 14 सूत्री दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते हैं तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। राय ने राष्ट्रीय राजधानी में वार्षिक शीतकालीन प्रदूषण वृद्धि से पहले सरकारी और निजी निर्माण एजेंसियों के 200 से अधिक प्रतिनिधियों के साथ बैठक की।

पर्यावरण मंत्री ने सभी निर्माण एजेंसियों को दिशानिर्देशों के संबंध में निर्माण श्रमिकों को साइट पर प्रशिक्षण प्रदान करने का आदेश भी दिया। जहा निर्माण क्षेत्र 5,000 वर्ग मीटर या उससे अधिक है, उन साइटों पर बिल्डरों को एंटी-स्मॉग गन भी लगानी होगी। दिल्ली सरकार ने सर्दियों में प्रदूषण से निपटने के लिए 15 फोकस बिंदुओं के साथ एक कार्य योजना तैयार की, जिसमें धूल प्रदूषण पर अंकुश लगाना भी शामिल है।

और दो हफ्ते पहले ही दिल्ली सरकार ने आगामी दिवाली सीज़न के दौरान राजधानी क्षेत्र में सभी प्रकार के पटाखों के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और उपयोग पर प्रतिबंध फिर से लगाने की घोषणा की थी।

नहर में प्रदूषण की जांच के लिए एनजीटी ने बनाई समिति

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने पंजाब में पटियाला फीडर नहर में दूषित पानी के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त समिति का गठन किया है। विभिन्न पर्यावरण एजेंसियों के सदस्यों वाली समिति को स्थिति का आकलन करने और समाधान प्रस्तावित करने के लिए आठ सप्ताह का समय दिया गया है। यह कदम लुधियाना के जरगारी गांव के निवासियों द्वारा दायर एक याचिका के बाद उठाया गया है, जिसमें ग्रामीणों द्वारा बनाए गए जरगारी नाले के बारे में चिंता जताई गई थी। जरगारी नाला पटियाला ब्रांच फर्स्ट फीडर नहर को पार करता है और पानी को लस्सारा नाले में छोड़ता है, जो एक अंतरराज्यीय नाला है और जिसमे निकास ना होने के कारण वह एक तालाब बन गया है।

ग्रामीणों ने कहा कि बने हुए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के बंद रहने के कारण सीवेज का पानी जरगारी नाले में बह रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि अनुपचारित पानी के नमूनों की परीक्षण रिपोर्ट से पता चला है कि जैविक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) स्तर और फ़ेकल कोलीफ़ॉर्म का स्तर अनुशंसित मानकों से अधिक पाया गया है।   

धातु-खनन प्रदूषण दुनिया भर में 2 करोड़ से ज़्यादा लोगों को करता है प्रभावित 

दुनिया भर में कम से कम 2 करोड़ लोग धातु-खनन गतिविधि से जहरीले कचरे की संभावित हानिकारक सांद्रता से दूषित मैदानी इलाकों में रहते हैं। ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने दुनिया की 22,609 सक्रिय और 1,59,735 बन्द हो चुकी खदानों का मानचित्रण किया और उनसे प्रदूषण की सीमा की गणना की। खनन कार्यों से रसायन मिट्टी और जलमार्गों में जा सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि भविष्य की खदानों की योजना में बहुत सावधानी बरतनी होगी। विशेष रूप से तब जबकि लिथियम और तांबे सहित बैटरी प्रौद्योगिकी और विद्युतीकरण का समर्थन करने वाली धातुओं की मांग बढ़ रही है। उन्होंने यह भी कहा की दूषित मिट्टी पर उगाई गई या खदान के कचरे से दूषित पानी से सिंचित फसलों में धातुओं की उच्च मात्रा पाई गई है। 

जीवाश्म ईंधन की तुलना में स्वच्छ हवा पर पहली बार हुआ अधिक खर्च 

एक रिपोर्ट में पाया गया है कि सरकारों, एजेंसियों और विकास बैंकों ने रिकॉर्ड पर पहली बार जीवाश्म ईंधन की तुलना में स्वच्छ हवा पर अधिक सहायता राशि खर्च की है। हालाँकि ऐसी परियोजनाओं को अभी भी अंतर्राष्ट्रीय विकास निधि का 1% से भी कम प्राप्त होता है।

रिपोर्ट में पाया गया कि जीवाश्म ईंधन के लिए अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग 2019 में चरम पर थी और इसमें तेजी से गिरावट आई है।  2021 में कोयला संयंत्रों या गैस पाइपलाइनों के निर्माण जैसी जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं पर लगभग 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किया गया, जो दो साल पहले खर्च किये 11.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर से कम है। बाहरी वायु प्रदूषण से निपटने पर खर्च की जाने वाली राशि बढ़कर 2.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गई है। इस बदलाव के बावजूद, 2015 और 2021 के बीच स्वच्छ हवा पर लक्षित खर्च अंतरराष्ट्रीय विकास निधि का केवल 1% और अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक जलवायु वित्त का 2% था।

साफ ऊर्जा उत्पादन के मामले में यूपी देश में नौवें स्थान पर है।

सौर ऊर्जा लक्ष्यों में पिछड़ रहा है उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश जनसंख्या के हिसाब से देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां ऊर्जा की मांग भी सबसे ज्यादा है और इसलिए देश के नेट-जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के लक्ष्य की प्राप्ति में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। फिर भी यह राज्य अपने सौर ऊर्जा लक्ष्यों की प्राप्ति में पिछड़ रहा है

साफ ऊर्जा उत्पादन के मामले में यूपी देश में नौवें स्थान पर है। राज्य के 75 जिलों में से केवल 18 में बड़ी सोलर परियोजनाएं हैं। मार्च 2022 तक उत्तर प्रदेश में कुल स्थापित ऊर्जा क्षमता 30,769 मेगावाट थी। 31 दिसंबर 2022 तक राज्य में सौर ऊर्जा उत्पादन 2,485.16 मेगावाट था। राज्य सरकार ने 2026-27 तक 22,000 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। यानी अगर रोज करीब 14 मेगावाट के सौर ऊर्जा संयंत्र लगाए जाएं तभी इस लक्ष्य को तय समय में हासिल किया जा सकता है।

केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) की 2022-23 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, रूफटॉप सोलर योजना का दूसरा चरण वर्ष 2022 में शुरू किया गया था। इसके तहत 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आवंटित 3,408.13 मेगावाट में से यूपी को 121.2 मेगावाट का लक्ष्य दिया गया है। हालांकि, 31 दिसंबर, 2022 तक उत्तर प्रदेश के आवासीय क्षेत्रों में केवल 23.70 मेगावाट के सौर संयंत्र स्थापित किए गए थे।

केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी पीएम-कुसुम योजना के तहत भी यूपी का प्रदर्शन अब तक निराशाजनक रहा है। एमएनआरई की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2022-23 के लिए पीएम-कुसुम योजना-ए (ग्रिड कनेक्टेड सोलर प्लांट) के तहत यूपी में 225 मेगावाट के संयंत्रों को मंजूरी दी गई थी। लेकिन एक भी संयंत्र नहीं बनाया गया।

जानकारों का कहना है राज्य को अपना प्रदर्शन सुधारने के लिए जमीनी स्तर पर आने वाली कठिनाइयों से जूझना होगा और तकनीकी समस्याओं को हल करना होगा।

भारत की अक्षय ऊर्जा बूम 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए पर्याप्त नहीं: रिपोर्ट

भारत का नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन यह गति ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने अपनी नई रिपोर्ट में दावा किया है। विभिन्न सरकारों के क्लाइमेट एक्शन पर नज़र रखने वाले इस समूह ने इस रिपोर्ट में 16 देशों का विश्लेषण किया है कि क्या उनकी बिजली क्षेत्र को डीकार्बनाइज करने की योजना ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लक्ष्य के अनुरूप है या नहीं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी देशों को 2035 तक अपनी बिजली का 80% से अधिक नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त करने की जरूरत है। और 2050 तक 90-100% बिजली आपूर्ति नवीकरणीय स्रोतों से होनी चाहिए। 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के अनुरूप रहने के लिए भारत को 2030 तक 70-75% बिजली उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से करना होगा, लेकिन सरकार की मौजूदा योजनाओं के हिसाब से 50% से भी कम उत्पादन साफ़ ऊर्जा से होगा।

हालांकि, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने रिपोर्ट के विश्लेषण से असहमति जताते हुए कहा कि भारत सरकार शमन और अनुकूलन दोनों के संदर्भ में कई योजनाएं और कार्यक्रम लागू कर रही है और यह रिपोर्ट इस पहलू को पूरी तरह से नजरअंदाज करती है।

भारत ने पहली अपतटीय पवन परियोजना के लिए निविदा जारी की

केंद्र सरकार ने 28 सितंबर को अपतटीय पवन परियोजनाओं के विकास के लिए तमिलनाडु के तट पर सीबेड आवंटित करने के लिए देश की पहली निविदा जारी की। यह एक महत्वपूर्ण कदम है क्योंकि फिलहाल भारत में कोई अपतटीय पवन परियोजना नहीं हैं। देश में अब तक केवल भूमि-आधारित पवन फार्म हैं, जिनकी कुल क्षमता 44,089.68 मेगावाट है।

नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) नीलामी के माध्यम से सीबेड साइट आवंटित करेगा। जो डेवलपर्स या उत्पादक 31 दिसंबर, 2032 या उससे पहले अपनी अपतटीय पवन परियोजना चालू कर देते हैं उनके लिए अंतर-राज्य ट्रांसमिशन सिस्टम (आईएसटीएस) शुल्क माफ कर दिया जाएगा। वरिष्ठ एमएनआरई अधिकारियों ने कहा कि अपतटीय पवन परियोजनाओं पर अध्ययन में अधिकतम पांच साल लगेंगे, और पहली परियोजना 2030 के बाद ही चालू  होने की संभावना है।

नवीकरणीय ऊर्जा में बढ़ीं नौकरियां, लेकिन चीन अब भी सबसे आगे

साल 2022 में वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा सेक्टर में रोजगारों की संख्या बढ़कर 1.37 करोड़ हो गई, जिनमें से दस लाख रोजगार केवल पिछले एक साल में जोड़े गए। यह आंकड़े अंतर्राष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (आईआरईएनए) और अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) ने अपनी एक संयुक्त रिपोर्ट में दिए हैं।

2023 के वार्षिक रिव्यू में कहा गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में निवेश तेजी से बढ़ा है जिससे रोजगारों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन फिर भी इनमें से 41% रोजगार केवल चीन में उत्पन्न हुए हैं। रोजगारों के मामले में अन्य अग्रणी देशों में ब्राज़ील, यूरोपीय संघ, भारत और अमेरिका शामिल हैं। 

इन रोजगारों में सबसे अधिक 49 लाख नौकरियां सौर फोटोवोल्टिक्स (पीवी) में मिली हैं, जिसकी संपूर्ण नवीकरणीय ऊर्जा कार्यबल में हिस्सेदारी एक तिहाई से अधिक है। हाइड्रोपावर और बायोफ्यूल सेक्टरों में लगभग 25 लाख नौकरियां मिलीं, जबकि पवन ऊर्जा में रोजगारों की संख्या 14 लाख रही।

फ़ास्ट चार्जिंग के दौरान लिथियम-आयन बैटरी में 'लिथियम प्लेटिंग' होती है।

नई खोज: ज्यादा चलेगी ईवी की बैटरी, आग का खतरा भी होगा कम

लंदन के क्वीन मैरी विश्विद्यालय और ब्रिटेन और अमेरिका कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरी में ‘लिथियम प्लेटिंग’ को रोकने का तरीका खोज निकाला है। शोध से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है इससे न केवल बैटरी चार्जिंग का समय कम होगा बल्कि वाहन एक चार्ज में अधिक दूरी भी तय कर सकेंगे।

साथ ही इससे बैटरी की लाइफ बढ़ेगी और विस्फोट का खतरा भी कम होगा। ‘लिथियम प्लेटिंग’ एक प्रक्रिया है जो फ़ास्ट चार्जिंग के दौरान लिथियम-आयन बैटरी में होती है। इस प्रक्रिया में लिथियम आयन बैटरी के निगेटिव इलेक्ट्रोड से मिलने की बजाय उसकी सतह पर जमा हो जाते हैं, जिससे इलेक्ट्रोड पर धात्विक लिथियम की एक परत जमती रहती है। इससे बैटरी क्षतिग्रस्त हो सकती है, उसकी लाइफ कम होती है और शॉर्ट-सर्किट हो सकता है जिससे आग लगने और विस्फोट होने का खतरा रहता है।

इस शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि ग्रेफाइट निगेटिव इलेक्ट्रोड की सूक्ष्म संरचना में सुधार करके लिथियम प्लेटिंग को कम किया जा सकता है। इलेक्ट्रिक वाहन बैटरी के विकास में यह शोध एक बड़ी सफलता है।

भारत को बैटरी रीसाइक्लिंग पर ध्यान देने की जरूरत

भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। आंकड़ों के मुताबिक 2022 में जहां दस लाख वाहनों की बिक्री एक साल में हुई थी, वहीं इस साल नौ महीनों में ही दस लाख वाहन बिक चुके हैं। 2030 तक 40% नवीकरणीय ऊर्जा में ट्रांजिशन का लक्ष्य पूरा करने में ईवी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। लेकिन इसके कारण लिथियम आयन बैटरियों की मांग भी बढ़ रही है, जिसके साथ ही इस्तेमाल हो चुकी बैटरियों के डिस्पोजल और उनसे होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को लेकर भी चिंताएं बढ़ रही हैं।

मैकिन्से की रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक भारत का लिथियम-आयन बैटरी बाजार लगभग 120 गीगावॉट ऑवर तक बढ़ जाएगा, और रीसाइक्लिंग क्षमता 23 गीगावॉट ऑवर के आस-पास होगी। इससे इकोसिस्टम में इस्तेमाल हो चुकी बैटरियों की संख्या भी बढ़ेगी। इसे रोकने के लिए देश को बैटरी रीसाइक्लिंग इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की जरूरत है। जानकारों की मानें तो बैटरी रीसाइक्लिंग के लिए एक व्यापक प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) योजना की तत्काल आवश्यकता है।

रीसाइक्लिंग के द्वारा लिथियम, कोबाल्ट और निकल जैसे मैटेरियल को पुनः प्राप्त किया जा सकता है, जो बैटरी उत्पादन और दूसरी कई नवीकरणीय प्रौद्योगिकियों के लिए बेहद जरूरी हैं। इससे भारत एनर्जी ट्रांजिशन के लिए जरूरी खनिजों के उत्पादन और आपूर्ति में भी आगे बढ़ सकता है।

टेस्ला ने दिया भारत में ‘पॉवरवाल’ बैटरी स्टोरेज सिस्टम बनाने का प्रस्ताव

टेस्ला ने भारत में बैटरी स्टोरेज सिस्टम बनाने और बेचने की एक योजना तैयार की है। द हिंदू ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि एलन मस्क की अगुवाई वाली कंपनी ने फैक्ट्री बनाने के लिए इंसेटिव की मांग करते हुए अधिकारियों को एक प्रस्ताव सौंपा है। हालांकि बातचीत में भारतीय अधिकारियों ने टेस्ला से कहा है कि जो इंसेटिव उसे चाहिए वह नहीं मिल सकते।

सूत्रों ने बताया कि नई दिल्ली में हाल ही में हुई बैठकों में टेस्ला ने अपने ‘पावरवॉल’ से भारत की बैटरी स्टोरेज क्षमताओं का समर्थन करने का प्रस्ताव रखा। ‘पावरवॉल’ एक ऐसी प्रणाली है जो रात में या बिजली कटौती के दौरान उपयोग के लिए सौर पैनलों या ग्रिड से बिजली स्टोर कर सकती है। बैटरी एनर्जी स्टोरेज सिस्टम यानी बीईएसएस एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा नवीकरणीय स्रोतों से उत्पन्न ऊर्जा को संग्रहीत करके आवश्यकता पड़ने पर पावर ग्रिड तक पहुंचाया जा सकता है। बीईएसएस प्रणाली खुद तय कर सकती है कि कब ऊर्जा स्टोर करनी है और कब ग्रिड को सप्लाई करनी है।  

जानकार कहते हैं कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों की प्राप्ति में बीईएसएस की भूमिका महत्वपूर्ण है। 

भारत की वर्तमान स्टोरेज क्षमता 37 मेगावाट ऑवर है। यदि भारत को 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा के अपने लक्ष्य को पूरा करना है, तो उसे 200 गीगावाट ऑवर से अधिक के बीईएसएस पैक की आवश्यकता होगी। हाल ही में केंद्र ने 2030-31 तक 4 गीगावाट ऑवर की बीईएसएस क्षमता के निर्माण की एक योजना को मंजूरी दी है। यह डेवलपर्स के लिए 3,760 करोड़ रुपए की वायाबिलिटी गैप फंडिंग के साथ-साथ, सरकार ने लिथियम आयन बैटरी में प्रयोग होने वाले एडवांस्ड केमिस्ट्री सेल की मैन्युफैक्चरिंग के लिए 18,100 करोड़ रुपए की प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव योजना की भी घोषणा की है।

मैकिन्से के अनुसार $55 बिलियन का वैश्विक बीईएसएस बाज़ार 2030 तक $150 बिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है

देश में बिकी 40% से अधिक ईवी तमिलनाडु में निर्मित

परिवहन मंत्रालय की ‘वाहन’ वेबसाइट के आंकड़ों के अनुसार, तमिलनाडु इस साल बेचे गए इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) के सबसे बड़े निर्माताओं में से एक है। इस वर्ष भारत में बेचे गए 10 लाख इलेक्ट्रिक वाहनों में से 400,000 से अधिक का निर्माण तमिलनाडु में किया गया था। 

इन वाहनों में मुख्य रूप से इलेक्ट्रिक स्कूटर और कारें हैं, जिनका निर्माण राज्य में 10 कंपनियों द्वारा किया जाता है। इनमें प्रमुख हैं ओला इलेक्ट्रिक और टीवीएस मोटर, जिन्होंने कृष्णागिरी जिले में स्थित मैन्युफैक्चरिंग इकाईयों से क्रमशः 175,608 और 112,949 वाहन बेचे।

आंकड़ों के मुताबिक, इस साल 20 सितंबर तक देश के विभिन्न आरटीओ कार्यालयों में 1,044,600 इलेक्ट्रिक वाहन पंजीकृत हुए। इसमें से, तमिलनाडु में 414,802 वाहन पंजीकृत हुए जिनका निर्माण राज्य में ही हुआ था।

'बैकअप ऊर्जा स्रोत' के रूप में जीवाश्म ईंधन का प्रयोग जारी रखना चाहता है चीन।

चीन ने कहा संभव नहीं है जीवाश्म ईंधन को फेजआउट करना

चीन के जलवायु दूत शी ज़ेनहुआ ​​ने कहा है कि वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन को फेजआउट करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तकनीक से जीवाश्म ईंधन जलाने से होने वाला उत्सर्जन कम किया जा सकता है, लेकिन जीवाश्म ईंधन फेजआउट की कल्पना व्यवहारिक नहीं है। 

उन्होंने कहा कि नवीकरणीय ऊर्जा मौसम पर निर्भर है इसलिए ‘जीवाश्म ईंधन को बैकअप ऊर्जा स्रोत के रूप में काम करना चाहिए, क्योंकि बड़े पैमाने पर ऊर्जा भंडारण, इलेक्ट्रिक पावर ट्रांसमिशन, स्मार्ट ग्रिड, माइक्रोग्रिड जैसी प्रौद्योगिकियां अभी तक पूरी तरह विकसित नहीं हुई हैं’। उनके इस बयान ने कॉप28 जलवायु वार्ता में जीवाश्म ईंधन फेजआउट पर सहमति की उम्मीदों को धूमिल कर दिया है।

शी का बयान कॉप28 के अध्यक्ष और अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी के प्रमुख सुल्तान अल-जबेर के कथन से मेल खाता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया को जीवाश्म ईंधन के बजाय ‘जीवाश्म ईंधन से होने वाले उत्सर्जन’ को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की आवश्यकता है।

गौरतलब है कि 2022 के अंत तक चीन की कुल ऊर्जा उत्पादन क्षमता में गैर-जीवाश्म ऊर्जा उत्पादन क्षमता की हिस्सेदारी 49.6% थी, जिसे वह इस साल बढ़ाकर 51.9% करना चाहता है। नवीकरणीय ऊर्जा स्थापना के मामले में भी चीन विश्व में अग्रणी है।  लेकिन फिर भी वह कोयले का प्रयोग बढ़ा रहा है और आनेवाले में समय में उसमें कटौती की कोई गुंजाइश नहीं है।

यूरोप के बड़े कर्जदाताओं ने जीवाश्म ईंधन कंपनियों को दिए 1 ट्रिलियन यूरो

बैंकों समेत यूरोप के सबसे बड़े कर्जदाताओं ने पेरिस जलवायु समझौते के बाद से जीवाश्म ईंधन कंपनियों को वैश्विक बांड मार्केट के जरिए 1 ट्रिलियन यूरो यानी करीब 88 लाख करोड़ रुपये से अधिक रकम जुटाने में मदद की है। 

कार्बन उत्सर्जन समाप्त करने की दिशा में हो रहे प्रयासों के बीच यूरोप के बड़े लेनदारों पर डायरेक्ट लोन और फाइनेंसिंग के माध्यम से जीवाश्म ईंधन कंपनियों की मदद न करने का बहुत दबाव है। हालांकि ब्रिटेन के गार्डियन अख़बार और उसके रिपोर्टिंग पार्टनरों ने 2016 के बाद हुए लेनदेन के आंकड़ों के विश्लेषण करके पाया है कि डॉयचे बैंक, एचएसबीसी और बार्कलीज जैसे कर्जदाताओं ने जीवाश्म ईंधन बॉण्ड की बिक्री का समर्थन करके तेल, गैस और कोयले के विस्तार से लाभ कमाना जारी रखा है।

विभिन्न देशों से यह उम्मीद की जा रही है कि वह नवंबर-दिसंबर में होने वाले कॉप28 महासम्मेलन में जीवाश्म ईंधन के भविष्य को लेकर कोई महत्वपूर्ण फैसला करेंगे, जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है। ऐसे में इस विश्लेषण से सस्टेनेबल इन्वेस्टमेंट के प्रचारकों के बीच चिंताएं बढ़ीं है क्योंकि एक तरफ बैंक सार्वजनिक रूप से प्रतिज्ञा करते हैं कि वह नई जीवाश्म ऊर्जा परियोजनाओं को डायरेक्ट लोन देना धीरे-धीरे बंद कर देंगे, और दूसरी ओर वह भरी उत्सर्जन करने वाली ऊर्जा कंपनियों को “परोक्ष रूप से” वित्तीय सहायता देना जारी रखे हुए हैं।

ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए जरूरी है जीवाश्म ईंधन की मांग में एक चौथाई की कमी

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए 2030 तक जीवाश्म ईंधन की मांग में एक चौथाई की कमी होनी चाहिए

आईईए के अनुसार, 2050 तक जीवाश्म ईंधन की मांग में 80% की गिरावट होनी चाहिए। मांग के इस स्तर तक गिरने का मतलब यह है कि दुनिया को अब अधिकांश नई तेल और गैस परियोजनाओं और नए कोयला खनन कार्यों की आवश्यकता नहीं है।

आईईए ने अपने ‘नेट जीरो रोडमैप’ में कहा है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं को जल्द ही नेट-जीरो तक पहुंचना होगा ताकि विकासशील देशों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत बनाने के लिए अधिक समय मिल सके।

आईईए के एक्सिक्यूटिव डायरेक्टर फतिह बिरोल ने कहा कि सरकारों को क्लाइमेट प्रयासों को जियो-पॉलिटिक्स से अलग करने की जरूरत है।