महाराष्ट्र में बीड जिले के पिंपलगांव गांव में, अर्चना महादेव लगभग दो एकड़ में फैले अपने कपास के खेतों को देखती है। उसके चेहरे पर आशा और घबराहट के मिलेजुले भाव हैं। फसल की कटाई का समय नजदीक है लेकिन उसे अपनी फसल बचाने से ज्यादा अपने पति की चिंता है। पिछले सात वर्षों में, फसल बर्बाद होने और बढ़ते कर्ज के कारण परिवार के दो सदस्यों ने आत्महत्या कर ली है।
अर्चना कहती हैं, “मुझे अब अपने पति की चिंता हो रही है। शिक्षित होने के बावजूद उनके पास कोई नौकरी नहीं है और यहां खेती करना कठिन होता जा रहा है। किसान संकट में अपनी जान दे रहे हैं।”
कई दशकों से महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र किसानों की आत्महत्या के लिए खबरों में बना हुआ है, लेकिन अब इससे लगे मराठवाड़ा क्षेत्र में भी मामले चिंताजनक रूप से बढ़ रहे हैं, जहां राज्य के कुल आठ जिले हैं। बीड जिले में इस साल के पहले छह महीनों में 100 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है, जिसका मतलब है कि केवल एक जिले में हर हफ्ते चार से अधिक किसान अपनी जान दे रहे हैं।
कार्बनकॉपी ने मराठवाड़ा क्षेत्र का दौरा किया और पाया कि इस बढ़ते कृषि संकट के पीछे कई कारक हैं, जैसे कम भूमि जोत, फसलों का गैर-विविधीकरण, उर्वरकों और कीटनाशकों की बढ़ती कीमत के साथ-साथ अनिश्चित मौसम और जलवायु प्रेरित कारक जो कई बार फसलों को खराब करते हैं। इसने मराठवाड़ा को उस कगार पर धकेल दिया है, जहां न केवल बड़ी संख्या में मौतें हुईं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में पलायन भी बढ़ गया है।
मराठवाड़ा: किसान आत्महत्याओं का नया केंद्र
करीब चार दशक पहले जब 19 मार्च, 1986 को महाराष्ट्र के यवतमाल जिले से एक किसान परिवार की सामूहिक आत्महत्या की खबर आई और भारत एक कड़वी हकीकत से रूबरू हुआ। आने वाले कई वर्षों तक और आज भी विदर्भ किसान आत्महत्याओं का केंद्र बना हुआ है। लेकिन अब निकटवर्ती मराठवाड़ा भी गहरे कृषि संकट में फंस गया है। 2002 के बाद से, क्षेत्र के आठ जिलों, शम्भाजी नगर, धाराशिव, बीड, जालना, हिंगोली, लातूर, नांदेड़ और परभणी में हर साल 200 से अधिक आत्महत्याएं देखी गई हैं और पिछले 10 वर्षों में यह संख्या तेजी से बढ़ी है।
हिंगोली जिले में खुदकुशी कर चुके किसानों के परिवारों की मदद कर रहे सत्तर वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता जयाजी पाइकराव के अनुसार, वर्षों से किसानों के बीच संकट का मूल कारण नीति निर्माताओं द्वारा “आधुनिक कृषि” के नाम पर पेश किए गए कृषि के अस्थिर और महंगे साधन हैं।
पाइकराव के मुताबिक, “1970 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही किसानों ने पारंपरिक तरीकों को छोड़ दिया और संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग करना शुरू कर दिया। हमारे तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन की सलाह से आधुनिक कृषि को बढ़ावा देने के लिए बहुत उत्सुक थे। शुरुआत में इससे फसलों की अधिक पैदावार के रूप में अच्छे परिणाम मिले, लेकिन बाद में किसान कई समस्याओं से घिर गए। संकर बीज के लिए अधिक से अधिक पानी, उर्वरक और रसायनों की आवश्यकता होती है और वक्त बीतने के साथ भूमि परिवार के सदस्यों के बीच वितरित होने के कारण बोया जाने वाला क्षेत्र कम हो गया है। इससे उनकी उत्पादन लागत बढ़ती गई।”
पाइकराव के अनुसार, इसका असर सबसे पहले यवतमाल और विदर्भ के अन्य हिस्सों में दिखाई दिया, जहां से 1980 और 1990 के दशक में किसानों की आत्महत्या की खबरें आईं, लेकिन जल्द ही यह समस्या मराठवाड़ा क्षेत्र में भी शुरू हो गई।
उन्होंने कहा, “सरकार ने किसानों को कपास, सोयाबीन और गन्ना जैसी नकदी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हें बैंकों के माध्यम से ऋण उपलब्ध कराया गया। लेकिन फसल बर्बाद होती गई, पैसा गैर कृषि कार्यों में लग गया और कर्ज ने किसानों के जीवन को घेर लिया। पिछले 20 वर्षों में इस क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या अब हर रोज की खबर है।”
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस साल के पहले छह महीने में – जनवरी से जून के बीच – मराठवाड़ा के आठ जिलों में 430 आत्महत्या के मामले सामने आए। बीड 101 मामलों के साथ शीर्ष पर था, उसके बाद धाराशिव (उस्मानाबाद) और नांदेड़ हैं जहां 76 और 68 मामले दर्ज किए गए।
तालिका 1 – मराठवाड़ा में ज़िलेवार किसान आत्महत्याओं के आंकड़े [जनवरी- जून 2024]
जिला | मौतों की संख्या | मुआवज़े की योग्यता | अस्वीकृत | जांच के अधीन | मुआवज़ा (लाख रुपए) |
संभाजी नगर (औरंगाबाद) | 64 | 48 | 0 | 16 | 22 |
जालना | 40 | 36 | 3 | 1 | 16 |
परभनी | 31 | 9 | 5 | 17 | 2 |
हिंगोली | 17 | 9 | 1 | 7 | 9 |
नांदेड़ | 68 | 51 | 1 | 16 | 17 |
बीड | 101 | 46 | 5 | 50 | 46 |
लातूर | 33 | 26 | 1 | 6 | 26 |
धाराशिव(ओस्मानाबाद) | 76 | 31 | 4 | 41 | 31 |
कुल (मराठवाड़ा) | 430 | 256 | 20 | 154 | 169 |
हालाँकि, जुलाई तक, आत्महत्या से मरने वाले इन 430 किसानों में से केवल 256 को ही किसान आत्महत्या माना गया। बीस मामले खारिज कर दिए गए और जुलाई तक 154 मामलों की जांच चल रही थी। लेकिन यह संख्या (256) भी बताती है कि मराठवाड़ा में हर हफ्ते 10 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
संकट के पीछे कई कारण
कर्नाटक और तेलंगाना राज्यों की सीमा से लगा मराठवाड़ा क्षेत्र (जिसे औरंगाबाद डिवीजन भी कहा जाता है) महाराष्ट्र के विदर्भ, नासिक और पुणे डिवीजनों से घिरा हुआ है। यह अजंता पर्वत श्रृंखला की वर्षा छाया पट्टी (रेन शेडो बेल्ट) में स्थित है और सूखे प्रभावित है। इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें कपास, गन्ना, सोयाबीन, हल्दी, गेहूं और दालें हैं।
इस शुष्क क्षेत्र को विशेष रूप से 2011 के बाद से लगातार सूखे या सामान्य से कम वर्षा का सामना करना पड़ा है। क्योंकि मराठवाड़ा की 80% से अधिक कृषि भूमि बारिश पर निर्भर है, इसने पिछले 15 वर्षों में स्थिति को गंभीर बना दिया है। जल स्तर तेजी से घट रहा है क्योंकि गन्ने जैसी नकदी फसल – जो फसल क्षेत्र के 5% से भी कम में उगाई जाती है – सिंचाई के लिए उपलब्ध पानी का दो-तिहाई उपयोग करती है। इसके परिणामस्वरूप जल स्तर में कमी आई है और जलस्रोत सूखने लगे हैं।
धाराशिव के किसान सुरेश चंद ने कार्बनकॉपी को बताया, ”कई जगहों पर जलस्तर 700 फीट तक गिर गया है. कुछ स्थानों पर किसानों को पानी पाने के लिए 1000 फीट गहरी खुदाई करनी पड़ती है। इससे उत्पादन लागत में भारी वृद्धि होती है। फसल तो छोड़िए, पानी की कमी के कारण हम अपने पशुओं के लिए हरा चारा भी नहीं उगा पाते। यह हमारे लिए पशुपालन को भी असंभव बना देता है।”
भारत में कीटनाशकों का सबसे अधिक उपयोग महाराष्ट्र में होता है। सरकारी वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021-22 में देश में कुल 63284 टन रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग किया गया और इसमें से महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 13175 टन थी – जो राष्ट्रीय खपत का लगभग 21% है। पेस्टिसाइड एक्शन नेटवर्क (पैन) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2014-15 और 2018-19 के बीच महाराष्ट्र में कीटनाशकों का उपयोग 35% से अधिक बढ़ गया है, जबकि 2014-15 और 2017-18 के बीच राष्ट्रीय औसत वृद्धि लगभग 13% थी।
कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के इस अत्यधिक उपयोग ने किसानों को कर्ज में धकेलने में प्रमुख भूमिका निभाई है। वेबसाइट स्टेटिस्टिका के अनुसार कीटनाशकों का थोक मूल्य सूचकांक 2013 में 107.5 से बढ़कर 2023 में 143.4 हो गया, जो दस वर्षों में 33% की छलांग है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस), तुलजापुर परिसर के शोधकर्ताओं ने मराठवाड़ा में व्यापक रूप से उगाई जाने वाली नकदी फसल सोयाबीन के प्रति एकड़ उत्पादन की लागत की गणना की है और पाया है कि एक एकड़ में उगाई गई फसल के लिए एक किसान को 24613 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली मिट्टी से 10 से 15 क्विंटल फसल प्राप्त होती है। औसत गुणवत्ता वाली मिट्टी एक सीज़न में 8-9 क्विंटल और निम्न गुणवत्ता वाली मिट्टी 5-6 क्विंटल उपज देती है, जिसमें फसल की बुआई से लेकर कटाई तक लगभग चार महीने लगते हैं।
संस्थान के एक शोधकर्ता ने इस लेखक को बताया, “अगर परिवार के चार सदस्य खेती में लगे हैं, तो 15 क्विंटल की उच्चतम उपज भी उन्हें प्रति एकड़ 75,000 रुपये देगी। खर्च घटाने पर हाथ में सिर्फ 50,000 रुपये की आमदनी आती है. इसका मतलब है कि एक एकड़ फसल के लिए, प्रति व्यक्ति प्रति माह कमाई केवल लगभग 3,100 रुपये बनती है।”
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उपरोक्त गणना उस स्थिति के लिए है जब मिट्टी सबसे उपजाऊ होती है और फसल उगाने की परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं और फसल को बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। किसान नेता और कार्यकर्ता हनुमंत राजगोरे का कहना है कि किसानों को आम तौर पर एक एकड़ से आठ क्विंटल से अधिक सोयाबीन की फसल नहीं मिलती है और जब वे इसे बेचने जाते हैं तो अक्सर उन्हें बाजार में अच्छे दाम नहीं मिलते हैं।
उन्होंने कहा, ”ज्यादातर किसानों के पास 5 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं है. इसलिए सर्वोत्तम उपज परिदृश्य में भी मासिक कमाई (उपर्युक्त गणना के अनुसार) प्रति व्यक्ति 15,500 रुपये से अधिक नहीं है।
मराठवाड़ा के कई जिलों के किसानों ने यह शिकायत की कि उन्हें उनकी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलता है। किसानों की मांग के अनुसार फसल उगाने के कुल इनपुट और ज़मीन किराए पर 50% अतिरिक्त भुगतान चाहते हैं जो एमएसपी का एमएस स्वामीनाथन फॉर्मूला (सी2+50%) है।
राजगोरे के मुताबिक, ”एमएसपी सरकार की ओर से सिर्फ एक घोषणा है। यह निजी खरीदारों के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी भी नहीं है। इसलिए खुले बाजार में किसानों को उनकी प्रति क्विंटल फसल पर 500-600 रुपये कम मिलते हैं। 10 फीसदी से भी कम किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है. ”
कृषि संकट पर TISS की रिपोर्ट कृषि में कम विविधीकरण को एक कारण बताती है। इसके मुताबिक
जिले में बागवानी के लिए भूमि और जलवायु की उपयुक्तता के बावजूद, बागवानी भूमि वाले किसानों का प्रतिशत केवल 1.8% है। यह कृषि क्षेत्र में कम विविधीकरण और पारंपरिक खेती पर उच्च निर्भरता को दर्शाता है।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सफल विविधीकरण के लिए गारंटीशुदा कीमत के आश्वासन की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में किसानों ने उच्च वाणिज्यिक नकदी फसलों को चुना क्योंकि अन्य पारंपरिक फसलों की कीमतें स्थिर हैं। वे जोखिम लेते हैं लेकिन सभी उच्च मूल्य वाली फसलों में उच्च उतार-चढ़ाव भी वैसा ही देखने को मिलता है। जब उपज अधिक होती है तो कीमतें गिर जाती हैं।
कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा कहते हैं, ”हमने देखा है कि सोयाबीन जैसी फसल में किसान को एक साल में 8 से 9 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक का भुगतान मिला है लेकिन फिर वही फसल उन्हें 4000 रुपये प्रति क्विंटल से भी कम में बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा… यह उतार-चढ़ाव किसान के लिए घातक है। मेरा सवाल यह है कि जब बाजार में हर उत्पाद के लिए न्यूनतम मूल्य तय है, तो किसानों की फसलों के लिए यह क्यों तय नहीं किया गया है, जबकि हम जानते हैं कि उत्पादन की ऊंची लागत के कारण वे पहले से ही संकट में हैं और अप्रत्याशित और चरम मौसम की विकट होती स्थिति से भारी नुकसान झेल रहे हैं।”
सरकारी अधिकारी मानते हैं कि कम भूमि जोत, उत्पादन की उच्च लागत और कम रिटर्न ने क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या में भूमिका निभाई है।
हिंगोली जिले के एडिशनल कलेक्टर खुशाल सिंह परदेसी का कहना है कि “समय बीतने के साथ किसान के पास भूमि जोत क्षेत्रफल घटता जा रहा है और खर्च लगातार बढ़ रहा है।” उनके अनुसार रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग और लगातार फसल के कारण “मिट्टी की उपजाऊ क्षमता” कम हो गई है। इसलिए “किसानों की आय और जरूरतों के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है।”
उन्होंने कहा, “किसानों की मदद के लिए सरकार उर्वरकों पर सब्सिडी देती है। महाराष्ट्र में प्रमुख फसल सोयाबीन है और सरकार ने इसके लिए एक निश्चित एमएसपी तय किया है। कपास के लिए भी हम कीमत नियंत्रित कर रहे हैं। अन्य फसलों के लिए राज्य हमारे राज्य विपणन संघों की मदद से NAFED का समर्थन कर रहा है, जिससे किसानों को अच्छी कीमत पाने में मदद मिलती है।”
लेकिन बहुत से सरकारी अधिकारी किसान आत्महत्याओं के लिए “बदली हुई जीवनशैली” और “पारंपरिक रीति-रिवाजों” को भी जिम्मेदार मानते हैं।
खुशाल सिंह कहते हैं, “समय बदल गया है। अब किसानों को परिवहन के लिए मोटरसाइकिल और संचार के लिए मोबाइल फोन जैसी चीजों की भी आवश्यकता है जो पहले नहीं थी। आज से 10-15 साल पहले ऐसा नहीं था कि किसान विवाह जैसे भव्य समारोहों या भव्य धार्मिक रीति-रिवाजों या त्योहारों के लिए ऋण लें लेकिन अब तो किसान अक्सर अपनी बेटी की शादी के लिए अपनी जमीन तक बेच देते हैं। ये चीजें किसान आत्महत्या के पचास प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। ”
किसानों के अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठन इस दावे का पुरजोर खंडन करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता सीमा कुलकर्णी, जो महिला किसानों के अधिकारों के लिए महिला किसान अधिकार मंच (MAKAAM) फोरम की राष्ट्रीय टीम की सदस्य हैं, कहती हैं, “हमारे सभी सर्वेक्षण और जमीनी स्तर पर टिप्पणियों से पता चलता है कि गरीबी और असमानता केवल ग्रामीण इलाकों में गहरी हुई है। विदर्भ और मराठवाड़ा ऐसे क्षेत्र हैं जहां कृषि संकट बढ़ रहा है। आत्महत्याएं बढ़ रही हैं और पलायन भी बढ़ रहा है। किसानों को उनकी खेती का दाम नहीं मिल रहा है।”
जलवायु परिवर्तन, संकट का एक बड़ा कारण
इस कृषि संकट में जलवायु परिवर्तन का अहम रोल है। चूँकि तापमान और आर्द्रता में उच्च उतार-चढ़ाव और अचानक या बहुत देरी से होने वाली बारिश फसलों को बर्बाद कर रही है, इससे किसानों का वित्तीय संकट बढ़ रहा है। सितंबर के पहले सप्ताह में भारी बारिश के कारण मराठवाड़ा में कम से कम 10 लोगों की मौत हो गई और लगभग 12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसलें नष्ट हो गईं. मराठवाड़ा के आठ जिलों के कुछ क्षेत्रों में 24 घंटों में 130 मिमी से अधिक वर्षा हुई, जो इस “शुष्क क्षेत्र” के लिए नई चुनौती है। इससे मराठवाड़ा के 883 जिलों के 14 लाख से अधिक किसान प्रभावित हुए।
महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में काम कर रहे सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक डॉ रामंजनेयुलु जी.वी. का कहना है कि वर्षा, आर्द्रता और तापमान के ग्राफ में असामान्यता तेजी से बढ़ रही है और सफल कृषि के लिए एक बहुत विस्तृत और सूक्ष्म अनुसंधान की आवश्यकता है।
रामनजनेयुलु ने कहा, “दुर्भाग्य से सरकार केवल एक निश्चित अवधि में कुल वर्षा को देख रही है। वर्षा के वितरण को नहीं देखा जाता है। बारिश के दिनों की संख्या कम हो रही है और किसी विशेष दिन पर बारिश बढ़ रही है। लेकिन बरसात के दो दिनों के बीच का अंतराल काफी लंबा होता है। इसलिए (वर्षा के अभाव में) कोई भी फसल लगभग दस दिनों तक जीवित रह सकती है, लेकिन उससे अधिक नहीं।”
सरकार फसलों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को स्वीकार करती है और कहती है कि नुकसान से बचने के लिए किसानों को वैज्ञानिक जानकारी प्रदान की जाती है। कृषि विज्ञान केंद्र, हिंगोली के वरिष्ठ वैज्ञानिक और प्रमुख डॉ. पीपी शेल्के ने हमें बताया, “हम किसानों को विज्ञान पर आधारित सहायता प्रदान करते हैं। हम किसानों के समूह बनाते हैं और उन्हें बताते हैं कि क्या उगाना है और कब उगाना है ताकि वे जलवायु परिवर्तन से प्रेरित अप्रत्याशित कारकों का मुकाबला कर सकें, लेकिन टेक्नोलॉजी की भी एक सीमा होती है। यदि किसी फसल के लिए बारिश में एक विशेष अवधि, मान लीजिए दस दिन से अधिक की देरी होती है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता।”
ऐसे हालात में रामांजनेयुलु काश्तकारों को बैंक ऋण की अनुपलब्धता जैसी समस्याओं की ओर इशारा करते हैं। नियमों के मुताबिक केवल भूमि स्वामी किसानों को ही ऋण सुविधा मिलती है, लेकिन हकीकत में ज़मीन पर खेती करने वाले बटाईदार हैं।
रामंजनेयुलु कहते हैं, “महाराष्ट्र कागज़ पर किरायेदारी को स्वीकार नहीं करता है लेकिन व्यवहार में किरायेदारी बहुत अधिक है। भूमि मालिकों के पास जमीन होती है लेकिन किरायेदार किसान जमीन पर खेती करते हैं और कोई लिखित किरायेदारी समझौता नहीं होता है और इन लोगों (किरायेदारों) को बैंकों से ऋण नहीं मिलता है। इसलिए इन लोगों को बैंकों से रियायती दरों पर ऋण नहीं मिलता है। वे निजी ऋणदाताओं के पास जाते हैं और कर्ज में फंस जाते हैं क्योंकि ब्याज दरें बहुत अधिक होती हैं।”
लेकिन आत्महत्या करने वाला किसान मुआवजे का पात्र नहीं होता अगर उसने निजी साहूकार से कर्ज लिया हो। एक अन्य समस्या फसल बीमा नियम है। बीमा कवरेज को परिभाषित करने के लिए एक प्रशासनिक ब्लॉक या सर्कल (जिसमें कई गांव होते हैं) को एक इकाई माना जाता है।
डॉ रामांजनेयुलु कहते हैं कि मौसम और जलवायु की बढ़ती अनिश्चितताओं के साथ यह किसानों के लिए बेहतर होगा कि मुआवज़े के लिए निर्णय लेने वाली इकाई छोटी है। उन्होंने बताया, “जब तक किसी ब्लॉक में 50% फसल नष्ट नहीं हो जाती, उस ब्लॉक के एक गांव का किसान मुआवजे का पात्र नहीं है।”
अखिल भारतीय किसान सभा, महाराष्ट्र के सचिव अजीत नवले कहते हैं, ”हम लगातार मांग कर रहे हैं कि फसल बीमा की इकाई गांव होनी चाहिए. यहां तक कि एक गांव में भी दो अलग-अलग स्थानों पर जलवायु की स्थिति अलग-अलग होती है। 20 या 30 गाँवों वाली एक बड़ी इकाई क्षति का आकलन करते समय कैसे न्याय कर सकती है? लेकिन जब भी हम छोटी इकाई की मांग उठाते हैं, तो सरकार कहती है कि कंपनियों के लिए इस (गांव) स्तर पर कर्मचारियों को नियुक्त करना व्यवहार्य नहीं है। सरकार उन कंपनियों को लेकर चिंतित क्यों है जो प्रीमियम से इतना मुनाफ़ा कमाती हैं?”
पिछले कुछ वर्षों में, रासायनिक उर्वरकों की खपत का ग्राफ लगातार ऊपर गया है और इसने पर्यावरण को ख़राब करने और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की समस्या को बढ़ाया है। फर्टिलाइजर इंडिया के अनुसार, यूरिया की बिक्री, जो (नाइट्रस ऑक्साइड) N2O के उच्च उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है – CO2 से 300 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस – महाराष्ट्र में आठ वर्षों में 12.5% से अधिक बढ़ गई है – 2.29 मिलियन टन से 2012-13 में 2023 में 2.58 मिलियन टन – एक दशक में 12.5% से अधिक की वृद्धि। विश्व स्तर पर वायुमंडल में 70% से अधिक नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन के लिए कृषि क्षेत्र जिम्मेदार है।
डॉ रामांजनेयुलु ने कहा, “रासायनिक उर्वरक का उपयोग जलवायु और मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए एक समस्या है। आपके द्वारा उपयोग किए जाने वाले प्रत्येक 100 किलोग्राम यूरिया से 1.2 किलोग्राम नाइट्रस ऑक्साइड निकलता है। इसका मतलब है लगभग 350 या 400 किलोग्राम CO2 के बराबर उत्सर्जन। इसलिए आप खेतों में जितना अधिक यूरिया का उपयोग करेंगे, उतना अधिक GHG उत्सर्जन होगा और जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ेगी। दूसरा, यूरिया के बढ़ते उपयोग से मिट्टी की जल धारण क्षमता कम हो जाती है। पहले मिट्टी की जल धारण क्षमता अधिक होती थी इसलिए यदि 10 दिनों तक बारिश न हो तो फसल बच जाती थी, लेकिन अब यूरिया के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी के छिद्र ढक जाते हैं और पानी का रिसाव नहीं होता है। इसलिए बारिश में सिर्फ पांच दिन की देरी से फसल बर्बाद हो सकती है क्योंकि मिट्टी में नमी नहीं है”।
धाराशिव: भारत के सबसे पिछड़े ज़िलों में एक
धाराशिव (पुराना नाम उस्मानाबाद), भारत के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है। यह नीति आयोग की देश के आकांक्षी जिलों की सूची में शामिल है। कोई उद्योग और कृषि विफल न होने के कारण, धाराशिव में रोजगार के लिए बड़ा पलायन होता है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस), ओस्मानाबाद परिसर के (जिला प्रशासन द्वारा कराए गए) एक सर्वेक्षण के अनुसार, धाराशिव जिले में 70% से अधिक किसानों के पास अल्प या सीमांत भूमि है, यानी प्रति किसान 5 एकड़ या उससे कम भूमि है। और केवल 2.65% किसानों के पास 10 एकड़ से अधिक भूमि है।
यहां 80% से अधिक कृषि भूमि सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर है और खेती में लगे अधिकांश परिवारों के पास कमाई का कोई अन्य ठोस साधन नहीं है। TISS सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 53% किसानों के पास कृषि के अलावा आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है और 80% से अधिक परिवार अपनी आय का 20% या उससे कम अन्य स्रोतों से कमाते हैं। ऐसी स्थितियों में जलवायु और मौसम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
TISS की रिपोर्ट कहती है:
जिले के किसानों की अर्थव्यवस्था के अन्य स्रोत नहीं हैं, वे अपनी आय के लिए मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। बारिश या मौसम की स्थिति में कोई भी उतार-चढ़ाव उनकी घरेलू अर्थव्यवस्था को तबाह कर देता है और उन्हें संकट की स्थिति में डाल देता है। ऐसे हालात कभी-कभी आत्महत्या को विवश करते हैं।
आंकड़ों से पता चलता है कि 2011 और 2017 के बीच धाराशिव जिले में कुल 567 किसानों ने आत्महत्या की और चिंताजनक रूप से यह संख्या 2011 में 25 आत्महत्याओं से छह गुना से अधिक बढ़कर 2015 में 164 हो गई।
धाराशिव में किसान आत्महत्याएं (2011-2017)
वर्ष | 2001 | 2012 | 2013 | 2014 | 2015 | 2016 | 2017 |
आत्महत्याओं की संख्या | 25 | 22 | 28 | 71 | 164 | 161 | 126 |
महिला किसान लिख रही हैं उम्मीद की इबारत
जब पति आत्महत्या कर लेते हैं तो विधवा पत्नियाँ असहाय और असुरक्षित रह जाती हैं। कोई वित्तीय या सामाजिक सुरक्षा न होने के कारण उनके पास भरण-पोषण का कोई रास्ता नहीं होता।
पाइकराव के मुताबिक, “अक्सर (मृत किसान का) परिवार इन महिलाओं को उनके पास जो भी संपत्ति होती है, उसमें कोई हिस्सा नहीं देता है। बाहरी लोगों, साहूकारों और यहां तक कि उनके करीबी रिश्तेदारों द्वारा भी उनका शोषण किया जाता है।”
बीड जिले के अहिरवाहे गांव में चौंतीस वर्षीय अनीता जलिंदर माने को परिवार से तब निकाल दिया गया जब उनके पति ने कुछ साल पहले आत्महत्या कर ली थी। आज वह कुछ स्वयंसेवी समूहों की मदद से संघर्ष कर रही है।
जैविक खेती और सामुदायिक सहयोग से ग्रामीण महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मीनाक्षी टोकले कहती हैं, “परिवार के भीतर बेहतर तालमेल से मदद मिल सकती है। महिलाएं आम तौर पर जानती हैं कि किसी विशेष मौसम में क्या बोना है और अगली फसल के लिए किस फसल का बीज बचा कर रखना चाहिए। हम अधिक टिकाऊ खेती के लिए सक्रिय महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित कर रहे हैं।”
लेकिन कई जगहों पर इन संकटग्रस्त महिलाओं ने खुद को संभाला और उम्मीद जगाई है। उन्होंने रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना ही घर में उगाए गए चारे और जैविक खाद के साथ खेती के कम लागत वाले टिकाऊ तरीकों को अपनाया है। सामुदायिक सहयोग से उन्होंने अपनी फसलों की योजना बनाई है और उनमें विविधता लाई हैं और उन्हें अच्छे दामों पर बेचती हैं। पाइकराव ने हमें हिंगोली जिले की कई ऐसी महिलाओं से मिलवाया, जो बदलाव की कहानी लिखने के लिए एक साथ आई हैं।
टेम्भुरनी गांव में चालीस वर्षीय कलावती सवंडकर 21 महिलाओं के एक समूह का नेतृत्व कर रही हैं। ये महिलायें सब्जियों और दालों के अलावा सोयाबीन, कपास, हल्दी, धान उगाती हैं।
कलावती ने कहा, “हम कर्ज में डूब गए थे लेकिन अब इस संकट से लड़ने का रास्ता निकाल लिया है। हम सामुदायिक नेटवर्क की मदद से कम लागत पर फसल उगाते हैं और अपनी फसलों के अच्छे दाम पाते हैं। इससे यहां मिट्टी और पानी की सेहत भी ठीक रहती है।”
कुलकर्णी बताती हैं कि सामूहिक प्रयास से “महिलाएं अब अपने खेतों को भोजन, नकदी फसलों, कीट प्रबंधन फसलों के विविध मिश्रण के साथ डिजाइन कर रही हैं – मूल रूप से एक ऐसा खेत जो एक दूसरे की ताकत से चलता है।”
उन्होंने कहा, “महिलायें रसायनों से भरपूर और सिर्फ वाणिज्यिक फसलों वाली कॉर्पोरेट नियंत्रित खेती को ना कहते हुए पारिस्थितिक रूप से सुदृढ़ आत्मनिर्भर कृषि की ओर बढ़ रही हैं। यह बदलाव महिला किसानों के साथ कई दौर के संवाद के कारण संभव हुआ, जिन्होंने कृषि के वर्तमान मॉडल, जाति, पितृसत्ता और वर्ग जैसे भेदभाव की सामाजिक संरचनाओं को ललकारा है।”
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